Wednesday 31 December 2014

स्त्रियों की पैरवी और प्रेम में डूबी कविताएं



कोई पैतीस बरस से भी अधिक समय हो गए कविता लिखना छोड़े हुए। लगता था कि अब जीवन में कभी कविता लिखना नहीं हो पाएगा । पर कविता लिखना फिर से हो गया है । लगता है जैसे जी गया हूं । कोई पैतीस साल बाद कविता में मेरी वापसी हुई है । पहले जब विद्यार्थी था तब कविताएं  लिखता था । अब लगता है कि जैसे फिर से विद्यार्थी हो गया हूं। तो क्या कविताएं आदमी को विद्यार्थी बना देती हैं ? पुरानी कविताएं तो अभी मिल नहीं रहीं । कि उन का भी संग्रह छपवाऊं । बहुत खोजा । पर वह कहीं गहरे गुम हो गई हैं । किसी ऐसे कोहरे में जो ख़त्म ही नहीं होता । ऐसे ही पत्रकारिता और नौकरी के बियाबान में मेरा कविता लिखना भी गुम हो गया था, मेरा कवि कहीं खो गया था , अचानक मिल गया है । बिना किसी खोज के। अनायास । बताना चाहता हूं कि इस संग्रह की यह सारी कविताएं एक महीने के भीतर ही लिखी हुई हैं । लोग कहते हैं कि मेरे उपन्यास , मेरी कहानियां अकसर स्त्रियों की पैरवी में रहते हैं । तो मेरी यह कविताएं भी स्त्रियों की पैरवी में ही हैं । स्त्रियों का दुःख कहना ही नहीं , स्त्रियों से प्रेम करना भी स्त्रियों की पैरवी ही है । मेरा मानना है कि जो प्रेम नहीं कर सकता , जो प्रेम की उदात्तता को नहीं समझ सकता वह जीवित भी कैसे रह सकता है ? मनुष्य भी कैसे हो सकता है ? मनुष्यता की पहली शिनाख़्त भी प्रेम ही है । यह प्रेम में तिरना ही कविता है । पर हिप्पोक्रेसी के मारे हुए लोग इस बात और तथ्य से न सिर्फ़ कतराते हैं बल्कि इस को कंडम भी करते हैं । बताइए भला प्रेम विहीन या स्त्री हीन जीवन भी कोई जीवन होता है ? होता होगा कुछ लोगों का , वही लोग जानें ! मैं तो अपनी अम्मा , पत्नी और बेटियों को बहुत प्यार करता हूं । अम्मा और पत्नी पर लंबे-लंबे संस्मरण लिख चुका हूं । एक कविता मेरी बेटी , मेरी जान ! भी आप इस संग्रह में पढ़ सकते हैं। 

शमशेर बहुत पहले बता गए हैं कि , ' बात बोलेगी / हम नहीं / भेद खोलेगी / बात ही ! ' तो इन कविताओं के बारे में अलग से कुछ कहना बेमानी है । बेहतर हो कि यह कविताएं ही अपनी बारे में ख़ुद कहें । हां , यह ज़रूर कहूंगा कि मेरे ब्लॉग सरोकारनामा पर यह कविताएं ख़ूब पढ़ी और सराही गई हैं । इन कविताओं को यहां संग्रह में परोसते हुए अगर उन आंखों को भूल जाऊं जिन के चलते मैं फिर से कवि बन गया तो यह मेरी नादानी तो होगी ही , एहसान फ़रामोशी भी । नादान तो मैं हूं पर एहसान फ़रामोश बिलकुल नहीं । तो उन आंखों को बहुत-बहुत सलाम ! बहुत-बहुत प्रणाम !

[ जनवाणी प्रकाशन , दिल्ली द्वारा शीघ्र प्रकाश्य कविता संग्रह 
यह घूमने वाली औरतें सब जानती हैं की भूमिका ]

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