Thursday, 11 December 2014

खूने शहीद से भी है कीमत में कुछ सिवा फ़नकार की कलम की स्याही की एक बूंद

 मलाला यूसूफजई और कैलाश सत्यार्थी नार्वे के ओस्लो में नोबेल पुरस्कार समारोह में

खूने शहीद से भी है कीमत में कुछ सिवा
फ़नकार की कलम की स्याही की एक बूंद।


पंडित आनंद नारायण मुल्ला का  लिखा यह १९७३ का शेर है। इस शेर पर तब के समय उत्तर प्रदेश विधानसभा में खूब हल्ला-गुल्ला मचा था। क्या तो यह शहीदों का अपमान है। विधायकों की खिन्नता इस बात पर थी कि मुल्ला ने अमर शहीदों के खून से भी अपनी स्याही की एक बूंद को महान घोषित किया है ।

आनंद नारायण मुल्ला

ज़िक्र ज़रूरी है कि आनंद नारायण मुल्ला (1901–1997)  उर्दू के एक शायर, कवि, दार्शनिक ही नहीं राजनीतिज्ञ भी थे। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित आनंद नारायण मुल्ला के पिता जगत नारायण मुल्ला एक प्रमुख वकील और सरकारी अभियोजक थे। स्वयं आनंद नारायण मुल्ला एक प्रमुख वकील थे और 1954 से 1961 तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लखनऊ बेंच में न्यायाधीश के पद पर कार्यरत रहे। वे लखनऊ लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चौथी लोक सभा (1967-1970) के लिए निर्वाचित हुए थे। बाद में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा (1972-1978) के सदस्य के रूप में निर्वाचित किए गए थे।

सच यह है कि मुल्ला ने यह शेर शहीदों का अपमान करने के लिए नहीं रचनाकर्म की महत्ता दर्शाने के लिए लिखा था। लेकिन समझ अपनी-अपनी। और अभी      जब कल नोबेल पुरस्कार लेने के बाद  मलाला यूसूफजई ने अपने भाषण में जब कहा कि एक बच्चा , एक शिक्षक , एक कलम और एक किताब दुनिया को बदल सकते हैं तो आनंद नारायण मुल्ला का यह शेर याद आ गया । और यह किस्सा भी । मलाला ने जब कहा कि आप बच्चों के हाथ में हथियार दे सकते  हैं , किताब नहीं। टैंक बना सकते हैं पर स्कूल नहीं । इस के पहले कैलाश सत्यार्थी ने साफ कहा कि जब एक हफ़्ते  का वैश्विक सैन्य खर्च ही सभी बच्चों को कक्षाओं तक लाने के लिए पर्याप्त है तो मैं यह स्वीकार करने से इंकार करता हूं कि  यह विश्व बहुत गरीब है ।

लेकिन कल से आज तक सभी अख़बार और चैनल इस विषय पर चर्चा करने से इंकार कर चुके हैं । सब के सब आगरा में हुए धर्म परिवर्तन को ले कर चीख़ - चिल्ला रहे हैं । उन के लिए यह नपुंसक विषय ही बहुत महत्वपूर्ण हो गया है । संसद के दोनों सदन लोकसभा और राज्य सभा भी इसी मसले को ले कर बहुत चिंतित है ।  इन की तो वोट की दुकानदारी है । पर सारे लफ़्फ़ाज़ विमर्शकार भी इसी विषय को ले कर जूझ रहे हैं । लेकिन मलाला और कैलाश सत्यार्थी की बात पर सब के सब खामोश हैं । इस लिए भी कि यह सब लोग जानते हैं कि अगर बच्चे और बाक़ी लोग जब शिक्षित हो जाएंगे तो उन की जहालत का यह जंगल उजड़ जाएगा।  और कि इन की नफ़रत की दुकानें बंद हो जाएंगी । इसी लिए यह लोग पढ़ाई- लिखाई जैसी बातों पर खामोश हैं । लोग जब पढ़-लिख कर जागरूक हो जाएंगे तो लोग धर्म परिवर्तन आदि के पचड़े में नहीं पड़ेंगे । पढ़-लिख कर लोग तरक्की की बात करेंगे , जाति और धर्म की नहीं ।

इसी लिए आनंद नारायण मुल्ला का यह शेर :

खूने शहीद से भी है कीमत में कुछ सिवा
फ़नकार की कलम की स्याही की एक बूंद।

आज भी प्रासंगिक हो जाता है । मलाला और कैलाश सत्यार्थी की बात सर चढ़ कर बोलती है । यह बात बस समझ लेने की है । यह राजनीति और मीडिया का दोगला गठबंधन तोड़ना बहुत ज़रूरी हो गया है । फ़नकार  की स्याही की एक बूंद और बच्चों का स्कूल जाना ही इस बेशर्म और हिंसक दुनिया को बदल सकते हैं ।  एक बच्चा , एक शिक्षक , एक कलम और एक किताब ही दुनिया को बदल सकते हैं। यह हथियार , यह  टैंक , यह लफ़्फ़ाज़ विमर्शकार , यह गैर ज़िम्मेदार संसद और बेशर्म मीडिया नहीं । 

 मलाला यूसूफजई और कैलाश सत्यार्थी नोबेल पुरस्कार समारोह में

1 comment:

  1. प्रासंगिक प्रस्तुति। नये तरह के दृष्टिकोण को संजोये हुए।

    ReplyDelete