Friday, 14 February 2025

जुगानी भाई का जाना

दयानंद पांडेय 


भोजपुरी में वाचिक परंपरा के प्रबल और अनूठे वाहक , कभी आकाशवाणी गोरखपुर के स्टार रहे डाक्टर रवींद्र श्रीवास्तव जुगानी के विदा होने की ख़बर दुःखदाई है। बहुत दुःखदाई। गोरखपुर में जब आकाशवाणी का प्रारंभ हुआ तो गांव , किसान की पंचायत का चौपाल वाला कार्यक्रम शुरू हुआ। सुपरिचित कवि हरिराम द्विवेदी ने शुरू किया। उन के सहायक बने रवींद्र श्रीवास्तव। हरिराम द्विवेदी को यह नाम जम नहीं रहा था। कुछ लोगों ने उपनाम सुझाए। सभी नाम रद्द कर हरिराम द्विवेदी ने उन का नाम जुगानी रखा। जुगानी भाई ! जुगानी भाई नाम से रवींद्र श्रीवास्तव जम गए। ऐसा जमे कि वह ख़ुद भी भूल गए कि वह रवींद्र श्रीवास्तव भी हैं। बस आकाशवाणी के अपने कमरे के सामने लगे नेम प्लेट पर ही डाक्टर रवींद्र श्रीवास्तव रह गए। छा गए , भोजपुरी के आकाश पर जुगानी भाई। इतना कि हरिराम द्विवेदी भी उन से पीछे हो गए। नौकरी में वरिष्ठ थे हरिराम द्विवेदी पर लोकप्रियता में जुगानी भाई कोसों आगे निकल गए। युवा थे पर आकशवाणी पर किसी अनुभवी वृद्ध की तरह , पुरखे की तरह बतियाते थे। लोग उन्हें देखते थे , उन का पहनावा देखते थे तो चौंक जाते थे। सूटेड - बूटेड जुगानी भाई से लोग और प्यार करने लगते थे।

जुगानी भाई नाम की स्वीकार्यता ने उन्हें मान - सम्मान और भरपूर शोहरत , दौलत दी। नाम - इकराम दिया। फ़िल्म स्टारों जैसा ग्लैमर था उन का। लोग उन्हें देखने और सुनने के लिए तरसते थे। तड़पते थे। गांव में शाम को रेडियो खोल कर लोग जुगानी भाई को सुनने के लिए इकट्ठा हो जाते थे। खांटी भोजपुरी और उस के डिक्शन का खजाना और कि जैसे पैमाना बन गए थे जुगानी भाई। देखते ही देखते क्षेत्रीय कवि सम्मेलनों में भी उन की धाक जम गई। उन की भोजपुरी कविता में कोई ख़ास करंट नहीं था पर आकाशवाणी के जुगानी नाम में करंट बहुत था। 440 वोल्ट वाला। धुर देहात और कस्बों आदि के कवि सम्मेलनों में जुगानी भाई का नाम भीड़ खींच लेने की गारंटी था। विद्यार्थी जीवन में उन के साथ कुछ कवि सम्मेलनों में मैं भी सहभागी रहा हूं।

हालां कि उन दिनों भोजपुरी कविता और कवि सम्मेलन में त्रिलोकीनाथ उपाध्याय , कुबेरनाथ मिश्र विचित्र जैसे भोजपुरी के अनेक धुरंधर उपस्थित थे। त्रिलोकीनाथ उपाध्याय तो लाजवाब थे। कोई उन का शानी नहीं था। नौवो रस उन के पास थे। वह रेडियो भी थे और दूरदर्शन भी। पर भोजपुरी शब्दों का जो खजाना , ठसक और उस का इस्तेमाल जुगानी के पास था उस दौर में किसी भी के पास नहीं था। था भी किसी के पास था तो जुगानी ने छीन लिया था। उन की सहजता , सरलता और भोजपुरी की ठसक उन्हें सौ फ़ीसदी जुगानी भाई बना देता था।

वह सत्तर - अस्सी का दशक का ज़माना था। रेडियो का ज़माना था। वह जुगानी भाई का ज़माना था। भोजपुरिया स्वाभिमान का ज़माना था। जैसे कुछ लोग अंगरेजी में ही उठते -बैठते और सांस लेते हैं , ठीक वैसे ही जुगानी भाई सफारी सूट पहने भोजपुरी में ही उठते - बैठते , सांस लेते थे। अनपढ़ , किसान , मज़दूर जुगानी का दीवाना था। पढ़े - लिखे लोग भी जुगानी के जादू में खो जाते थे। उन के नाती - पोते भी अब सेटिल्ड हैं। उम्र हो गई थी , वाकर ले कर चलने लगे थे। जाना ही था। सब को जाना होता है। पर जाना किसी का भी हो , कैसे भी हो , दुःख देता है। जुगानी भाई का जाना भी दुःख दे गया है।

भोजपुरी में वाचिक परंपरा के लिए भी हम उन्हें याद रखेंगे।

फ़िराक़ गोरखपुरी के पट्टीदार थे जुगानी भाई । इतना ही नहीं , गोरखपुर शहर में भी फ़िराक के घर के पास ही उन का घर था। पर फ़िराक़ की तरह मुंहफट नहीं थे। भोजपुरी भदेसपन बहुत था जुगानी भाई में पर फ़िल्टर भी बहुत था उन के भीतर। कायस्थीय कमनीयता भी। सो सब से बना कर रहते थे। सब को साथ ले कर चलते थे। दहाड़ कर बोलते थे पर जितना बोलना चाहते थे , उतना ही बोलते थे। संयोग यह भी है कि जब उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने उन्हें लोकभूषण से सम्मानित किया तभी मुझे साहित्य भूषण मिला था। वह बहुत मगन थे। कार्यक्रम में हम लोग अगल - बगल ही बैठे थे। बतियाते रहे थे। बीते अगस्त , 2022 में गोरखपुर में यायावरी ने एक कार्यक्रम आयोजित किया था। यायावरी में जुगानी भाई को सम्मानित करने का सुअवसर मिला था। यह फ़ोटो तभी की है।

विनम्र श्रद्धांजलि !

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