Monday, 5 May 2014

तो क्या स्त्री इस पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक बुनावट में कभी स्वतंत्र हो भी सकती है?

स्त्री का अपना निर्मल आकाश और उस की स्वंतंत्रता के मायने

स्त्री स्वतंत्रता की बात करना क्या आइस-पाइस खेलना है कि एक्खट-दुक्खट खेलना है? क्या स्त्री इस पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक बुनावट में कभी स्वतंत्र हो भी सकती है? अच्छा यह स्त्री स्वतंत्रता की बात चलाई भी किस ने? क्या स्त्री ने? निश्चित ही नहीं। यह विमर्श भी शुरु किया पुरुष ने। सिमेन द बुआ के सेकेंड सेक्स का सच क्या बिना सार्त्र के पूरा होता है? नहीं न? हां बात होनी चाहिए स्त्री अस्मिता की। स्त्री के सम्मान की। स्त्री के स्वतंत्र चेता होने की। लेकिन यह नहीं होता। बात होती है स्त्री मुक्ति की और ले-दे कर स्त्री देह पर बात आ कर ठहर जाती है। एक लेखिका ने एक समय लगभग फ़तवा जारी किया था कि स्त्री देह, स्त्री की है वह चाहे जैसे इस का उपयोग करे ! तो स्त्री देह भी क्या बिना पुरुष के उपयोग होती है? और कि क्या स्त्री सिर्फ़ और सिर्फ़ देह ही है? अच्छा तो क्या पुरुष स्वंतंत्र है स्त्री से? कतई नहीं। दोनों ही एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। गर्भ और नाल का रिश्ता है। स्त्री और पुरुष प्रकृति के वह अवयव हैं जो किसी सूरत में एक दूसरे से स्वतंत्र हो ही नहीं सकते। वह चाहे पारिवारिक चौहद्दी में हों या सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक चौहद्दी में। हां, स्त्री सम्मान और स्त्री के स्वतंत्र चेता होने की बात ज़रुर ज़रुरी है। स्त्री की गुलामी की बेड़ियां ज़रुर टूटनी चाहिए। लेकिन वह स्वतंत्र इकाई बन कर समाज में नहीं रह सकती। पुरुष भी स्वतंत्र इकाई बन कर नहीं रह सकता। पुरुष तो पूरी तरह स्त्री पर ही आधारित और आश्रित  है। मां न हो तो कोई पुरुष होगा कहां से? और यह बात सिर्फ़ मनुष्य में ही नहीं हर जीवधारी के बाबत लागू होती है।  मां, बहन, पत्नी, बेटी,  के बिना कोई पारिवारिक इकाई बनती नहीं। इसी तरह पिता, भाई, पति और बेटे बिना भी कोई पारिवारिक इकाई नहीं बनती। तो यह एक दूसरे से स्वतंत्रता की बात किस आसमान से आ गई? लेकिन स्वार्थ के मारे कुछ लोगों ने यह सूत्र छोड़ दिया। और स्त्री भी इस सूत्र में लिपट कर मदारी की रस्सी पर चलने लगी। यह विमर्श एक नई गुलामी की ओर ले गया है स्त्री को। यह बात क्या स्त्री नहीं समझती? तो क्यों नहीं समझती? सच तो यह है कि स्त्री के पास जो निर्मल आकाश है, जो शक्ति है, जो धैर्य और साहस है किसी एक पुरुष के पास नहीं है। निकट-९  की बहस तलब संपादकीय में  कृष्ण बिहारी  स्त्री विमर्श की एक नई खिड़की खोल रहे हैं। अपनी ही एक दुर्लभ और निर्मल कहानी इंतज़ार के रास्ते। यहां प्रस्तुत है उन की टटकी संपादकीय :



सम्पादकीय
समय से बात - ९
स्त्री की सत्ता या सत्ता की स्त्री ... या सत्ता में स्त्री  

स्त्री की आज की स्थिति है - हम भी मुंह में जबान रखते हैं ...

बड़ी चर्चा है . बड़े-बड़े विमर्श हैं . बड़ी-बड़ी बातें हैं . बड़े-बड़े दावे हैं. इस मामले में कुछ भी छोटा नहीं , सब कुछ बड़ा - बड़ा है मगर हकीकत क्या है ? स्त्री को हम कहाँ देखें ? घर में ? घर से बाहर ? या घर में भी और बाहर भी ? सदी बदले हुए भी १४ वर्ष तो हो गए ! मैं पहले घर से ही शुरू करता हूँ . सात - आठ साल का रहा होऊंगा जब मैंने अपनी चाची को चरखा चलाकर पैसा कमाते हुए और उस कमाई से अपने पति को पढ़ाते हुए देखा . यह १९६०-६२ का वक़्त था . एक समर्थ परिवार में जब चाचा की पढाई इसलिए बंद करा दे गई कि वे दो साल हाई स्कूल में फेल हो गए थे तो चाची ने उन्हें अपनी मेहनत से तीन साल पढ़ाया . यह अलग बात है कि चाचा पास नहीं हुए . चाची पढ़ी - लिखी नहीं थीं मगर उन्हें शिक्षा का महत्त्व शायद पता था . . . स्त्री विमर्श क्या आज की बात है ? क्या खाकर कोई स्त्री उन दिनों की स्त्रियों का मुकाबला करेगी जब एक स्त्री का उठाया गया ऐसा क़दम परिवार की मान-मर्यादा के खिलाफ जाता था ? अपने घर को बनाने के चक्कर में चाची भी टूट गयीं और उनका सपना भी टूट गया ... चाचा १९६७ में ही कहीं चले गए और आज तक नहीं लौटे . चाची आज भी जिन्दा हैं और गाँव में अपने हिस्से की खेती खुद करा रही हैं ...यह अस्सी वर्ष से अधिक आयु की एक स्त्री का जज्बा है और मैं उसे सलाम करता हूँ .... 

जब भी स्वछंदता का युग समाप्त हुआ होगा , लोगों में एक घर की कल्पना जन्मी होगी , किसी रिश्ते के प्रति अधिकार-भाव पनपा होगा तब शायद यह बात हुई होगी कि स्त्री और पुरुष के बीच एक ऐसा सम्बन्ध हो जो जीवन पर्यंत किसी नाम के अंतर्गत रहे . तभी शायद विवाह जैसे शब्द की अवधारणा सामने आई होगी . यह अलग बात है कि ऐसा कोई भी रिश्ता समय के साथ या तो बदलता है या धीरे-धीरे अपना अर्थ खोने लगता है . एक-विवाह की प्रथा रही हो या बहु-विवाह की , चल तो अब भी रही है . नैतिकता और अनैतिकता की स्थिति हमेशा से रही है इसलिए यह भी सही है कि पर पुरुष या पर स्त्री के सम्बन्ध भी बनते रहे . कभी इच्छा से तो कभी अनिच्छा से . इसके बावजूद स्त्री की सत्ता घर में बनी रही . असल में आज अपना समाज जिस भी रूप में है उसमें परिवार में अपनी पुत्री के सुरक्षित भविष्य के लिए आज भी उसके लिये वह 'विवाह' को ही अनुकूल पाता है . अच्छा-ख़ासा घर , कमाता - खाता वर और उसके परिवार के सभी सदस्य अच्छे हों , यह प्राथमिकता तो आज भी बनी हुई है . यदि एक प्रतिशत विवाह परिवार की इच्छा के विरुद्ध या परिवार को भी अपने साथ मिलाकर कोई युवती कर रही है तो भी उसमें सुरक्षित भविष्य और एक घर का सपना शामिल है . ऐसे में स्त्री की मुक्ति किससे ? क्या वह अपने आप से मुक्त हो पाई है ? क्या वह खुद से मुक्त हो सकती है ? मुक्ति की कामना में सबसे बड़ा रोड़ा तो उसके अपने ही मुक्त न हो पाने का है . केवल मन से मुक्त होकर स्वछन्द आचरण को स्त्री - मुक्ति का दर्जा देना और उसके लिए हो-हल्ला मचाना उसकी मुक्ति का मार्ग नहीं हो सकता . इसकी अनुमति उसे परिवार भी नहीं देता . और यदि उसे यह अवसर भी मिल जाए तो क्या वह पेट से मुक्ति पा सकेगी ? यह सबसे बड़ा सवाल है और शायद हमेशा रहेगा . पेट से मुक्ति का सवाल एक घंटे या एक दिन की भूख से नहीं जुडा , यह उसकी पहली सांस से लेकर अंतिम सांस तक सम्बंधित है . भूख स्त्री की हो , पुरुष की हो या किसी अन्य प्राणी की हो , इससे उसकी मुक्ति केवल मृत्यु है . जबतक जीवन है तबतक शरीर के इस व्यापार को लेकर निर्भरता बनी रहेगी . ठीक यही स्थिति सेक्स को लेकर भी है . शारीरिक संबंधों की गति और नियति भी परस्पर निर्भरता पर आधारित है .जब आज भी उसका भविष्य उसके अभिभावकों द्वारा ही तय होता है तो यह उसके हाथ में कहाँ है कि वह अपनी इच्छा से शारीरिक सम्बन्ध बनाए . अब फिर मैं पहली भूख , पेट की भूख पर आता हूँ कि यह कैसे संभव हो कि स्त्री उससे स्वतंत्र हो सके . आज पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़े हो सकने की अवस्था यदि २३-२६ वर्ष भी मान ली जाए तो क्या हर युवती इस अवस्था तक पहुँचते ही आत्मनिर्भर हो जा रही है कि वह अपना खर्च उठा सके . वह किससे मुक्ति चाहती है ? जिन्होंने उसे इस योग्य बनाया ? उसकी योग्यतापूर्ण निर्मिति में उसके माता-पिता , भाई-बहन या फिर किसी रिश्तेदार का योगदान तो रहा ही होगा . उसके मेंटर भी इस पंक्ति में होंगे . तो , क्या उन सबसे मुक्ति चाहेगी वह ? मान लूं कि अपनी मुक्ति को लेकर वह इतनी सजग है कि उसे किसी का भी साथ आत्मनिर्भर होने के लिए नहीं चाहिए तो भी उसका विगत तो सहारे के साथ ही आगे बढ़ा है . २६ साल की युवती अपना घर भी अकेले की कूब्बत पर नहीं बना सकती जबतक उसपर कोई खास मेहरबानी न हो जाए . एक घर जिसे लोग अपना घर कहते हैं उसे बनाने में या बना हुआ देखने में एक उम्र कहें या जिंदगी निकल जाती है .अब यह बात दूसरी है कि बनाया गया घर , घर होता भी है या नहीं क्योंकि घर दीवारों के ऊपर छत का नाम नहीं है मुझे लगता है कि किन्हीं ख़ास परिस्थितियों में समय से पहले एक घर बना लेने वाली स्त्रियों का प्रतिशत एक से भी कम है . इस अवस्था को पाने तक वह परिवार पर ही निर्भर है . फिर स्त्री की सत्ता का मूल प्रश्न हमेशा के लिए या तो अनुत्तरित रह जाना है या फिर बहस के घुमावदार मोड़ों से टकराते रहना है . अब दूसरा प्रश्न जो उसकी शारीरिक मांग से जुडा है वह और भी पेचीदा है . उसे हक होना चाहिए कि वह अपनी इच्छा से और अपनी पसंद से ही सम्बन्ध बनाए . जीवन जिस आपाधापी का शिकार हो चुका है उसमें अपनी इच्छा से कोई कबतक किसी को पसंद आएगा ? इसकी क्या गारंटी है कि पसंद आने की अवधि का कभी अंत नहीं होगा ? और , क्या पसंद बदलते ही दूसरा पुरुष वह स्थान ले लेगा ? और यदि पसंद कारणवश या अकारण ही बदलती रही तो ? यदि यह स्थिति आई तो स्त्री खुद अपने को कहाँ पाएगी ? उससे जुड़े अन्य लोगों को यदि छोड़ भी दिया जाए और उसके जीवन को एकाकी ही मान लिया जाए तो भी उसकी स्थिति का वर्तमान उसे तोड़ेगा और कुंठाग्रस्त बना देगा . उसका अपना आत्मसम्मान ही उसकी सबसे बड़ी समस्या बन जाएगा जिसे हर हाल में बचना चाहिए . इसे थोडा अलग ढंग से कहूं तो जिस आत्मसम्मान से आत्ममुग्धता का शिकार होकर वह इसे बचाने का बीड़ा कूचकर दुनिया को ठेंगा दिकाने निकली थी वही तार-तार हो गया . यह तो तय है कि जीवन में किसी एक प्रयोग के असफल होने की स्थिति में दूसरे प्रयोग को किये जाने से रुकना हार मानना है लेकिन जिन प्रयोगों से जीवन की गरिमा छिन्न-भिन्न हो जाए , जीवन की समस्त ऊर्जा सूखती चली जाए उनसे केवल बंजर ही होते जाना है . इसके अलावा स्त्री देह के अपने दुःख - सुख हैं . सुख कम हैं , दुःख ज्यादा हैं . उसकी हारी - बीमारी है . किसी के साथ होने की भूख उस समय बहुत बढ़ जाती है जब किसी को दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती है . अकेलापन उन्हीं वक्तों में भारी होता है जब देह की ताकत निचुड़ी हुई होती है . जब इंसान बिस्तर पर होता है तब वह असहाय होता है .अपनी समूची सत्ता के निर्जीव और अशक्त होने का एहसास उन्हीं क्षणों में होता है . उन हालातों में उसके साथ कौन होगा जब उसके अपने उससे दूर होंगे ? माना कि अस्पताल हैं लेकिन क्या अस्पताल किसी के अकेलेपन का इलाज हैं ? उसके पास किसी मित्र का होना जरूरी है . वह कितने मित्र बनाएगी ? उनमें कौन-सा मित्र सच्चा होगा ? और क्या ऐसा नहीं होगा कि उसके पास होने वाले बहुत-से सच्चे मित्र 'अपने सच्चे मित्रों ' को छोड़कर उसके पास आये हों ? विश्वासघाती चेहरों की पहचान वह कब कर पाएगी ? धोखे खाने के बाद ? कई सवाल हैं जिनसे स्त्री को जूझना है ... और सोचना है कि 'घर' में स्त्री की सत्ता का अब भी कोई अर्थ बचा है या नहीं . मेरी राय अंतिम नहीं है मगर मुझे लगता है कि घर में जो स्त्री की सत्ता है , किसी भी देश में , किसी भी वातावरण में , उसमें वह पूरी तो नहीं मगर बहुत हद तक सुरक्षित है  ... घर के बाहर उसकी असुरक्षा का प्रतिशत बढ़ जाता है ...


अब बात सत्ता की स्त्री की : समाज में अनेक सत्ताएं एक साथ होती हैं और समानांतर चलती रहती हैं . आर्थिक , सामाजिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक , व्यापारिक , कला , साहित्य , सिनेमा , खेल-कूद और अपराधिक माफिया  के अलावा मीडिया आदि ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें अब से पहले भी स्त्रियाँ रही हैं . यहाँ किसी के नाम लिए जाने की जरूरत नहीं है मगर यह सर्वविदित है कि इन क्षेत्रों में प्रवेश पाई स्त्रियाँ 'घुसाई' गई स्त्रियाँ हैं . इन घुसाई गई स्त्रियों में से बहुत कम ही ऐसी होंगी जिन्होंने अपने शोषण से इनकार किया हो या फिर ऊपरी इनकार के बावजूद अपना शोषण होने दिया हो . दैहिक शोषण हमेशा होता रहा है . मर्दों की दुनिया में मर्दों से निपटने के लिए स्त्री ने अकेले तय किया कि वह आगे बढ़ने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हुई . इस सफर में वह लहुलुहान हुई . उसके साथ कोई खड़ा नहीं दिखा . उसने स्त्री को भी अपने साथ विश्वास में नहीं लिया . हुआ तो यह भी कि वह अपने अलावा अन्य स्त्रियों की भी दुश्मन हो गई . उसे अपने अलावा अपने क्षेत्र में दूसरी कोई भी स्त्री किसी भी कोण से प्रशंसनीय नहीं लगती .इसी का परिणाम है कि इन सभी क्षेत्रों में स्त्री को आज भी खिलौना ही माना जाता है . आये दिन ऐसी घटनाएं सुर्खियाँ बनती हैं जिनमें किसी स्त्री के साथ कोई बुरी 'होनी' हो जाती है और तब उसकी दुर्दशा को चटखारे लेकर तिल का ताड़ बनाने वाली स्त्रियाँ ही होती हैं . मैंने इसे बुरी 'होनी' कहा है क्योंकि सत्ता की स्त्री के साथ अनहोनी का होते रहना कोई नई बात नहीं है और अपने साथ होने वाली अनहोनियों को स्त्री कदम-कदम आगे बढती हुई सेलिब्रेट करती रही है . सत्ता की स्त्री का चरित्र ब्यूटी पार्लर से निकली स्त्री का रहा है जिसमें सुन्दर दिखने की इच्छा कम , सौंदर्य के अग्निपाखी रूप के साथ दूसरों पर ईर्ष्यालु कब्ज़ा प्रमुख है . दूसरी स्त्री के लिए तो वह मुकाबले में धोबियापाट जैसे दांव के अलावा ब्रह्मास्त्र भी रखती है . ताज्जुब होता है कि सत्ता की स्त्री रहते हुए भी उसकी दुश्मनी स्त्रियों से ही होती है . मर्दों की दुनिया में रहते हुए जितनी भी शक्ति वह अर्जित करती है उसका पूरा प्रयोग वह मर्दों के खिलाफ करने के बजाय अपनी ही जाति के खिलाफ करती है . कारण भी स्पष्ट है . सत्ता की स्त्री पॉवर हंग्री नहीं है , वह सोर्स हंग्री  है . उसे सोर्स चाहिये जिसके बल पर वह अपनी शान और धाक दिखाते और जमाते हुए ठसके के साथ रहे . ऐसी महिला दूर - पास से रखैल कही जाती है . सत्ता के खेल में वह खिलौना है और षड़यंत्र का हिस्सा है ...सत्ता की स्त्री इस्तेमाल की चीज है , वह ठगने की लोलुपता और ठगे जाने की आगामी सुरक्षा के बीच का ऐसा सपना है जिसमें स्त्री ने अपनी कीमत भी पुरुषों पर ही छोड़ दी है . उसकी कीमत , स्थान और पद के साथ बदल जाती है मगर इज्जत पर फालूदा चढ़ जाता है. इन सबके बावजूद वह रहती तो अकेली ही है ... क्योकि उसका दैहिक उपयोग तो सब चाहते हैं लेकिन उसे गले में हड्डी की तरह फसाना कोई नहीं चाहता . क्या इतनी - सी समझ स्त्री में नहीं है ? अट्ठानबे प्रतिशत महिलायें महत्त्वाकांक्षा से दूर हैं . उनके पास ज्यादा से ज्यादा अपनी योग्यतानुसार कोई काम-काजी स्थिति पा लेना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है . बहुत -से मामलों में तो योग्यता जितनी है उसके शतांश से भी कम का प्राप्तव्य उन्हें मिलता है. कुछ मामलों में तो कुछ भी नहीं मिलता या जो मिलता है वह 'न' के बराबर होता है . फिर भी वह बिना प्रतिरोध के रिटायर हो जाती है .सत्ता की स्त्री सोर्स हंग्री होने के लिए अपने 'इस्तेमाल' होने को बाखुशी सहती है ...वह सता की कठपुतली होती है और इशारों पर नाचती है ...

अब बात सत्ता में स्त्री की .... यह वह स्त्री है जो सोर्स हंग्री की राह से होकर पॉवर हंग्री हुई है . सत्ता में स्त्री के होने का प्रतिशत दशमलव में भी नहीं है . भारतीय राजनीति में भी जिस महिला आरक्षण के बिल की बात का तमाशा देखा और दिखाया जा रहा है यदि वह लागू भी हो जाए तो कितनी स्त्रियाँ हैं जो ताकत को अपनी मुट्ठी में रख पाने में सफल होंगी ? उँगलियों पर गिनी जा सके उतनी भी यह संख्या नहीं होगी . तब भी और इसके विपरीत वातावरण से भी स्त्रियाँ सत्ता में आती रही हैं . यह उनके सोर्स हंग्री बने रहने की जद्दोजहद में अपने को बचाए रख पाने की सफलता के साथ ग्रूम होते जाना है और मौका पाते ही सत्ता को हथिया लेना है . अब साधन तानाशाही हो या तथाकथित हमारा लोकतंत्र इससे कोई ज्यादा अंतर नहीं पड़ता . सत्ता में स्त्री का आना और सत्ता को कठपुतली की तरह नचाना कभी आसान नहीं रहा . दुनिया के मंच पर जितनी भी स्त्रियाँ सत्ता में आई हैं उन्होंने अपने भीतर की स्त्री को एक वक़्त पर मार डाला है . स्त्री के लिबास में कोई स्त्री हो , यह जरूरी नहीं . ये स्त्रियाँ किसी दूसरी प्रजाति की हैं और इनके आगे मर्द भी पानी भरते हैं . इजराइल , श्रीलंका , ब्रिटेन , भारत , पाकिस्तान , बांग्लादेश , कनाडा , आस्ट्रेलिया , फिलिपाईन्स के अलावा कई अन्य देशों ने भी सत्ता में स्त्री को देखा है .जब भी ऐसी स्त्रियाँ सत्ता में आई हैं उन्होंने अपनी राह को बदल लिया है . सत्ता का खेल युद्ध का वह मैदान है जहाँ नियम - क़ानून आदि भी कभी-कभी धरे के धरे रह जाते हैं . सत्ता एक नशा है और इस नशे का शिकार स्त्री एक नशेडची है . स्त्री हो या पुरुष , सत्ता के नशे में वे एक पिनक में रहते हैं . सत्ता में आई स्त्री के पास पॉवर तो होती है मगर उसके कान ख़त्म हो चुके होते हैं , आँख की रौशनी धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है . वह दूसरों के कानों से सुनती है और दूसरों की आँखों से देखती है . इन साधनों को ही चमचा कहा जाता है . यही चमचे समय के साथ सोर्स हंग्री होते जाते हैं . जब दुनिया में सत्ता का यही चरित्र है तो सत्ता में या सत्ता पर काबिज स्त्री का चरित्र इससे अलग हो भी कैसे सकता है ! सत्ता में होते हुए स्त्री कभी भूल नहीं पाती कि वह सत्ता में नहीं है . अपनी प्रभुता को स्थापित करने का नशा उसमें ज्यादा होता है . इसका फल-कुफल उससे जुड़े लोगों और उस देश को समय-समय पर भुगतना भी पड़ता है . शायद यही प्रमुख कारण है कि सत्ता में हुई स्त्री की निकटतम कोई स्त्री कभी नहीं होती . स्त्री को सबसे अधिक खतरा दूसरी स्त्री से ही होता है चाहे वह घर की बात हो या घर से बाहर की . स्त्री क्या अपने उपजाए खतरों से स्वयं को बचा पाएगी या सृष्टि के रहते तक इन्हीं खतरों से जूझती हुई अपनी शक्ति को व्यर्थ होते देखती और कुढती रहेगी ? 



कृष्णबिहारी , Po . Box- 52088 , Abu Dhabi , UAE . Mobile- +971554561090 

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