Saturday, 24 May 2014

अंधेरे सवालों के उजले जवाब

अंधेरे समय में जवाब तलाशती कलम


 डा. मुकेश मिश्रा


लोकतांत्रिक प्रणाली में जब अधिकारिक तौर से सवाल पूछने की हैसियत रखने वाला तबका ही सवालों के घेरे में हो तब समझना मुश्किल नहीं रह जाता कि बेहद खराब दौर आ चुका है। इस को इस तरीके से भी समझा जा सकता है कि किसी समूह के संरक्षक पर ही जब भरोसा नहीं रह जाय तो उस का भविष्य क्या होगा। मीडिया की भूमिका उसी संरक्षक की है भारतीय लोकतांत्रिक समाज में। लेकिन आज वही मीडिया सर्वाधिक संदेह की नजरों में न केवल चढ़ गया है बल्कि उस के प्रति भरोसा भी अब आखिरी सांसें गिन रहा है। कुछ साल पहले तक किसी को पता नहीं होता था कि खूब पढ़ा जाने वाला अमुक अखबार किसका है? या फिर कौन सी संस्था किस मकसद से कौन सा अखबार, पत्रिका, चैनल आदि चला रही है? लेकिन आज किसी अखबार या चैनल के समाज में आने से पहले ही न केवल उस का मकसद पता चल जाता है बल्कि बकायदा उस के लोग बड़े बड़े होर्डिंग्स लगा कर ढिंढोरा पीटते हैं कि अमुक समूह या व्यक्ति उस का मालिक है। हद तो यह है कि लोग अपनी फ़ोटो लगा कर अखबार व चैनल का प्रचार के बहाने खुद का चेहरा स्थापित करते नज़र आते हैं। खैर यह तो मीडिया की मौजूदा हकीकत का आधा सच भी नहीं है। पूरा सच यह है कि मीडिया अब माध्यम नहीं, मंडी हो गया है। मंडी भी खोवे-रबड़ी वाली नहीं, रंडी वाली मंडी। जहां बाज़ार में हर वेश्या रेट लिस्ट के साथ खड़ी है। क्या क्या नहीं बेच रहा आज का मीडिया? कैसे कैसे नहीं बिक रही हमारी मीडिया? मीडिया के तह तक पकड़ रखने वाले पत्रकार लेखक दयानंद पांडेय इस को बड़ी हिम्मत से बांचते हैं अपनी किताब ‘मीडिया तो अब काले धन की गोद में’ के पन्नों में। सर्वोदय प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित दयानंद पांडेय के आलेख संग्रह ‘मीडिया तो अब काले धन की गोद में’ कई प्रासंगिक विषयों का शोधपरक दस्तावेज है। जिसमें कुल ३० अध्याय हैं। स्वयं मीडियाकर्मी होने के कारण ही शायद उन्हों ने अपने इस पुस्तक को उपरोक्त शीर्षक दिया है। हालां कि इस किताब में मीडिया से इतर भी तमाम मुद्दों को खंगाला गया है। कई हस्तियों के बहाने सामयिक सवालों को उठाया गया है। बीते साल दिल्ली में निर्भया गैंग रेप जैसे जघन्य अपराध से उबलते देश को मानसिक संबल प्रदान करने और उस बहादुर बेटी को श्रद्धांजलि देने की नीयत से लिखे इस किताब के पहले अध्याय ‘एक बेटी की मौत का शिलालेख’ में लेखक ने एक लतीफे के सहारे देश की सरकारों और राजनीतिक जमातों की जमकर क्लास लगाई है। ‘काला दूध’ का वह लतीफा वाकई कितना सटीक है हमारे देश की सरकारों के लिए। इसकी तकरीर में जो-जो लिखा है दयानंद पांडेय ने वह काबिले तारीफ है। सियासत के काले दूध का हश्र वो इस तरह समझाते हैं कि ‘समय की दीवार पर लिखी इस आग को राजनीतिक पार्टियां पढ़ें और समय रहते यह चोर-सिपाही का खेल खेलना और नूरा-कुश्ती बंद करें नहीं जनता उन को जला कर भस्म कर देगी’। लेखक ने बड़ा दूरगामी संदेश दिया है हमारे सियासतदाओं को इस आलेक के माध्यम से।  


किताब के शुरुआती चरण में कुल छह आलेख मीडिया से सीधे तौर पर जुड़े हैं। जी न्यूज और नवीन जिंदल प्रकरण पर बेबाक टिप्पणी देते हुए लेखक दिल्ली पुलिस को बधाई देता है कि वह मीडिया के भ्रामक भयजाल में नहीं उलझ कर मीडिया की अस्मिता को बचाने का काम कर गई। अखबारनवीसों पर एक आलेख ‘बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी’ इसी पुस्तक में है जिस में अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों की पीड़ा और उन की नौकरी की त्रासदियों को उजागर किया गया है। अखबारनवीसों के सम्मान व अपमान की कहानी कहता यह आलेख कई प्रसंगों से प्रेरित है जिसमें राजेश विद्रोही का यह शेर बड़ा मौजूं है कि ‘बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी, खुद खबर है पर दूसरों की लिखता है’। आगे पूर्व राज्य सभा सदस्य और पत्रकार राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ को लेकर भी एक अध्याय है ‘मार्निंग वाक या पत्रकारिता के नहीं दलाली के चैंपियन’। एक और अध्याय भड़ास फॉर मीडिया के यशवंत सिंह पर भी है। दोनों ही लेखों में लेखक ने अपनी निजी जानकारियों और अनुभवों को व्यक्तिगत धरातल पर लिखा है। हो सकता है कुछ पाठकों को ये दोनों अध्याय कुछ पूर्वाग्रही लगें लेकिन यह दयानंद पांडेय ही हैं जो बड़ी हिम्मत और दिलेरी से ऐसी बातों को कह जाते हैं जिसकी जुर्रत खुद भुगते हुए लोग भी नहीं कर पाते। खास कर राजनाथ सिंह सूर्य वाला अध्याय बड़ा रोचक और जानकारी भरा है। अपने समकालीन व्यक्ति के सारे दावों को सप्रमाण झूठ साबित करते हुए बहस की खुली चुनौती देना एक लेखक होने के नाते खतरे से खाली नहीं।

बहरहाल, क्रम से दूसरा आलेख ‘मीडिया तो अब काले धन की गोद में’ इस पुस्तक की रीढ़ है। जिसमें दयानंद पांडेय आज की समूची मीडिया को न केवल कटघरे में खड़ा करते हैं बल्कि तथ्यों के आलोक में उस से सवाल-दर-सवाल दागते हैं। वे मीडिया जगत के मालिकों के सौदेबाज काकस को बेनकाब करते हुए जरूरी मुद्दों पर मौन साध चुकी मीडिया की वर्तमान पीढ़ी को पुराने उदाहरणों, नायकों, किरदारों की चर्चा कर के ललकारते भी हैं। दरअसल इस अध्याय पर एक पूरा शोध ग्रंथ लिखा जा सकता है। इतनी सामग्री बड़े सारगर्भित तरीके से इस आलेख में पिरोयी है लेखक ने कि जैसे वह कोई थीसिस की सिनॉप्सिस हो। वॉच डाग कहा जाने वाला मीडिया क्या सिर्फ़ डाग रह गया है? ऐसे बेधड़क सवाल खड़ा करना और उस सवाल को तथ्यों से पुष्ट करना, लेखक की खासियत है। इसी आलेख में वे एक जगह लिखते हैं कि ‘भड़ुआगिरी में न्यस्त हमारी पत्रकारिता राजा का बाजा बजाने में न्यस्त भी है और ध्वस्त भी। हमारी एक समस्या यह भी है कि हम पैकेजिंग में सजी दुकानों में पत्रकारिता नाम के आदर्श का खिलौना ढूंढ रहे हैं’। 

मीडिया संबंधी एक बड़ा दिलचस्प सातवां आलेख है ‘हिंदी लेखकों और पत्रकारों के साथ घटतौली की अनंत कथा’। इस में लेखकों के भुगतान और उन की दशा पर बहुत उम्दा तकरीर की है दयानंद पांडेय ने। प्रकाशकीय कारोबार और लेखकों के लुटते जाने की तमाम सच्चाईयां इसमें बांची गई हैं। सरकारी तंत्र और प्रकाशकों के गिरोह का पर्दाफाश करते हुए उन परिस्थितियों को इस में उकेरा गया है जिस में लेखक सब कुछ जानते हुए भी ठगा जाता है। साहित्य जगत की मठाधीशी पर भी एक आलेख बहुत अच्छा है जो अमरकांत जी को ज्ञानपीठ मिलने के बहाने लिखा गया है लेकिन इस में बड़ी बेबाकी से लेखक ने पुरस्कारों की लॉबिंग को उजागर किया है। साहित्यिक सम्मानों से जुड़ा एक और आलेख ‘शेखर जोशी और श्रीलाल शुक्ल सम्मान की त्रासदी’ भी वर्तमान समय में पुरस्कारों की पोल खोलता है। इस में पुरस्कारों का जुगाड़ तंत्र और इस के बहाने सत्ता की चासनी चूसने की जुगत में उत्कृष्ट साहित्यकारों का आए दिन होने वाले अपमानों की बखिया उधेड़ने की कोशिश सराहनीय है।

हर लेखक की एक अपनी खासियत होती ही है जो उसे औरों से अलग करती है। पत्रकार लेखक दयानंद पांडेय की लेखनी की एक विशेषता यह है कि वे अपने आस-पास जो भी देखते हैं उसे अपनी कलम से नवाजते हैं। कोरी कल्पना के लेखक नहीं हैं दयानंद पांडेय। यही वजह है कि वे समय-समय पर लेख, टिप्पणी, ब्लॉग लिखते रहते हैं। उन की यह गैर व्यावसायिकता उन्हें विशिष्ट बनाती है। विशिष्टताओं को पहचानना और उस को कागज पर उतारना दयानंद की दूसरी खूबी है। समीक्ष्य पुस्तक में कई ऐसे लेख हैं जो किसी न किसी ऐसे व्यक्ति पर केंद्रित हैं जो लेखक के आस-पास है। नामवर सिंह और मुद्राराक्षस जैसे दिग्गजों के ऊपर एक लेख है जो एक समारोह में घटित सही घटना पर बेबाक टिप्पणी है। अमृतलाल नागर की उत्कृष्टता पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाने वाले मुद्राराक्षस को जिस भाषा में दयानंद पांडेय ने इस आलेख के माध्यम से जवाब दिया है वह अनुकरणीय है। कथाकार शिवमूर्ति, लोक गायक बालेश्वर पर भी एक-एक अच्छे आलेख हैं। 

दयानंद पांडेय हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी के भी आधिकारिक विद्वान हैं। उन के कई उपन्यासों का अनुवाद दूसरों ने भोजपुरी में तो किया ही है स्वयं उन्होंने भी कई रचनाएं, नाटक व धारावाहिक भोजपुरी में लिखे हैं। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि आज तमाम क्षेत्रीय भाषाएं समाप्त हो रही हैं। या फिर वे अश्लीलता, फूहड़ता या फिर निकृष्ट व्यावसायिकता की शिकार हैं। व्यापक क्षेत्र में बोली जाने वाली भोजपुरी का भी कुछ ऐसा ही हाल है। समीक्ष्य पुस्तक में एक आलेख के माध्यम से लेखक ने भोजपुरी की गति-दुर्गति पर बेहतरीन आपरेशन किया है। भोजपुरी गायकी की यात्रा पर आधारित यह लेख वास्तव में शोध पत्र है। दो लाइनें यहां पर इस किताब से लिखनी ही पड़ेंगी ‘दरअसल किसिम-किसिम के दबाव झेलती भोजपुरी गायकी अब जाने किस अतरे में समाती जा रही है’। यह भी कि ‘भोजपुरी गानों की मान-मर्यादा, मिठास और सांस इस कदर पतित हो गए हैं कि वह समय दूर नहीं जब भोजपुरी गाने भी लांग-लांग एगो की शब्दावली में आ जाएंगे। लोग कहेंगे कि भोजपुरी भी एक भाषा थी जिस में लोग अश्लील गाना गाते थे।’

दयानंद पांडेय का उपरोक्त बयान महज टिप्पणी नहीं, समय का स्वर है। एक सवाल उन्हों ने अगले अध्याय ‘भोजपुरी अइसे कब तक भकुआती फिरेगी’ में दागा है। जिस में वे पूछते हैं कि भोजपुरी दुनिया के पांच देशों के बीस करोड़ लोग बोलते हैं फिर उसे अपेक्षित सम्मान क्यों नहीं? भोजपुरी की विशिष्टता और उस की उपेक्षा दयानंद पांडेय को अंदर तक झकझोरती है। यही वजह है कि वे आगे एक और आलेख लिखते हैं ‘2025: कोई लोक भाषा भी हुआ करती थी’। इस में वे इस विषय पर चिंतित दिखते हैं कि क्या पता 2025 तक हमारी लोकभाषाएं एक-एक कर अपने प्राण छोड़ती जाएं। बड़ी बारीकी से इस आलेख में यह बताया गया है कि कैसे हमारी मां समान लोकभाषाओं का कत्ल हम अपने ही हाथों से कर रहे हैं। 

इस आलेख संग्रह में कई ऐसे आलेख हैं जिन का पाठन कर के एक नयापन का अनुभव होता है। हिंदी थिसारस लिखने वाले अरविंद कुमार, पत्रकार रवीश कुमार, भवानी मिश्रा, अज्ञेय इत्यादि लोगों पर भी लेख हैं। जिन में नवीन तथ्यों, सूचनाओं और ताजा विमर्शों की गंभीरता है। दयानंद पांडेय एक सवाली लेखक लगते हैं। और साथ में जवाबी भी। पुस्तक में प्रायः सभी लेख समय-समय पर उन के मन में ऊपजे सवालों की किश्त हैं। दरअसल वे समय के अंधकार में छिपती सच्चाईयों पर खरा सवाल करते हैं दयानंद पांडेय। बस खासियत ये है कि उन अंधेरे सवालों का जवाब भी वो देने में सफल हुए हैं।










समीक्ष्य पुस्तक- मीडिया तो अब काले धन की गोद में

[आलेख]

लेखक- दयानंद पांडेय

पृष्ठ- 208 मूल्य- 400

प्रकाशक- सर्वोदय प्रकाशन 512-B, गली नं.2 विश्वास नगर दिल्ली-110032

प्रकाशन वर्ष- 2013

1 comment:

  1. >> इस में वे इस विषय पर चिंतित दिखते हैं कि क्या पता 2025 तक हमारी लोकभाषाएं एक-एक कर अपने प्राण छोड़ती जाएं।

    हम भाषा के संरक्षण के बारे में इतना चिंतित क्यों होना चाहिए ... .... समय गतिशील है ..... भाषाओं और कई संस्कृतियों में कई आते हैं और बहुत से चले गए हैं ... जानवरों की कई प्रजातियों भी खतरे में हैं .... क्या हम कभी उनके बारे में इतना परेशान हुए ?

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