प्रदीप श्रीवास्तव
सौ बरस से भी पहले 7 जुलाई 1886 को जब फ्रांस
के ल्यूमेरे बंधुओं ने मुंबई में वाटकिंस होटल (तब बंबई) में कुछ लोगों के समक्ष
चलचित्र के छह टुकड़े दिखाए थे तब शायद ही किसी को यह अंदाज़ा रहा होगा कि उन्हों ने
तो जाने-अनजाने में भारतीय सिनेमा उद्योग का बीज ही रोप दिया है। और भविष्य में यह
सिनेमा उद्योग ऐसा बरगदी रूप धारण करेगा कि इस की छांव में भारतीय शास्त्रीय-संगीत,
रंगमंच,
लोक-संगीत
आदि अपनी आभा ही लगभग खो देंगे। उन के अस्तित्व को ले कर प्रश्न खड़े होने लगेंगे।
ठीक वैसे ही जैसे इसी भीमकाय फ़िल्म इंडस्ट्री की जीते जी किंवदंती बन चुकीं विश्व
विख्यात पार्श्व गायिका लता मंगेशकर की बरगदी छांव के तले तमाम बेहतरीन पार्श्व
गायिकाएं ऐसा कुम्हला गईं कि वह फिर कभी पनप ही न पाईं। यहां तक की खुद उन की सगी
छोटी बहन और पार्श्व गायिका आशा भोंसले भी उन पर आरोप लगाती हैं और कहती हैं कि
उन के साथ अन्याय हुआ। ऐसा ही आरोप हेमलता का है कि मंगेशकर बैरियर था।
वास्तव में यह जो भारतीय सिनेमा उद्योग इतना विशाल इतना विराट बना है
तो यह यूं ही नहीं हो गया है। यहां हर वक़्त कुछ न कुछ ऐसा होता रहा है या होता ही
रहता है जो इसे बेहद दिलचस्प बना देता है। बिलकुल यहां बनने वाली फ़िल्मों की तरह,
जैसे
कोई यादगार फ़िल्म बनाने के जुनून में जहां स्टूडियो में ही चटाई बिछा कर सोता है,
तो
कोई नैतिकता के तकाजे के चलते करीब-करीब दिवालिया हो जाने के बाद भी अगली फ़िल्म के
लिए एक स्मगलर द्वारा सम्मानपूर्वक पैसा दिए जाने की पेशकश भी ठुकरा देता है। हीरो
दृश्य में जान डाल दे इस के लिए सोने का जूता बनवाया जाता है, तो दूसरी ओर ऐसे
जुनूनी लोग भी रहे जो फ़िल्म से जुड़े लोगों, कलाकारों आदि के
एक-एक कर मरते रहने के बावजूद भी फ़िल्म पूरी कर के ही माने। किसी ने बीस बरस तक
रोटी ही नहीं खाई। गीत-संगीत ऐसे प्रभावशाली कि पैरों का थिरकना रोका न जा सके,
दुःख
भरे गीत ऐसे कि आंसू छलछला ही आएं। प्रदीप का लिखा और लता का गाया कालजयी गीत ‘ऐ मेरे वतन के
लोगों......’ सुन कर नेहरू जैसे प्रधानमंत्री भी आंसू न रोक पाए। और फिर जल्दी ही
हालात यह हो गए कि इस गाने के बिना तो जैसे गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस
समारोह अधूरा ही माना जाने लगा।
इंडस्ट्री ने वह दौर भी देखा जब व्यवसाय से पहले फ़िल्म की गुणवत्ता
पर ध्यान दिया जाता था। आज यह इंडस्ट्री उस दौर से गुज़र रही है जब सब कुछ सिर्फ़
व्यवसाय के लिए किया जाता है। जितनी दिलचस्प बातों, घटनाओं से भरी
है यह फ़िल्म इंडस्ट्री उतनी ही रोचक और तथ्यपरक है यह समीक्ष्य पुस्तक ‘सिनेमा-सिनेमा’ भी।
इस में उपरोक्त कई बातों के साथ-साथ ढेर सारी ऐसी बातें हैं जो अपने साथ पाठक को
एकदम बांध लेती हैं। लेखक दयानंद पांडेय ने दिलचस्प हिंदी सिनेमा उद्योग जो कि अन्य
भारतीय भाषाओं के फ़िल्म उद्योग के लिए प्रेरक ऊर्जा भी बना की बहुरंगी दुनिया का
बेहद प्रामाणिक ब्योरा बड़े दिलचस्प ढंग से रखा है। वास्तव में यह पुस्तक उन की करीब
दो दशकों की मेहनत का परिणाम है। जिस में सिनेमाई दुनिया के अंदर खाने की ढेरों
दिलचस्प बातें हैं। तमाम ऐसे अनछुए किस्से हैं जिन्हें बहुत ही कम लोग जानते
होंगे। जिसे लेखक ने सिनेमाई दुनिया की तमाम हस्तियों से बातचीत कर के, कई तरह से जांच
पड़ताल कर के लिखा है। जैसे यही बात कि आशा भोंसले चौदह की उम्र में घर छोड़ कर चली गईं और शादी कर ली। दो बच्चे हो गए तो पति छोड़ कर चला गया। फिर घर वापस आ कर रहने
लगीं, परिवार
ने पूरा सहारा दिया फिर भी परिवार से उन्हें शिकायत है। उन के बडे़ भाई संगीत
मर्मज्ञ हृदयनाथ मंगेशकर ने लेखक को यह बातें एक इंटरव्यू में बताईं । जिन्हों ने
फ़िल्मी संगीत से इस लिए दूरी बनाई क्यों कि उन का मानना है कि फ़िल्मी संगीत के कारण
शास्त्रीय-संगीत का स्तर गिरता है और इस से उन की शास्त्रीय-संगीत की साधना अधूरी रह
जाएगी। वह यह भी बताते हैं कि उन्हें ढाई हज़ार बंदिशें याद हैं।
कहां तो बंदिश गाना और दो-चार को याद रखना ही बड़ा मुश्किल होता है
वहां वह इस को गाने में ही पारंगत नहीं हैं बल्कि आश्चर्यजनक रूप से ढाई हज़ार
बंदिशें याद भी रखी हैं। वास्तव में शास्त्रीय-संगीतकारों और फ़िल्मी-संगीतकारों के
बीच संगीत के स्तर को ले कर गहरे मतभेद हैं। शास्त्रीय-संगीतकार दृढतापूर्वक कहते
हैं कि फ़िल्मी संगीत शास्त्रीय-संगीत को नुकसान पहुंचा रहा है। वह उस की आत्मा को
नष्ट कर रहा है। संगीत को बेच रहा है। मुनाफे के लिए हर समझौता कर रहा है। बिरजू
महाराज जैसे लोग अपने गुस्से का इज़हार करने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। फ्यूज़न
म्यूज़िक को कन्फ्यूज़न म्यूज़िक तक कह देते हैं। जिस से बिदक कर फ़िल्मी दुनिया के
संगीतकार शंकर महादेवन और लुईस कहते हैं कि जो लोग फ्यूज़न नहीं करते वह लोग
कन्फ्यूज़न करते हैं। तथ्य यह है कि व्यवसाय और शास्त्रीयता एक साथ नहीं चल सकते।
दोनों की दिशा और उद्देश्य अलग हैं। और अपनी जगह दोनों सही हैं। रंगमंच के तमाम
दिग्गज रंगमंच छोड़ कर फ़िल्मों में जाते हैं, अभिनय उन को वहां
भी करना है। मगर उन की प्राथमिकता में पहले नंबर पर पैसा आ गया तो दिशा बदल दी। चले
गए फ़िल्मों में।
पुस्तक में पच्चीस लेख एवं सत्ताइस नामचीन फ़िल्मी हस्तियों के
इंटरव्यू हैं। इन सब में एक से बढ़ कर एक रोचक बातें बताई गई हैं, खुलासे किए गए
हैं। लेखक अमरीका, चीन तक में सुनी जाने वाली भारत रत्न लता मंगेशकर को हिंदी की लाठी
बताते हुए यह मानते हैं कि उन की आवाज़ ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में बहुत बड़ा
योगदान दिया है। मगर कैसे ? इस प्रश्न का उत्तर नदारद है। इस पर वह थोड़ा भी
प्रकाश डालते तो अच्छा होता।
लता मंगेशकर के जीवन संघर्ष के ज़िक्र के क्रम में वह बताते हैं कि
पिता की जल्दी मृत्यु के बाद उन्हों ने कैसे परिवार को संभाला। और फिर वह व़क्त भी
आया जब वह दशकों पहले मर्सीडीज़ कार में चलने लगीं, मगर उन के छोटे भाई हृदयनाथ तब भी लोकल ट्रेन या बस से ही चलते रहे। क्योंकि फ़िल्मी संगीत से लता
ढेरों कमाई करने लगी थीं। और दूसरी ओर उन के भाई को शास्त्रीय-संगीत से पैसा नहीं
मिल रहा था। यह भी खुलासा संगीतकार सी.रामचंद्र की आत्मकथा के माध्यम से करते हैं
कि लता ने एक-एक गाना पाने के लिए रात-रात भर सी.रामचंद्र के पांव दबाए। लेखक से
यह बात सुन कर उन के भाई हतप्रभ रह गए।
ऊपर से चमक-दमक भव्यता से भरपूर फ़िल्मी दुनिया के अधिकांश लोगों का
जीवन अंदर ही अंदर कितनी घुटन, कितने संत्रास से भरा होता है पुस्तक में इस के
एक से बढ़ कर एक वृत्तांत हैं। बंगला और हिंदी फ़िल्मों की आला दर्जे की अभिनेत्री
सुचित्रा सेन के लिए बहुत ही मार्मिक बातों का उल्लेख है कि कैसे तो मीडिया द्वारा
उन का नाम उत्तम कुमार से जोड़े जाने के बाद उन्हों ने अपने को घर में कैद कर लिया और फिर
जीवन के शेष तैंतीस वर्ष तीन बार अपवाद छोड़े दें तो कभी किसी से मिलीं ही नहीं।
इसी क्रम में अमरीकी अभिनेत्री ग्रेटा गार्बो और जापानी तारिका सेत्सुको हारा का
उल्लेख है। पहली जहां पैंतीस वर्ष के बाद किसी से नहीं मिली, वहीं दूसरी
बयालीस के बाद जो लोगों से दूर हुई तो तिरानवे की होने तक भी किसी से नहीं मिली।
प्राण, अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार, रेखा, नूतन, संजीव कुमार,
राज
कपूर, दीप्ती
नवल, हेमा
मालिनी आदि कलाकारों के अभिनय और उन के जीवन के बारे में ऐसी बहुत-सी बातें लिखी गई
हैं जो कम ही लोग जानते हैं। जैसे अभिनय सरताज संजीव कुमर ने अपना कॅरियर इप्टा
में स्टेज पर परदा खींचने से शुरू किया था। और दिलीप कुमार आर्मी कैंप में लेमन
वगैरह बेचते थे। लेकिन तब अभिनय साम्राज्ञी देविका रानी ने सहारा दिया तो वह अभिनय
की दुनिया की अहम शख्सियत बन गए। इन कलाकारों ने किस प्रकार अपनी प्रतिभा अपने
उत्कृष्ट अभिनय, लगन से भारतीय फ़िल्मी अभिनय की दुनिया को नई ऊंचाई प्रदान की इस के
बड़े ही रोचक वर्णन हैं। पुस्तक में कई ऐसे फ़िल्म निर्देशकों का भी वर्णन है
जिन्हों ने अपनी निर्देशकीय क्षमता से अभिनेता-अभिनेत्रियों की प्रतिभा को ठीक से
पहचान कर उन्हें ऐसा तराशा कि वह सितारे बन चमक उठे। ऐसे निर्देशकों में श्याम
बेनेगल, सत्यजीत
रे, राजकपूर,
मनोज
कुमार, गोविंद
निहलानी, प्रकाश
झा, गुलजार,
मुज़फ़्फर
अली आदि खास तौर से जाने जाते हैं।
राजकपूर तो अपनी फ़िल्मों को अलग ही ढंग से ट्रीट करने के लिए पहचाने
जाते हैं। सत्यजीत रे को तो लेखक ने भारतीय सिनेमा को विश्व पटल पर स्थापित करने
का श्रेय दिया है। हालांकि विडंबना यह थी कि जब सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘पाथेर पांचाली’
1955
में रिलीज हुई तो देश में इसे तवज़्जोह ही नहीं मिली। मगर विदेशों में जब इस का
डंका बजा तो देश में भी चर्चित हुई। लेकिन इस आरोप से सत्यजीत रे नहीं बच पाए कि
वह भारत की गरीबी को दुनिया में बेच रहे हैं।
पुस्तक ऐसे तथ्यों से भरी पड़ी है जो यह स्पष्ट करते हैं कि इस तरह की
बातें चाहें जितनी की जाएं इस फ़िल्मी दुनिया को ऊर्जा देने, उसे परिपक्व
बनाने में इन्हीं फ़िल्मी हस्तियों की मेहनत, लगन और उन का
विज़न रहा है। जिस के चलते सिनेमा भारतीयों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है।
यह जैसे उन की सांसों में बसता है। लेखक भी इस से अछूता नहीं दिखता। पूरी पुस्तक
फ़िल्मों के प्रति उन के अतिशय लगाव का ही परिणाम है। फ़िल्मी दुनिया में एकदम गहरे
पैठ कर ऐसे उत्कृष्ट लेख लिखे, और साक्षात्कार
लिए हैं जिन में लेखक की बेबाकी और फ़िल्मी हस्तियों की बातों की बड़ी रोचक जुगलबंदी
है। जिस में अमिताभ बच्चन कहते हैं कि उन के पिता हरिवंश राय बच्चन का मानना था कि
हिंदी फ़िल्में पोएटिक जस्टिस देती हैं, तो मुज़फ्फर अली अपने को भगवान विष्णु
का भक्त बताते हुए कहते हैं हम तो राजा मोरध्वज के वंशज हैं। हमारा कोई कुछ बिगाड़
थोड़े ही सकता है विष्णु जी का आशीर्वाद है। हालां कि वह यह भी स्वीकारते हैं कि
व्यावसायिकता की मार में खो गए हैं हम। वहीं पीनाज मसानी चोरी का आरोप लगाती हुई
कहतीं हैं कि ‘उमराव जान’ फ़िल्म का संगीत खैय्याम का नहीं जयदेव का है।
वास्तव में यह पुस्तक इतनी रोचक, इतनी तथ्यपरक है
कि पाठक को एक उम्दा फ़िल्म की तरह आखिर तक बांधे रखने में सक्षम है। एक तथ्य यह भी
है कि हिंदी सिनेमा पर यूं तो तमाम पुस्तकें आई हैं। लेकिन संभवतः यह अपनी तरह की
अकेली पुस्तक है। जैसे सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ फ़िल्म एक अलग ही
स्थान बनाती है। मगर प्रश्न फ़िल्म पर फिर भी खड़े किए गए थे। तब की प्रख्यात
अभिनेत्री नरगिस दत्त ने तो राज्य सभा में प्रश्न खड़े किए थे। वैसे ही प्रश्न इस
पुस्तक पर भी हैं कि फ़िल्मों का ओढ़ने, बिछाने, जीने (यह पुस्तक
लेखक के बारे में ऐसा ही प्रदर्शित करती है) और दो दर्जन से अधिक किताबें लिखने का
अनुभव रखने वाले, कई पुरस्कारों से नवाजे जा चुके दयानंद पांडेय इस इंडस्ट्री को खड़ा
करने वाले, जीवन देने वाले बहुत से प्रमुख लोगों को कैसे भूल गए। कि हिंदी
फ़िल्मी दुनिया की बात हो और एच. एस. भटवडेकर, हीरालाल सेन,
दादा
साहेब फाल्के, हिमांशु राय, व्ही. शांताराम, महबूब खान,
ख्वाजा
अहमद अब्बास, के.एल. सहगल, मोती लाल, पंकज मलिक,
कुक्कू,
देविका
रानी, प्रदीप,
गोपालदास
नीरज, शाहिर
लुधियानवी, शैलेंद्र, शंकर-जयकिशन, गीता दत्त, ऊमा देवी,
सोहराब
मोदी, पृथ्वी
राजकपूर आदि की बात न हो तो बात अधूरी ही लगती है। दूसरी बात अमिताभ बच्चन की,
जिन के
लिए वह स्वयं मानते हैं कि वह उस ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं जिसे छूने की बात छोड़िए
कोई करीब तक नहीं पहुंच सकता है। उन्हीं के लिए पैसे के लिए पैंट उतारने जैसी
शब्दावली का प्रयोग अनुचित जान पड़ता है। गुजरात के तत्कालीन सी.एम.नरेंद्र मोदी ही
ने टी.वी. चैनल पर साफ कहा कि अमिताभ ने गुजरात पर्यटन के लिए की गई मॉडलिंग हेतु
एक पैसा नहीं लिया। ऐसे ही यू.पी. पल्स पोलियो तथा अन्य कई सामाजिक कार्यों के लिए
भी उन्हों ने पैसा नहीं लिया। जब कि वह चाहते तो करोड़ों रुपए ले सकते थे। लेकिन
नहीं लिया। समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया। जहां तक विज्ञापन करने
का सवाल है तो वह उन के व्यवसाय का हिस्सा है। नहीं करेंगे तो खो जाएंगे मुज़फ़्फ़र
अली की तरह। पाठकों के मन में पढ़ते व़क्त ऐसे ही कुछ और बातें भी आ सकती हैं।
जहां तक पुस्तक की पठनीयता मात्र का सवाल है तो दयानंद पांडेय उन
लेखकों में शुमार किए जाते हैं जिन के लिखे में ज़बरदस्त पठनीयता होती है। खासियत यह
भी है कि वह अपना एक ख़ास तरह का शब्दकोश रचे हुए लगते हैं, जिस के सारे
शब्दों का प्रयोग कर लेने की उन की जैसे जिद रहती है। गोया उन के बिना उन का लेखन
अधूरा ही रहेगा। उदाहरण स्वरूप कुछ शब्द देखिए-विरह, विरवा, विरल, बिलाए, बिला, आंच, बांच, गुनने, गमक, चमक, महक-चहक,
धमक,
बेकली,
शऊर,
शोखी,
परोस,
हेरा,
उभ-चूभ,
ठसक,
गंध,
चटख,
भहरा,
भरभरा,
पुलक,
अकुलाए,
अकुलाहट,
कुम्हलाए,
कलफ़,
कैफ़ियत,
टटकी,
टटका,
टटकापन
आदि। शुरुआती कुछ लेखों में यह शब्द कुछ ज़्यादा ही हावी हैं। एक बात यह भी है कि
बहुत से लेख ऐसे हैं जिन्हें कब लिखा गया इस का उल्लेख नहीं है। फिर भी यह कहना गलत
न होगा कि लेखक का लंबा अनुभव और उन की ढेरों जानकारियों के कोश ने इस पुस्तक को
ऐसा रूप दे दिया है जो आम पाठकों के साथ-साथ हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री पर यदि शोध की
बात आए तो वहां भी बेहद उपयोगी साबित होगा।
लेखक - दयानंद पांडेय
प्रकाशक-राष्ट्रवाणी प्रकाशन,
शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 450 रुपए
पृष्ठ - 231
प्रकाशन वर्ष- 2014
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