Thursday, 22 May 2014

कितना भी महीन बूको, घुसता ही नहीं मूढ़ सेक्यूलर दुकानदारों के मोटे दिमागों में

जाने क्या है कि  फ़ेसबुक पर वह चाहे मोदी भक्त हों, केजरीवाल भक्त हों, कांग्रेस भक्त हों या सेक्यूलर भक्त सब के सब कुतर्क और एकतरफा बात करने और सुनने के आदी हो चले हैं। तर्क, तथ्य और सत्य से जैसे इ्न का कोई वास्ता ही नहीं रह गया है। यह लोग बस अपने मन की ही चाहते हैं मित्र नहीं, मतभेद नहीं, सिर्फ़ यस मैन चाहते हैं। गोया मित्र नहीं बास हों वह। खास कर सेक्यूलर भक्त तो अब खुल कर गिरोहबंदी पर आमादा हैं। कि अगर कोई ज़रा भी उन के मन मुताबिक न चले, बोले वह फ़ौरन भाजपाई, मोदी भक्त घोषित हो जाता है। तो कई बार मुझे महाभारत के धृतराष्ट्र की याद आ जाती है। बताइए कि दुर्योधन मारा जा चुका है और धृतराष्ट्र को अंदाज़ा भी है इस बात का पर चूंकि कोई औपचारिक सूचना नहीं है उसे सो वह हर ध्वनि के साथ दुर्योधन के विजय घोष की सूचना सुनने को आकुल है। अजब है यह धृतराष्ट्र में तब्दील होते जाते लोग भी। देवेंद्र आर्य  अपनी एक कविता में कहते हैं कि  कितना भी महीन बूको /  घुसता ही नहीं मोटे दिमागों में। मैं उन की कविता में ही जो कहूं कि, कितना भी महीन बूको , घुसता ही नहीं मूढ़ सेक्यूलर दुकानदारों के मोटे दिमागों में। तो गलत नहीं होगा। अजीब सनक के मारे हुए हैं यह सेक्यूलरिज्म की दुकान चलाने वाले लोग भी। छूआछूत की पराकाष्ठा की हद है यह। दोस्तों मैं भी सेक्यूलर हूं। और समझता हूं कि हिंदुस्तान में निन्यानबे प्रतिशत से भी ज़्यादा लोग सेक्यूलर ही हैं। तभी यह देश एक बना हुआ है और कि तमाम अंतर्विरोधों और भिन्नताओं के बावजूद यह देश अटूट है और रहेगा। लेकिन कुछ मुट्ठी भर लोग अपने अहम और अपने स्वार्थ की दुकान चलाने के मोह में अपने को सेक्यूलर और बाकी को कम्यूनल कह कर एक गिरोहबंदी में फंस गए हैं और सब को उस में फंसा लेना चाहते हैं। विष-वमन का उन का यह औजार हालां कि काफी जंग खा चुका है फिर भी वह इसे रेते जा रहे हैं। सेक्यूलरिज्म की जुगाली करते हुए, जहर उगलते हुए अपनी बौद्धिकता का प्रलाप बतौर आक्रमण जा्री रखे हुए हैं।

हिटलरशाही और फ़ासिज्म के खिलाफ़ लड़ने की हुंकार भरने वाले लोगों का इस तरह फ़ासिस्ट होते जाना देखना भी अचरज में डालता है। टटका मामला हमारे मित्र शंभूनाथ शुक्ल का है। शंभुनाथ शुक्ल का कुछ सेक्यूलर फ़ेसबुकियों ने इस बिना पर गिरोहबंद हो कर घेराव कर दिया है कि उन्हों ने सेंट्रल हाल में मोदी के रुदन और भाऊकता की तारीफ़ कर दी। यह तो अदभुत है। सारे लोग अब उन्हें पुराना भाजपाई बताने पर आमादा हैं। अमर उजाला में कभी छपे उन के किसी लेख की भी याद की है इन गिरोह के मारे लोगों ने। अजब है यह भी। अभी जब तक शंभुनाथ शुक्ल पानी पी-पी कर ब्राह्मणों को गरिया रहे थे तब तक वह सेक्यूलर थे और यही लोग उन की वाल पर कोर्निश बजा रहे थे। तब उन्हें अमर उजाला वाला वह लेख नहीं याद आ रहा था, अब याद आ गया है। शंभूनाथ शुक्ला जब तक बसपा को एकतरफा आंख मूंद कर जितवा रहे थे, मोदी की बैंड बजा रहे थे जब तब तो वह सेक्यूलर थे, अब वह ब्राह्मण और कम्यूनल हो गए हैं।

इन गिरोह के मारों को कोई यह बताने वाला नहीं है कि शंभूनाथ शुक्ल पत्रकार हैं।  लेकिन किसी पार्टी के होलटाइमर नहीं। किसी पार्टी के सांसद या विधायक नहीं। कि उस की ह्विप जारी हो गई है या कि अगर किसी पोलित व्यूरो ने कह दिया है कि दिन को रात कहना है तो रात ही कहना है। उन्हें तो जो दिखेगा, जो उन का विवेक कहेगा, वही कहेंगे। वह किसी विचारधारा आदि के खूंटे से फ़िलहाल तो बंधे नहीं हैं। वह रहे हैं कभी कम्यूनिस्ट भी जैसा कि वह बार-बार लिख कर बताते रहे हैं। पर खूंटे से तब भी नहीं बंधे थे। कई बार अपनी टिप्पणियों में कुतर्क वह भी करते देखे गए हैं। कई बार उन्हें लोग उन के कुतर्कों के लिए भला-बुरा कहते भी रहे हैं। और वह उन का प्रतिवाद भी डट कर करते रहे हैं।

पर यह अजब समय है। कि आप के विवेक में असहमति के लिए कोई जगह ही नहीं रही। जो आप से असहमत हुआ आप उसे फ़ौरन भाजपाई, मोदी भक्त और कम्यूनल घोषित कर दें। ब्राह्मणवाद के खाने में डाल दें। आप हैं कौन ऐसा कहने वाले लोग भी? आप का अपना चरित्र भी क्या है? सिर्फ़ सेक्यूलर होने का ढोंग करना? सेक्यूलर शब्द का इतना दुरुपयोग? सेक्यूलर शब्द की आत्मा से परिचित भी हैं यह लोग? तरस आता है इन खोखले, दकियानूस और फ़ासिस्ट लोगों पर। इन के धृतराष्ट्रपने पर। जिन मुसलमानों की हिफ़ाजत का दावा करने के नाम पर इन फ़ासिस्टों ने विषवमन किया उन्हीं मुसलमानों ने इन्हें धता बता दिया इस चुनाव में। और इन सेक्यूलर दुकानों को अंगूठा दिखा दिया फिर भी इन की अकल पर पड़ा ताला अभी तक नहीं खुला। बहरहाल,  फ़ेसबुक पर रमेश उपाध्याय की यह ताज़ा पोस्ट पढ़िए:


"पालाबदलू लोगों पर आप कुछ नहीं कह रहे?"
"इतने सारे लोग कह ही रहे हैं."
"यानी आपको भी वही कहना है, जो वे कह रहे हैं?"
"नहीं, हमें उन पर कुछ कहना जरूरी नहीं लग रहा है."
"क्यों?"
"इसलिए कि फेंस पर बैठे लोग तो इधर-उधर होते ही रहते हैं. दलबदलू हों या पालाबद्लू, वे परवाह नहीं करते कि लोग क्या कहेंगे. सोच लेते हैं--कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना..."
"तो क्या उनकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए?"
"आलोचना तो अवश्य की जानी चाहिए, लेकिन सिर्फ पालाबदलू लोगों की नहीं, कुछ अपनी भी, कुछ अपने पाले की भी."
"मतलब?"
"मतलब आप खुद बूझिए."




इस से भी पेट न भरे तो देवेंद्र आर्य की यह ताजा कविता पढिए। यहां यह बहुत मौजू है :



जनता तेरी तो ........../  देवेंद्र आर्य
कितना भी महीन बूको
घुसता ही नहीं मोटे दिमागों में
पढ़वइया सोच देहाती भुच्चों से हार गयी
सारी मेहनत बेकार गयी .

अक्सरहां पढ़े – लिखों की राय मेल नहीं खाती गंवारों से
स्वयं को लोगों की मौखिकता का अक्षरशः
बल्कि भावशः अनुवाद मानने वाला तबका
अंततः अपढ़ साबित हो जाता है .

फलां की जीत को फलां की हार समझने का
ख़ास मनोविज्ञान , आम के गले नहीं उतरा
काशी को काशी ने बता दिया
कि काशी को समझने के लिए
थोडा सा मगहरवासी होना जरूरी है .

सच के पीछे का झूठ सच है
या झूठ है झूठ के पीछे का सच , पता नहीं
काशी जीती या हारी , ये भी पता नहीं
पर वे दानिश्वर क्या झाकेंगे अपने देश छोड़ने के
उत्तेजक बयानों की आत्मा में
क्या साहित्यकारों के राजनीतिक बयान
राजनीतिज्ञों के साहित्यिक बयानों की तरह ही होते हैं
निरर्थक,पानी का बुलबुला
क्या तानाशाह सिर्फ व्यक्ति होता है
प्रवृत्ति नहीं
कि किसी एक के लिए जलावतन हो जाया जाय
क्या वाकई देश इतना कमज़ोर है
भरोसा, कहाँ गया लोक पर अटूट भरोसा ?

बड़बोली होती हैं कलाएं
मौन होती भावनाएं
वाचाल होता साहित्य
चुप होते इरादे
हम जिनका प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं
उन्हें कितना समझ पाते हैं , देवेन्द्र !
समझते तो शायद निराला की तरह
तोड़ती पत्थरवाली की जोड़ती पीड़ा में उतरने
गुलाब को गरियाने
वीणावादिनी से वर माँगने
और राम की शक्तिपूजा करने में फांक नहीं देखते
तब शायद रामविलास का व्यक्तित्व
पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में बंटा नज़र नहीं आता
अक्षर-अभिमानी !

प्रगतिशीलता खूसट और अकडू होके कितनी लुजलुज होती है
जनता की पाठशाला में जाने की बजाय
जनता का क्लास लेते हैं हम
और इसी को डिक्लास होना समझते हैं.

केकर गुमान ?
विचारधारा के
गुमान कऊनो हो
गुमान में भुला जाला सगरो गियान !

तो नया ज्ञान यह है विरथरघुवीरा
कि बदल दो बुरबक जनता को
क्योंकि विचारधारा तो आई.एस.आई. मार्का है
गलत हो ही नहीं सकती .

बदल दो भुच्चड जनता को
जो समझ नहीं पाती साम्प्रदायिकता का कुचक्र
लाख समझाने के बाद भी
जिसे हिंदुत्व विकास का पर्याय नज़र आता है .

बदल दो गरीबी-भ्रष्टाचार से तंग
नए उमंग के मतदाताओं को
जो समझ नहीं पाते नव अवतरित नायक के
विकास मन्त्र के पीछे छिपी पूंजी की फूत्कार को .

अफ़सोस , यह जनता मत देने के काबिल नहीं रही
अब तुम्हें ही कुछ करना होगा
बदल दो , जैसे बदल चुके हो मौसम
जैसे बदल चुकी है कोख
जैसे बदलने जा रहे हो धरती
नए ग्रह पर बनाओ आशियाना
और पैदा करो विचार से जनता
जनता से विचार बहुत पैदा कर चुके .

हद है कि जिन दाढ़ियों के सम्मान के लिए लड़ती रही कवितायेँ
वे ससुर हत्यारे में ही मुक्ति तलाश करने लगे
लाशों की नींव पर विकास करने लगे
नीले हाथी ने भी सूंढ़ में उठा लिए कमल ऐरावत की तरह
और खूनचुसवा देवताओं का कीर्तन करने लगे
हत्यारे नायक के स्वागत में खड़े हो गए
‘पाक’ और नापाक दोनों प्रतिद्वंद्वी
एक साथ अंकल सैमऔर ड्रैगन के चेहरों पर है मुस्कान
तानाशाह हत्यारा महान देखकर.

या तो हम मूर्ख हैं या वे
या वे हिन्दुस्तानी या प्रतिशत जोड़ते घटाते ज्ञानी
कौन मूर्ख है कौन सुजान
अगर काशी की काशी जीत गयी होती
तब भी क्या जनता जाति ही होती ,अफवाह ही होती
तब भी क्या जनता मीडिया का प्रचार ही होती ?

करनी होगी नए सिरे से पहचान
कौन मूर्ख है कौन सुजान
फिलहाल फैसला बनता यही है
नीक बाऊर जो भी है जनता यही है
और इसी से काम लेना है हमें .

जनता पर अटूट आस्था रखने वाली कविताओं
और लोक की आरती करने वालों के मुंह में फंसी
भद्दी सी गाली कभी सुनी है आपने
जनता तेरी तो .....


रमेश उपाध्याय सेक्यूलर ख्याल के प्रतिष्ठित लेखक हैं। देवेंद्र आर्य भी सेक्यूलर ख्याल के हैं और प्रतिष्ठित कवि हैं। हां, लेकिन यह लोग गिरोहबंदी के घेरे से बाहर हो कर सोचते और लिखते हैं। यह ज़रुर है।

और यह सब कोई पहली बार नहीं हो रहा है। हिंदी पट्टी में यह सब पहले ही से होता आ रहा है। अभी हाल के दिनों में राजेंद्र यादव का निधन हुआ तो उन की अंत्येष्टि हिंदू धर्म में प्रचलित तौर तरीकों से हुई। तो तमाम साथियों ने नाक भौं सिकोड़ ली। अजब है यह भी। अच्छा यह बताइए कि अगर राजेंद्र यादव क्रिश्चियन होते तो क्या उन को क्रिश्चियन तौर तरीकों से नहीं दफ़नाया जाता? कि बाइबिल नहीं पढ़ी जाती? या कि मुस्लिम कब्रिस्तान में उन्हें दफ़ना दिया जाता? या फिर जो वह मुस्लिम होते तो क्या उन्हें दफ़नाने में मुस्लिम तौर तरीके नहीं अपनाए जाते? कि कुरान की आयतें नहीं पढ़ी जातीं? फ़ातिहा नहीं पढ़ा जाता? या कि क्रिश्चियन कब्रिस्तान में दफ़ना दिया जाता? या सुन्नी होते वह तो शिया कब्रिस्तान में दफ़ना दिया जाता कि शिया होते तो सुन्नी कब्रिस्तान में दफ़ना दिया जाता? यह सेक्यूलर गिरोह क्या तब भी हाय-तौबा मचाता?

अजब है यह सारी मूर्खताएं भी।

इसी तरह एक समय निर्मल वर्मा जैसे लेखक को लोगों ने हिंदू लेखक घोषित कर दिया था। क्या तो वह हिंदू मैथालजी पर लिखने लगे थे। अज्ञेय को इसी बिना पर अछूत पहले ही घोषित किया जा चुका था। बताइए कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी भी ब्राह्मण और हिंदू बता दिए गए हैं। रामचंद्र शुक्ल भी हिंदू आलोचक बता दिए गए हैं। तब जब कि फ़ारसी लिपि में लिखी जायसी की पद्मावत को उन्हों ने अवधी जबान का बताते हुए हिंदी साहित्य में न सिर्फ़ प्रतिष्ठित किया बल्कि तुलसी, सूर की पंक्ति में जायसी को बिठाया। हजारी प्रसाद द्विवेदी जिन्हों ने कबीर जैसे कवि को हिंदी में प्रतिष्ठित किया, उन को भी लोग ब्राह्मण और हिंदू घोषित कर गरिया लेते हैं। लेकिन राम विलास शर्मा? वह तो घोषित वामपंथी भी थे। पर इन सेक्यूलर मूर्खों में राम विलास शर्मा को भी ब्राह्मण और हिंदू घोषित करने वाले भी कम नहीं हैं। राम बिलासशर्मा में भी वह ब्राह्मण और हिंदू तत्व खिज ही लेते हैं। तब जब कि महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और राम विलास शर्मा के कद के आलोचक हिंदी में ढूढे नहीं मिलते। हां कुछ सेक्यूलर मनोवृत्ति के लफ़्फ़ाज ज़रुर जुगनू से भी फीके इधर-उधर मड़िया मारे हुए दिख जाते हैं। 

तो शंभूनाथ शुक्ला जैसे साधारण पत्रकार की क्या बिसात? शंभूनाथ शुक्ल जनसत्ता में हमारे साथी रहे हैं सो मैं निजी तौर पर जानता हूं कि वह पढ़े-लिखे एक भले व्यक्ति हैं। दाल भात खा कर ही खुश हो जाने वाले। सो दोस्तों शंभूनाथ शुक्ल को क्या और भी किसी मित्र को किसी खास तराजू में रख कर नहीं तौलें। और कि कोई फ़तवा जारी करने से बचें। फ़तवा जारी करने वाले बड़े-बड़े शंकराचार्यों और मौलाना बुखारियों के दिन लद गए। और कि कुत्तों की तरह गिरोह बना कर किसी को घेर लेने का अभियान भी बंद करें। आप सेक्यूलर हैं कि कम्यूनल, कांग्रेसी हैं कि भाजपाई और मोदी भक्त कि केजरीवाल भक्त, बने रहिए। व्यक्तिगत तौर पर। यह आप का अपना विवेक, अपनी सुविधा, अपनी पसंद और अपना व्यक्तिगत है। यह आप का मौलिक अधिकार भी है। लेकिन कोई दूसरा क्या है का फ़ितूर बांटने का यह तालिबानी हक और फ़ैसला अपने पास रखें। इस फ़ितूर से छुट्टी लें। लोगों को निश्चिंत हो कर अपनी बात कहने-रखने दें। और खुद भी रखें। वैचारिक मतभेद खूब रखें लेकिन यह वैचारिक छुआछूत के दिनों से अवकाश ले लें। अब यह छुआछूत के दिन विदा हो गए हैं, इस तथ्य को समय रहते जान लेने में कोई नुकसान नहीं है। बाकी तो रोटी फ़िल्म में आनंद बख्शी का लिखा और किशोर कुमार का गाया गाना तो आप दोस्तों ने भी सुना ही होगा कि ये पब्लिक है, सब जानती है ! न सुना हो तो अब से सुन लें। कोई नुकसान नहीं होगा।

2 comments:

  1. शंभूनाथ शुक्‍ल जी उम्‍दा आदमी हैं। उनका कोई प्राइस टैग नहीं हो सकता। अनाड़ी हैं वे जो उनका अपमूल्‍यन करें। उनसे भिड़ना वाकई आसान नहीं है। क्‍योंकि उन्‍होंने पत्रकारिता की दुनिया को नजदीक से देखा है। वे उन लोगों में हैं जिनके लिए कविवर गोपाल सिंह नेपाली ने कहा था: मैं भी लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्‍ता गह लेता/ ईमान बेचता फिरता तो मैं भी महलों में रह लेता।

    वे न तो संघी हैं न जड़ मार्क्सवादी। वे विचाराधाराओं की जमीनी हकीकत जानते हैं पर प्रगतिशील खयालाों के हैं। उनके पिता जी मजदूर थे तथा आम जनता की तकलीफों पर कितनी ही लोक कविताएं रची हैं। वे उसी जैविकी के उत्‍तराधिकारी हैं। उमाकांत मालवीय के शब्‍दों में: यही उत्‍तराधिकार मिला, यही देंगे।

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  2. बहुत खूब। बहुत ठीक बात। रहे अपने शंभू जी, तो वे शिव-शम्भू हैं। अनर्गल प्रलापों को वे पचा जानेवाले हैं। आपका भी और शम्भू जी का भी बहुत बहुत अभिनन्दन।

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