Tuesday, 11 February 2025

चौंका देना ही हसरत है

दयानंद पांडेय 

सामान्य जन के लिए लिखिए , किसी गुट , किसी इको सिस्टम , किसी कट्टर विचारधारा के लिए नहीं l स्थितियां बदलेंगी l कविता पढ़ी जाएगी और बिकेगी भी। जनता की नब्ज़ भूल चुके हैं कविजन। मोदी की नब्ज़ ज़्यादा खोजते हैं , जनता जनार्दन की बिलकुल नहीं। 

रही बात सरकारी स्कूलों के बंद करने की तो यह अच्छा फ़ैसला है l बोझ बन गए हैं यह स्कूल l जो थोड़े बहुत बच्चे सरकारी स्कूल में जाते हैं , पढ़ने के लिए नहीं , दलिया खाने के लिए l इस में भी बड़ा भ्रष्टाचार है l दस बच्चे दलिया खाते हैं , दो सौ बच्चों का बिल बनता है l अध्यापक शिक्षा की जगह दूसरे काम करते हैं l यह सिलसिला कोई तीस चालीस बरस से देख रहा हूं। 

आप ही बताएं कि आप के या आप के मित्रों के बच्चे क्या इन सरकारी स्कूलों में पढ़े ? या आज भी पढ़ रहे हैं ?

सरकारी मेडिकल कालेज या इंजीनियरिंग कालेज में लोग पढ़ना चाहते हैं पर सरकारी स्कूल में नहीं l अर्थ और अध्ययन का यह गणित है l कुछ और नहीं l एम्स , पी जी आई जैसे कुछ शीर्ष अस्पतालों को छोड़ दीजिए तो यही हाल सरकारी अस्पतालों का है l आप क्या सरकारी अस्पताल में इलाज करवाते हैं ? हम भी नहीं करवाते l जब कि पत्रकार होने के कारण हंड्रेड परसेंट प्राइवेट वार्ड सहित सब कुछ फ्री है। वी आई पी ट्रीटमेंट भी l पर नहीं जाता l भूल कर नहीं जाता। जब कि अपेक्षतया सरकारी अस्पतालों के डाक्टर योग्यतम हैं। सुविधाएं बेहतर हैं। पर सर्विस निकृष्टतम। मृत्यु तक पहुंचाने वाली। 

हालां कि स्वीट्जरलैंड में एक स्कूल है जो पचास करोड़ सालाना फीस लेता है। फिर भी भारत में शिक्षा और अस्पताल दोनों ही लूट के अड्डे हैं l तो भी प्राइवेट स्कूल और प्राइवेट अस्पताल में ही जाते हैं l हम सभी l अगर हेल्थ इंश्योरेंस न हो , सरकारी कर्मचारियों को रिम्बर्समेंट न हो तो इन प्राइवेट अस्पतालों में दस परसेंट लोग भी जाने की हैसियत नहीं रखते है , निम्न वर्ग या मध्य वर्ग के लोग l 1991 में आए आर्थिक उदारीकरण और बाज़ार की देन है यह l सोचिए कि आयुष्मान कार्ड धारक भी अब प्राइवेट अस्पताल जा रहे हैं , सरकारी अस्पताल नहीं। 

सब के सोचने , रहने का तरीक़ा बदल गया है और आप सरकारी स्कूल को जाने क्यों चलाते रहने की चिंता में हैं l रोडवेज की बस में लोग चलना नहीं चाहते और आप सरकारी स्कूल चाहते हैं l जहां पढ़ाने वाले तो हैं , पढ़ने वाले नहीं l

विश्वविद्यालयों में लोग तीस हज़ार पर पढ़ा रहे हैं l डिग्री कालेज में दस हज़ार , पंद्रह हज़ार पर l जब कि सरकारी प्राइमरी स्कूल में लोग पचास हज़ार से अस्सी हज़ार तक वेतन ले रहे हैं , जहां बच्चे ही नहीं हैं पढ़ने के लिए l दलिया खिला रहे हैं। 

इंजीनियरिंग और एम बी ए कर के बच्चे दस पंद्रह हज़ार की नौकरी के लिए तरस रहे हैं l आप तो ख़ुद इंजीनियर हैं l पर आज के इंजीनियर ? एम टेक कर के भी सरकारी चपरासी बनने के लिए प्रयासरत हो जा रहे हैं l सरकारी सफ़ाई कर्मी बन जाते हैं ल

और अब तो सरकारी नौकरियों में भी आउट सोर्सिंग की बहार है l चपरासी , ड्राइवर , लिफ्ट मैंन , डी टी पी आपरेटर तक आऊट सोर्सिंग पर हैं l सचिवालय में भी l जहां से शासन चलता है। छोड़िए, रेलवे कोच फैक्ट्री में तमाम मैकेनिकल इंजीनियर आऊट सोर्सिंग पर ही हैं l और इस सब की शुरुआत आप के महान अर्थ शास्त्री मनमोहन सिंह ने अपने प्रधान मंत्री रहते की l मनमोहन सिंह प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण पर बिल भी लाने वाले थे l लेकिन सारे उद्योगपति विरोध में खड़े हो गए l कहा कि फिर हम अपने उद्योग भारत से बाहर ले जाएंगे l सर्वदा चुप रहने वाले मनमोहन सिंह बिलकुल चुप रह गए ल

इस सब पर किस की नज़र है ?

लिखी आप ने कोई कविता ? लिखा किसी ने कोई जनगीत ?

सारा ज़ोर , नफ़रत , घृणा और एजेंडा सेट करना ही जब किसी कवि की कविता का लक्ष्य होगा तो उस की कविता कोई पढ़ेगा भी क्यों ? किताब क्यों ख़रीदेगा ?

आप ही की पुरानी कविता है :


दरवाज़ा होना तो किसी ऐसे घर का

जिस पर पड़ने वाली थपकियों से ही

समझ लेते हों घर के लोग

कि कौन आया है, परिचित या अपरिचित

और बिना डरे कहते हों हर बार

खुला है चले आइए।

अफ़सोस कि वैचारिकी की खोह में खोए आप ने भी अपनी कविता में अब जन को अनुपस्थित कर इन के लिए दरवाज़े बंद कर दिए हैं। एक कवि अपनी धरती और आकाश के किवाड़ सिर्फ़ वैचारिकी के अंधेरे के लिए ही कभी - कभार खोले और कहे कि लोग कविता नहीं पढ़ रहे। श्रमिकों के हक़ में खड़े होने का भ्रम पाले , अपने ही श्रम का हिसाब न ले पाए प्रकाशक से और कहे कि लोग किताब नहीं ख़रीद रहे , इस कहे का क्या मतलब ? क्या अर्थ है उस के इस क्रांतिकारी लबादे का ? 

सिर्फ़ कुंठा और आत्ममुग्धता। जैसे -तैसे चौंकाना। चौंका देना ही हसरत है। 

धंस कर कोई छिछली नदी तो पार हो सकती है। गहरी और वेगवती नदी नहीं। सिस्टम की नदी तो बिलकुल नहीं। क्यों कि गहरी और वेगवती नदी तैर कर , नाव से , स्टीमर से या पुल से ही पार होती है। लेकिन आप धंस कर पार कर लेने की सीख दे देते हैं। लोग लहालोट हो जाते हैं। मिट्टी में धंस जाना हुनर नहीं है। मिट्टी में काम करना हुनर है। यह ठीक है कि आप का काव्य-पाठ अदभुत रूप से अच्छा है , कविताएं अच्छी हैं पर इन का घेरा बहुत छोटा है। संकीर्ण है। आप ही के प्रदेश के महाकवि कालिदास की याद आती है। कालिदास जो कभी कश्मीर के शासक भी थे , कितने लोग जानते हैं ? रूपक , विवरण और उपमा ही नहीं , आकाश सा खुलापन , धरती सा ममत्व है उन की कविताओं में। कालिदास में करुणा भी बहुत है। पर चौंकाने के लिए नहीं। विगलित हो जाने के लिए। मल्लिका के आंसू हैं भोजपत्र पर तो महाकाव्य की तरह। कालिदास दरबारी कवि कहे जाते हैं। तो क्या हम उन्हें आज भी उन की कविता के लिए नहीं याद करते , उन के दरबारी कवि होने के कारण याद करते हैं ? विक्रमादित्य के भी बहुत विरोधी थे। कालिदास ने विक्रमादित्य के विरोधियों के लिए किस कविता में नफ़रत , घृणा और वैमनस्य परोसा है , तनिक बताइएगा। तुलसीदास से बहुतों की बहुतेरी असहमतियां हैं। तुलसी के रामायण में रावण खलपात्र है। तुलसी ने कितनी घृणा , कितनी नफ़रत , कितना वैमनस्य परोसा है रावण के लिए ? नहीं परोसा है। रावण का खुल कर विरोध किया है। पर नफ़रत की नागफनी नहीं बोई है। तो क्या लोग तुलसी के रावण को प्यार करते हैं ? अरे यह तुलसी के कवि की ताक़त है कि लोग हर बरस रावण जलाते हैं। इस लिए भी कि कवि का काम नफ़रत की नागफनी बोना नहीं है। लेकिन आप का पूरा गिरोह इसी कार्य में परिचित है। प्रतिरोध ही प्रतिरोध है कविताओं में , रचनाओं में। पर न कविता है , न रचना है। सिर्फ़ प्रतिरोध है। लिखते थे नागार्जुन भी प्रतिरोध की कविता :

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,

यही हुई है राय जवाहरलाल की

रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की

यही हुई है राय जवाहरलाल की

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी!

परसाई , धूमिल , दुष्यंत ने भी प्रतिरोध ही रचा है। जन - जन की जुबान पर बसे हैं। पर आज ? कुंटल भर प्रतिरोध रोज लिखा जा रहा है। कितने प्रतिरोध हैं जुबान पर ? 


आप ही की कविता है :

मुझे एक सीढ़ी की तलाश है

सीढ़ी दीवार पर चढ़ने के लिए नहीं

बल्कि नींव में उतरने के लिए


मैं क़िले को जीतना नहीं

उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ।


नफ़रती कविता का क़िला ध्वस्त है। बेईमान और चोर प्रकाशक का क़िला ध्वस्त होना शेष है। शेष है , इसी लिए किताब नहीं बिकती। पैसा दे कर छपती है , इस लिए भी किताब नहीं बिकती। कवि की कविता का क़िला ध्वस्त है। 

क्यों है ? 


[ एक मित्र की पोस्ट पर मेरा यह कमेंट ]


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