दयानंद पांडेय
बांग्ला भाषा के मशहूर लेखक कामरेड समरेश बसु का एक मशहूर उपन्यास है अमृता कुंभेर संधाने। यानी अमृत कुंभ की खोज। इस अमृत कुंभ उपन्यास का नायक ग़रीब है पर प्रयाग में कुंभ नहाने की बड़ी इच्छा है। पैसे के अभाव में कुंभ नहीं जा पाता। पर अगले कुंभ की प्रतीक्षा में प्रयाग जाने के लिए पैसा बटोरता रहता है। वृद्ध हो जाता है। बीमार हो जाता है। पर प्रयाग में कुंभ नहाने की उस की इच्छा जीवित रहती है। वह कुंभ नहाने प्रयाग जाता भी है। ट्रेन में बहुत कठिनाई उठाते हुए , संघर्ष करते हुए , कुंभ के दिन प्रयाग पहुंचता है। कुंभ के दिन ही उस की मृत्यु हो जाती है। प्रसिद्ध फ़िल्मकार विमल रॉय को समरेश बसु का यह उपन्यास , इस की कहानी बहुत पसंद आई।
विमल रॉय ने अमृत कुंभ नाम से इस पर फ़िल्म बनाने की योजना बनाई। वह फ़िल्म की तैयारी में ही थे कि बीमार रहने लगे। जांच में पता चला कैंसर है। फिर भी अमृत कुंभ फ़िल्म पर काम करना नहीं छोड़ा। प्रयाग जाने और वहां जा कर शूटिंग करने लायक़ नहीं रह गए। लेकिन अपने असिस्टेंट डायरेक्टर गुलज़ार और कैमरा मैन कमल बोस को प्रयाग भेजा प्रयाग में मेले की आऊटडोर शूटिंग के लिए। गुलज़ार प्रयाग गए और शूट कर लौटे। पर तब तक विमल रॉय की तबीयत और बिगड़ गई थी। लेकिन उठते - बैठते , सोते - जागते , विमल रॉय अपनी फ़िल्म अमृत कुंभ ही सोचते। अमृत कुंभ की ही बात करते। विमल रॉय कैंसर के बावजूद सिगरेट पीना नहीं छोड़ सके थे। डाक्टर आ कर बहुत सख़्ती से सिगरेट पीने के लिए मना कर जाता। पर डाक्टर के जाते ही वह सिगरेट सुलगा लेते।
सिगरेट सुलगाते और उन के भीतर अमृत कुंभ सुलगता रहता था। घर वाले , मित्र , शुभचिंतक और उन की टीम सिगरेट न पीने के लिए डाक्टर की हिदायत की उन्हें याद दिलाते रहते। विमल रॉय कहते , डाक्टर बेवकूफ है। वह कुछ नहीं जानता। उन दिनों विमल रॉय के स्वास्थ्य के बारे में एक जगह गुलज़ार ने लिखा है। विमल रॉय सोफे पर बैठे रहते। उन्हें देख कर लगता कि जैसे कोई कुशन रखा हो , सोफे पर। गरज यह कि विमल रॉय का वज़न बहुत कम हो गया था। बहुत दुबले हो गए थे। पर अमृत कुंभ और उस का नायक जैसे उन के भीतर बैठ गए थे। बाहर निकलते ही नहीं थे। विमल रॉय कहते थे कि इसे पढ़ कर लगता है, मानो समरेश के पात्रों के साथ मैं भी अमृत की तलाश में कुंभ पहुंच गया हूं। बावजूद इस के अमृत कुंभ का काम पिछड़ता ही गया। संयोग देखिए कि जैसे अमृत कुंभ का नायक सर्वदा कुंभ सोचते हुए प्रयाग में देह छोड़ गया , विमल रॉय भी 1966 में कुंभ शुरू होने के समय ही उपन्यास के नायक की तरह बीच कुंभ में ही देह त्याग गए। अमृत कुंभ उन के मन में इतना बस गया था l
क़ायदे से गुलज़ार को अपने गुरु की याद में , उन की इच्छा के सम्मान में अमृत कुंभ फ़िल्म बना कर पूरी करनी चाहिए थी। लेकिन जाने क्यों नहीं की। वही जानें। क्यों कि इस बारे में गुलज़ार ने न कभी कहीं लिखा , न कुछ कहा। काफ़ी समय बाद विमल रॉय के बेटे जॉय ने फ़िल्मकार यश चोपड़ा की मदद से गुलज़ार द्वारा शूट कराए गए फुटेज से ग्यारह मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री तैयार की। हां , बांग्ला फ़िल्मकार दिलीप रॉय ने ‘अमृता कुंभेर संधाने’ नाम से ही बांग्ला में एक फ़िल्म बनाई। यह फ़िल्म 1982 में रिलीज़ हुई थी जिसमें शुभेंदु चटर्जी, अपर्णा सेन, भानु बंदोपाध्याय, रूमा गुहा ठकुरता और समित भांजा ने काम किया था।
विमल रॉय भारतीय सिनेमा के चुनिंदा फ़िल्म निर्देशकों में शुमार हैं। एक से एक क्लासिक फ़िल्में उन के खाते में दर्ज हैं। कहानी , अभिनेता आदि चुनने में वह बहुत सतर्क रहते थे। वाकये कई सारे हैं। पर अभी यहां एक क़िस्सा सुनाता हूं। पचास के दशक की बात है। विमल रॉय दो बीघा ज़मीन की तैयारी कर रहे थे। बलराज साहनी उन दिनों बड़े अभिनेता थे। रंगमंच में उन का बड़ा नाम था। बी बी सी में मशहूर एनाउंसर रहे थे। शांति निकेतन में पढ़ा चुके थे। विद्वान आदमी थे। उन को जब पता चला दो बीघा ज़मीन के बारे में तो वह विमल रॉय के पास पहुंचे। सूटेड-बूटेड , टाई बांधे बलराज साहनी को विमल रॉय ने सेकेंड भर में रिजेक्ट कर दिया। कहा कि इस फ़िल्म में तुम बिलकुल नहीं चलेगा। ग़रीब किसान और हाथ रिक्शा खींचने वाले की कहानी है यह। [ पश्चिम बंगाल में हाथ रिक्शा होता था , जिस में घोड़े की जगह आदमी ही रिक्शा खींचते हुए दौड़ता रहता था। ] तुम सूटेड - बूटेड उस में क्या करेगा ?
बलराज साहनी ने विमल रॉय की बात का बुरा नहीं माना। विमल रॉय की बात को चुनौती के रूप में लिया। कोलकाता चले गए। कुछ महीने नंगे पांव रह कर हाथ रिक्शा खींचा। किसान और मज़दूर के चरित्र को समझा। और एक दिन अचानक मुंबई में विमल रॉय के सामने रिक्शा वाला बन कर नंगे पांव उपस्थित हो गए। विमल रॉय उन्हें देखते ही उछल पड़े। बलराज साहनी को वह पहचान नहीं पाए पर बोले , बिलकुल ऐसा ही एक्टर चाहिए दो बीघा ज़मीन के लिए। विमल रॉय ने निर्देशन में और बलराज साहनी ने अभिनय में प्राण फूंक दिया दो बीघा ज़मीन में। निरुपा रॉय हीरोइन थीं। शैलेंद्र के दिलकश गीत थे। मीना कुमारी गेस्ट आर्टिस्ट। मीना कुमारी पर फ़िल्माया गया एक लोरी गीत जैसे आज भी मन में बसा हुआ है। आजा री आ निंदिया तू आ ! दुनिया है मेरी गोद में , पूरा हुआ सपना मेरा !
1953 में फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से नवाजी गई दो बीघा ज़मीन। कान महोत्सव में भी सम्मानित हुई।
एक क़िस्सा बंदिनी का भी सुन लीजिए। बंदिनी के समय नूतन को जब विमल रॉय ने हीरोइन का ऑफर दिया तो वह गर्भवती थीं। मोहनीश बहल पेट में थे। नूतन ने मना कर दिया। विमल रॉय ने कहा कि सारी फ़िल्म ही तुम्हीं को सोच कर प्लान किया है। नूतन ने फिर भी मना कर दिया। तो विमल रॉय ने कहा , कोई बात नहीं , फिर हम भी यह फ़िल्म नहीं बनाएगा। और बड़ी गंभीरता से कहा। नूतन ने इस बात की चर्चा अपने पति से की। पति सोच में पड़ गए। फिर नूतन से कहा कि जब ऐसी बात है तो यह फ़िल्म कैसे भी कर लो। नूतन ने बंदिनी फ़िल्म की। 1963 में रिलीज हुई और आज तक चर्चा में है। नूतन की पहचान बहुत लोग बंदिनी से ही करते हैं। बंदिनी को भी फिल्म फेयर मिला।
देवदास , बंदिनी , सुजाता , मधुमती , परिणीता जैसी तमाम क्लासिक फिल्मों के निर्देशक विमल रॉय ही नहीं , अमृत कुंभ के लेखक समरेश बसु के बारे में भी थोड़ा सा जानिए। जानिए कि वह कम्युनिस्ट थे। फिर भी अमृत कुंभ जैसी कालजयी रचना लिखी। समरेश बसु दरअसल ट्रेड यूनियन नेता थे। ट्रेड यूनियन में काम करते हुए कम्युनिस्टों के साथ संपर्क में आए और कम्युनिस्ट हो गए। विचारों से ही नहीं कर्म से भी कम्युनिस्ट थे। मज़दूर आंदोलनों में जेल भी गए। जेल से निकल कर कहानी लेखक बन गए। उन की कहानियों पर बांग्ला ही नहीं , हिंदी में भी कई सफल फ़िल्में बनी हैं। एक बार एक बांग्ला पत्रिका के लिए कवरेज करने के लिए वह प्रयाग के कुंभ में आए। समरेश बसु की नियमित रिपोर्ट पढ़ - पढ़ कर ही विमल रॉय आनंदित थे। बाद में उन्हीं रिपोर्टों को आधार बना कर समरेश बसु ने बांग्ला में अमृता कुंभेर संधाने उपन्यास लिखा। जो ख़ूब चर्चित हुआ। आज तक चर्चित है। ख़ैर , एक कामरेड समरेश बसु को देख लीजिए , जो जनता - जनार्दन की नब्ज़ जानते थे। आस्था , परंपरा और विरासत भी जानते थे। आज के हिप्पोक्रेट वामपंथियों के तरह किसी मंगल ग्रह से तो आए नहीं थे। जन से जुड़े थे। जन को जानते थे। दूसरी तरफ आज नाली में पड़े कीड़ों की तरह बजबजाते वामपंथियों को देख लीजिए। कुंभ को ले कर क्या तो मातम है। क्या तो मुसलसल विष - वमन है।
लेखन क्या होता है , पत्रकारिता क्या होती है , विचार क्या होता है , कमिटमेंट क्या होता है , समझ आ जाएगा।
तथ्यों को छुपाने , भ्रामक सूचनाएं और नफ़रत फैलाना , विष - वमन करना ही आज के हिप्पोक्रेट वामपंथियों का पथ्य बन गया है। सेक्यूलरिज्म के फ़ैशन में श्वान बन चुके बाकियों का हाल और बुरा है।
देश की लगभग आधी आबादी कुंभ नहा चुकी है l पर कुंभ की सफलता को ले कर यह लोग इतने बौखलाए हुए हैं कि निरंतर प्रश्न पूछ रहे हैं कि अम्मा , हमारे पिता जी कौन हैं ? और अम्मा हैं कि मुसलसल चुप हैं, इन के इस बेहूदा सवाल से l अम्मा इस अपमानजनक प्रश्न से छुब्ध हैं l
सवाल ज़रूरी हैं , सत्ता और व्यवस्था से l पर इस तरह और इतना भी ज़रूरी नहीं कि माँ से पिता का सुबूत मांगना पड़ जाए l नाम पूछना पड़ जाए l
अरे कुंभ नहीं पसंद है , कोई बात नहीं l गोली मारिए , कुंभ को l पर नाग बन कर , फ़न काढ़ कर , नित्य प्रति , क्षण -क्षण खड़े रहना इतना ज़रूरी है ?
चुप रहना भी एक कला है l
हां , विमल रॉय भी कोई हिंदुत्ववादी नहीं थे। संघी आदि नहीं थे। जीनियस डायरेक्टर थे। दिलीप कुमार को मेथड एक्टिंग में मास्टर बनाने वाले विमल रॉय ही थे। गुलज़ार को गीतकार और डायरेक्टर बनाने वाले भी। उन के कई सारे असिस्टेंट बाद में नामी डायरेक्टर बने। यथा हृषिकेश मुखर्जी। अभिनेता , अभिनेत्री तो बहुत ही। विमल रॉय अपने आप में भारतीय सिनेमा के एक बड़े स्कूल हैं l
एक महत्वपूर्ण बात यह कि अगर यही अमृता कुंभेर संधाने कामरेड समरेश बसु ने आज़ की तारीख़ में लिखा होता तो अब तक कब के कट्टर संघी , हिंदुत्ववादी आदि घोषित हो चुके होते l विमल रॉय भी नहीं बचते l
बचते क्या ?
Very Nice Post.....
ReplyDeleteWelcome to my blog!