बतौर मुख्य मंत्री अखिलेश यादव चूकते-चूकते अब चुक गए हैं। उन्हें सचमुच अब
इस्तीफ़ा दे कर पिता को गद्दी सौंप देनी चाहिए। और खुद संगठन का काम संभाल
लेना चाहिए। नहीं अभी उन्हों ने पिता के प्रधानमंत्री बनने का सपना तोड़ा
है, आने वाले चुनाव में उत्तर प्रदेश की सत्ता से भी हाथ धो बैठेंगे। कारण
एक नहीं अनेक हैं। लेकिन मुख्य कारण एक ही है, वह यह कि सरकार में शामिल
तमाम मंत्री अभी भी उन को बच्चा और खुद को उन का बाप समझते हैं। और जो
यह खबर है कि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव की
अनुमति से समाजवादी पार्टी की राज्य कार्यकारिणी प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश
यादव को छोड़कर भंग कर दी गई है। इसके अतिरिक्त सभी 15 प्रदेश स्तरीय
सम्बद्ध प्रकोष्ठों की राज्य कार्यकारिणी उनके अध्यक्षों सहित भंग कर दी गई
है। इस पर क्या कहें? अगर समूची कमेटी दोषी है तो कमेटी का अध्यक्ष भला कैसे बरी हो सकता है?
बहरहाल
आजम खान, शिवपाल सिंह यादव तो खैर अखिलेश को बच्चा समझने के लिए मशहूर ही हैं लेकिन इन
दो के अलावा और भी मंत्री हैं ऐसे जो अखिलेश को मुख्य मंत्री नहीं लौंडा
समझते हैं। मुलायम सिंह यादव तो खैर उन के पिता हैं ही, राजनीतिक तौर पर भी
उन्हों ने अखिलेश को अपनी पिता छवि की कैद से मुक्त नहीं किया
है। सही शब्दों में जो कहें तो मुलायम ने अखिलेश को मुख्य मंत्री नहीं
वरन घोड़ा बना रखा है और इस घोड़े की लगाम अपने हाथ में ले रखी है। तो क्या
अखिलेश यादव मुख्य मंत्री नहीं घोड़ा हैं? कि जो मजबूत सवार चाहे सवारी गांठ
ले? औ जो सवार ज़रा भी कमजोर हो तो घोड़ा उसे पटकनी दे दे? हो तो यही रहा
है। अभी चुनाव बाद हार की चर्चा के बाद जिस तरह दर्जा प्राप्त ३६ मंत्रियों
को अखिलेश ने एक साथ हटाया है, यह तथ्य इसी बात को साबित करता है। तो क्या
यह दर्जा प्राप्त मंत्री इस लिए नियुक्त थे कि वह चुनाव जितवाएंगे? चुनाव एजेंट थे यह? फिर
यह मुख्य धारा वाले मंत्री क्या आलू छीलने के लिए नियुक्त किए हैं अखिलेश
ने?
बताइए कि एक सर्वशक्तिमान मंत्री क्या सुपर चीफ़ मिनिस्टर कहे जाने
वाले आजम खान चुनाव बाद रामपुर के एस पी से नाराज हो कर तुरंत हटवा देते
हैं और चुनाव के पहले की एस पी को वापस बुला लेते हैं। जिस ने कुछ घंटों
में ही उन की चोरी गई भैसों को खोज निकाला था। आजम खान अभी चुनाव के दौरान
जब चुनाव आयोग द्वारा प्रतिबंधित कर दिए गए थे ऊल-जलूल बयान देने के लिए तब
भी चर्चा में थे। समाजवादी पार्टी में अपने को मुस्लिम वोटों के सब से
बड़े ठेकेदार मानने वाले आजम खान एक चैनल में दंगों की संख्या पर शर्मशार
होने के बजाए डींगें हांकने लगे तो एंकर ने उन्हें आंकड़े देते हुए बताया कि
विधान सभा में मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने एक जवाब में यह आंकड़े दिए हैं।
आजम खान मान ही नहीं पा रहे थे। और बड़ी अकड़ में बोल रहे थे कि विधान सभा
तो मेरी ही मर्जी से बैठती है, मेरी ही मर्जी से उठती है। उन की इस
हेकड़ी भरे बयान की जाने किसी ने क्यों नोटिस नहीं ली और उन को पलट कर नहीं
कहा कि जनाब, बात करने का यह तरीका संसदीय नहीं है और कि उत्तर प्रदेश की
विधान सभा आप की जागीर नहीं है। होंगे आप संसदीय कार्य मंत्री पर विधान सभा
तो विधान सभा अध्यक्ष द्वारा संवैधानिक निर्देशों द्वारा मुख्य मंत्री की सहमति से चलती है। लेकिन
नहीं आजम खान अपनी हेकड़ी पर यहीं नहीं रुके और कहने लगे कि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी
और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी अपने संस्थापकों के मरने के बाद शुरु हो पाई।
बार-बार एंकर के यह कहने पर कि मदन मोहन मालवीय के जीते जी ही बनारस हिंदू
यूनिवर्सिटी शुरु हो गई थी और कि उस समारोह में मदन मोहन मालवीय ने गांधी
की उपस्थिति में भाषण दिया था, वह इस तथ्य को किसी तरह स्वीकार कर पाए। और
एक बात के जवाब में वह एंकर से कहने लगे कि आप की दाढ़ी का लिहाज कर रहा
हूं। बताइए कि इस हेकड़ी और इस गुरुर वाले मंत्री के साथ कैसे और क्या
काम कर पाते होंगे अखिलेश यादव? यह वही आजम खान हैं जो अपने गुरुर में
मंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में ठीक से शपथ भी नहीं ले पाए थे। एक पैरा
छोड़ दिया था। सो कुछ दिन बाद में उन्हें दुबारा शपथ लेनी पड़ी थी।
शिवपाल सिंह यादव की उलटबासियों के भी तमाम किस्से भरे पड़े हैं उत्तर प्रदेश के सत्ता गलियारों में। और तो और अखिलेश यादव की एक सचिव हैं अनीता सिंह। आई ए एस अफ़सर हैं। बीते कार्यकाल में जब मुलायम सिंह यादव मुख्य मंत्री हुए तो यह मुलायम की करीबी बन गईं। अब तक बनी हुई हैं सो वह अखिलेश की 'चाची' कही जाती हैं। सो अनीता सिंह भी अखिलेश की लगाम थामे रहती हैं। चाचा राम गोपाल यादव अलग हैं। वह हैं तो थिंक टैख समाजवादी पार्टी के लेकिन कहा जाता है कि उन के अहम के आगे मुलायम सिंह यादव की भी नहीं चलती। यह और ऐसे किस्सों की फ़ेहरिश्त बहुत लंबी है और जानी-पहचानी है। सो इस सिलसिले को अभी मुल्तवी करते हैं। बात करते हैं अखिलेश के काम काज की भी।
अखिलेश ने जब बतौर प्रदेश अध्यक्ष समाजवादी पार्टी की कमान संभाली थी तब क्या तो समा था। और जब आजम खां, मोहन सिंह आदि की सहमति और घोषणा के बाद भी अखिलेश ने डी पी यादव को पार्टी में लेने से पूरी सख्ती से मना कर दिया था तो वह यह कर के युवाओं के हीरो बन गए थे। बेरोजगारी भत्ता, लैपटाप, कन्या विद्याधन आदि की योजनाओं ने अखिलेश यादव को जो नायकत्व दिया उस ने कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की चमक को फीका कर दिया था। और सचमुच कभी जब राहुल गांधी की असफलता और नाकामी की कहानी लिखी जाएगी तो यह भी ज़रुर लिखा जाएगा कि उन्हें पहली और निर्णायक शिकस्त अखिलेश यादव ने ही दी। अखिलेश ने न सिर्फ़ राहुल गांधी को करारी शिकस्त दी बल्कि दलितों के घर उन की रात गुज़ारने और भोजन करने की सदाशयता पर भी कालिख पोत दी। राहुल गांधी अखिलेश के आगे फ़्लाप हो गए थे तब के विधान सभाई चुनाव में। मुझे याद है कि उन्हीं दिनों राहुल ने गुस्सा होने और बीच भाषण में कागज फाड़ने का अभ्यास किया था। तभी एक प्रतिक्रिया में अखिलेश ने मुसकुराते हुए कहा था कि चुनाव बाद वह अपना कुर्ता भी फाड़ेंगे। यह कहते हुए अखिलेश के चेहरे की चमक देखने लायक थी। उन के चेहरे पर आत्म-विश्वास की जो इबारत थी वह साफ पढ़ी जा सकती थी। लोग जान गए थे तब कि यह चेहरा भावी मुख्य मंत्री का चेहरा है।
समाजवादी पार्टी की बयार ऐसी बही तब के चुनाव में कि समाजवादी पार्टी ने अखिलेश के नेतृत्व में ही भारी बहुमत से सरकार भी बनाई। लेकिन
अखिलेश मंत्रिमंडल में जब वही पुराने, वही बासी चेहरे दिखे तो लोगों की
उम्मीदों पर पानी पड़ना लाजमी था। बताइए कि डी पी यादव जैसे अपराधी
पृष्ठभूमि वाले आदमी को पार्टी में नहीं आने देने वाले इन्हीं अखिलेश यादव
के मंत्रिमंडल में राजा भैया जैसे निर्दलीय भी शामिल हो गए। तमाम और अपराधी
और दागी लोग भी। मुलायम मंत्रिमंडल के लगभग सारे लोग उपस्थित हो गए अखिलेश
मंत्रिमंडल में भी। स्थापित हो गया बिन कहे ही कि यह मुलायम की सरकार
है। अखिलेश का सिर्फ़ नाम ही है। रही सही कसर अनीता सिंह ने मुख्य मंत्री
सचिवालय का कामकाज संभाल कर पूरी कर दी। कहा जाने लगा कि यह तो चाचा-चाची
की सरकार है। लेकिन लैपटाप वितरण के जोश में आखिलेश सरकार की आहट दर्ज हो
ही रही थी, युवा अखिलेश में अपनी उम्मीदें ढूंढ ही रहे थे कि हाय गज़ब कहीं
तारा टूटा ! कुंडा में ३ मार्च, २०१३ को डी एस पी ज़ियाऊल हक की सरे आम
हत्या से पुलिस प्रशासन तो भड़का ही मुसलमान भी नाराज हो गए अखिलेश सरकार
से। अभी यह मामला शांत भी नहीं हुआ था कि गाज़ियाबाद में सपा नेता नरेंद्र भाटी की शिकायत पर एक
जूनियर आई ए एस अफ़सर दुर्गा शक्ति नागपाल को न सिर्फ़ अपमानित कर दिया
बल्कि उन्हें बतौर एस डी एम निलंबित कर दिया। २८ जुलाई, २०१३ को दुर्गा
शक्ति नागपाल के निलंबन ने अखिलेश सरकार के चेहरे पर कालिख पोत दी। यहां भाटी के एक साथ दो स्वार्थ जुड़ गए थे। एक तो मुस्लिम वोट बैंक दूसरे,
खनन माफ़िया को मदद। वह सही मायने में खनन माफ़िया को मदद कर रहे थे और
मुस्लिम तुष्टीकरण का रंग दे रहे थे। दुर्गा शक्ति नागपाल बड़ी तेज़ी से खनन
माफ़िया के खिलाफ़ कार्रवाई कर रही थीं। तो समूचा खनन माफ़िया दुर्गा शक्ति
नागपाल को सबक सिखाने पर आमादा था। भाटी उन के दलाल बन गए और वहां के
मुसलमानों के बीच मारे शेखी में ऐलान कर दिया कि रात बारह बजे फ़ोन कर
के पांच मिनट में सस्पेंड करवा दिया। न सिर्फ़ युवाओं में बल्कि आम लोगों
में भी इस दुर्गा शक्ति नागपाल प्रकरण ने अखिलेश की छवि को धक्का लगा।
दुर्गा शक्ति नागपाल प्रकरण ने प्रशासनिक हलकों में भी हताशा और क्षोभ का
माहौल बना दिया। मुजफ़्फ़र नगर दंगे में प्रशासनिक ढिलाई और अक्षमता साफ
दिखी। और अखिलेश सरकार की सारी धमक समाप्त हो गई। मुजफ़्फ़र नगर दंगे ने अखिलेश सरकार पर जो दाग लगाए वह जल्दी मिटने वाले हैं नहीं। बल्कि उन की सरकार तब से ही भंवर में चली गई। सुप्रीम कोर्ट तक ने अखिलेश सरकार को इस बाबत फटकार लगाई। दंगा पीड़ितो को राहत कार्य के तौर तरीकों ने भी अखिलेश सरकार की साख को धक्का लगाया। बाद के दिनों मे अखिलेश और मुलायम के गै जिम्मेदराना बयान और आजम खान का कोप भवन में जा कर बैठ जाना और फिर अखिलेश का उन के घर जा कर मनाना आदि अखिलेश सरकार को लगातार कटघरे में खड़ा करता गया। लेकिन सत्ता मद में चूर पिता-पुत्र ने इस सब से आंख मूंद कर अपनी सरकार की कब्र खोद ली। नतीज़ा इस चुनाव में सामने आ गया। प्रधान मंत्री बनने का सपना नेता जी का चूर-चूर हो गया।
दूसरे, मंत्रियों पर ढीली
पकड़ ने अखिलेश को कहीं का नहीं रखा। कोई भी सरकार चलती है अपने इकबाल और
अपनी धमक से। अखिलेश यादव सरकार ने अपना इकबाल और धमक दोनों ही खो दिया है।
उन्हें अब इस चुनाव में करारी हार के बाद अपनी अक्षमता को पूरी तरह जान
लेना चाहिए। मोदी ने अगर शेर दिया तो हम ने उन्हें लकड़बघ्घा दिया। और कि
चाय वाले से लड़ने के लिए बनारस में पान वाले को लगा दिया जैसे जुमले उन्हें
और उन की पढ़े-लिखे होने की छवि को बहुत गहरा धक्का दिया है। यह किसी दृष्टि संपन्न राज नेता की भाषा तो नहीं ही है।
अखिलेश को अभी राजनीतिक समझ और परिपक्वता सीखने का अभ्यास करना चाहिए। मुख्य मंत्री प्रधान मंत्री बनने को उन के पास पूरी उम्र पड़ी है। इस लिए भी कि बहुत सारी बातें आप चांदी का चम्मच मुंह में ले कर नहीं सीख सकते। मुख्य मंत्री रह कर यह संभव है भी नहीं कि आप सब कुछ सीख लें। चमचों, चापलूसों से अलग हो कर ही, शासकीय कार्यों से अलग हो कर ही ज़मीनी राजनीति सीखी जा सकती है। समाजवादी राजनीति के लिए साइकिल सचमुच चलानी पड़ती है। सिर्फ़ चुनावी निशान और फ़ैशन में चला कर फ़ोटो खिंचवाने भर से नहीं। यह बात अखिलेश यादव को भी जान लेना चाहिए। मुलायम सिंह यादव तो खैर यह सब जानते ही हैं। वह साइकिल चलाते हुए, पैदल चलते हुए, संघर्ष करते हुए ही यहां तक पहुंचे हैं। उन से ज़्यादा यह बात भला कौन जानता है? लेकिन उन्हें बस पुत्र मोह और अपने पारिवारिक झगड़े से बचने का यत्न तो करना ही पड़ेगा। और कि बेहतर होगा कि अखिलेश को घोड़ा बना कर घुड़सवारी करने से बेहतर है कि वह खुद कमान संभाल लें। आखिर बेटे को कब तक वह जलील करते और करवाते रहेंगे? अखिलेश सरकार के काम काज पर सार्वजनिक रुप से सवालिया निशान अकसर वह लगाते ही रहते हैं। अखिलेश सरकार की धमक और इकबाल समाप्त हो ही चुकी है। आखिर कांग्रेस में राहुल गांधी चीखने-चिल्लाने और कागज फाड़ने के बजाय समय रहते ही मनमोहन सिंह को अगर रिप्लेस कर खुद प्रधान मंत्री बन गए होते तो उन का प्रधान मंत्री बनने का सपना तो पूरा हो ही गया होता, चुनाव में कांग्रेस की हालत इतनी खस्ताहाल भी नहीं हुई होती। मुलायम और अखिलेश को कांग्रेस के इस हश्र से भी सबक लेना ज़रुरी है। नहीं अगले विधान सभा चुनाव में उन का भगवान ही मालिक है। इस लिए भी कि उन की असली चुनावी ताकत और गुमान यादव और मुसलमान वोट बिखर चुके हैं उन के हाथ से। और कि यह सूरत और यह गुमान उन का आने वाले दिनों में और टूटेगा अगर यही हालात रहे। कोई मुसलमान और कोई यादव उन्हें बचाने नहीं आने वाला। अगर कोई बचाएगा उन्हें तो अब उन का काम काज ही। और इस के लिए मुलायम या तो चाचा चाची सरकार से मुक्ति दे कर अखिलेश को फ़्री हैंड दें। जो वह कभी दे नहीं पाएंगे। सो बेहतर है कि वह खुद सरकार की कमान संभाल लें। और इन सुपर चीफ़ मिनिस्टर्स की हेकड़ी को काबू करें। वैसे भी लोक सभा में जा कर उन को करने के लिए कुछ है भी नहीं। संख्या उन के पास है नहीं। दो भतीजे हैं और एक बहू। इन के बूते लोक सभा में वह हल्ला बोल कर न्यू सेंस फैला कर अपनी मनमानी भी सर्वदा की तरह नहीं कर पाएंगे। उन के यादव बंधु शरद यादव और लालू प्रसाद यादव भी नहीं हैं। उन की हल्ला बोल की समूची ब्रिगेड अनुपस्थित है लोक सभा से। तो वहां भी वह क्या करेंगे?
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