Tuesday, 18 February 2025

विभास के आंगन में अभिनय के प्रेम की चांदनी

दयानंद पांडेय 


राज बिसारिया के निर्देशन में अनिल रस्तोगी और वेदा राकेश के अभिनय की त्रिवेणी का कमाल आज देखने लायक़ था विभास में। असल में जब अभिनय के दो बड़े हस्ताक्षर बाकमाल निर्देशक के निर्देशन में काम करते हैं तो विभास की चमक , उस का तेज़ सूर्य की तरह ही हो जाता है। चंद्रमा सा सुकून देता हुआ। विभास के आंगन में अभिनय के प्रेम की चांदनी तभी खिलती है। जो कि आज खिली। लखनऊ के वाल्मीकि प्रेक्षागृह में। 

डाक्टर अनिल रस्तोगी और वेदा राकेश के अभिनय की युगलबंदी में निबद्ध दो वृद्धों के प्रेम का आख्यान विभास , सचमुच अपने नाम के अनुरूप सुबह के समय गाए जाने वाले भैरव राग की ही तरह था। अपनी पूरी चमक और निःशब्द हो गई वीणा की तरह बजती विभास की प्रेम कथा हमें एक गहरे जल में ले जाती है। प्रेम के गहरे जल में। जहां सिर्फ़ साथ की अकुलाहट है। बिना किसी याचना , बिना किसी वासना के। एक सेनेटोरियम में एक विधुर डाक्टर और एक मरीज लेकिन परित्यक्ता स्त्री की यह प्रेम कथा प्रेम के गहन छोर पर ही छोड़ती मिलती है। अपनी पूरी मिठास , स्निग्धता और सुवास के साथ।

शुरुआत हिंदी फ़िल्मों की तरह दोनों के झगड़े से होती है। लेकिन आहिस्ता से जैसे कोई ट्रेन पटरी बदल दे। किसी और शहर जाती हुई ट्रेन किसी और शहर की ओर चल दे। प्रेम के नगर की तरफ। विभास की कथा भी आहिस्ता से पटरी बदल लेती है। बदलती हुई चलती रहती है। प्रेम की यह पटरी निरंतर बदलती रहती है। कभी इस नगर , कभी उस नगर। ओर भी प्रेम है , छोर भी प्रेम। मुंबई की बरसात है। बरसात क्या है , प्रेम की बरसात है। छाता है। समंदर का किनारा है। डाक्टर और एक अभिनेत्री के प्रेम की छाया समूचे विभास में किसी जलतरंग सी बजती रहती है। किसी इंद्रधनुष की तरह खिलती हुई। मुड़-मुड़ कर मिलती हुई। ठहर - ठहर कर सुलगती हुई। जा - जा कर लौटती हुई। जैसे कोई लौ हो , दिपदिपाती हुई। प्रेम ऐसे ही तो खिलता है , किसी गुलाब की तरह। गुलाब से ही दोनों के प्रेम का पाग बनता है और मद्धिम - मद्धिम ख़ुशबू में तिरता हुआ किसी रातरानी की तरह। बेला की तरह महकता और गमकता हुआ। 

कहानी सशक्त हो , अभिनय सधा हुआ हो और निर्देशन कसा हुआ तो नाटक ही नहीं शाम भी सुंदर बन जाती है। आज की शाम इतनी दिलक़श और दिलफ़रेब होगी , नहीं मालूम था। विभास ने यह शाम सुंदर की। राज बिसारिया अब नहीं हैं पर उन के ही निर्देशन में खेला गया नाटक विभास आज फिर खेला गया। रूसी नाटककार अलेक्सी अर्ब्यूज़ोव के नाटक ओल्ड वर्ल्ड का हिंदी एडाप्टेशन वेदा राकेश ने विभास नाम से किया है। वेदा राकेश ने न सिर्फ़ नाटक का एडाप्टेशन बहुत ही सरल लेकिन मोहक ढंग से किया है बल्कि इस नाटक के संवाद भी बहुत शक्तिशाली और संप्रेषणीय लिखे हैं। ऐसे जैसे पानी। पानी पर तैरती नाव की तरह ही विभास के दृश्यबंध भी हैं। वेदा राकेश पुरानी अभिनेत्री हैं पर संयोग ही है कि उन्हें मंच पर आज पहली बार बतौर अभिनेत्री देखा है। निःशब्द करने वाला वेदा राकेश का अभिनय इतना टटका और इतना विस्मयकारी था कि मन रोमांचित हुआ जाता था। रीता चौधरी के अभिनय में प्राण डालना कठिन सा था। लेकिन वेदा ने रीता को सजीव ही नहीं किया प्राणवान और सम्माननीय भी बनाया। जगह - जगह गायकी में वह गामक नहीं थी पर अभिनय की तासीर ने संभाल-संभाल लिया। 

रीता चौधरी की भूमिका में वेदा के सामने डाक्टर की भूमिका में डाक्टर अनिल रस्तोगी के अभिनय ने जैसे विभास को वैभव दे दिया। अनिल रस्तोगी के अभिनय में सुरीलापन और लचीलापन का जो कोलाज है , वह बहुत आसान नहीं है। हर नाटक की हर भूमिका में वह अपने को ऐसे परोसते हैं , गोया अभिनय नहीं कर रहे हों , पात्र न हों , वह जीवन ही उन का हो। विभास में भी वह डाक्टर की भूमिका में नहीं , डाक्टर ही बन गए थे। शुचिता पसंद और अनुशासन का क़ायल डाक्टर जब प्रेम की नदी में नहाता है तो कैसे तो सारी बेड़ियां तोड़ कर किसी मछली की तरह फुदकने लगता है। मदहोश हो कर नाचने लगता है किसी मोर की तरह। ट्विस्ट डांस करते हुए युवा बन जाता है। कोई वृद्ध भी प्रेम करते हुए कैसे तो युवा बन जाता है , विभास में अनिल रस्तोगी के अभिनय में निहारा जा सकता है। तब जब प्रेम उन के अभिनय में शैंपेन की तरह छलकने लगता है। ह्विस्की की तरह सारी हिचक तोड़ कर , नदी की तरह सारे बांध तोड़ कर प्रेम का पान चबाने लगता है। इतना कि दर्शक भी इस प्रेम में पुलकित और मुदित हो जाता है।  

अस्सी बरस से अधिक की इस उम्र में भी न सिर्फ़ अभिनय बल्कि देह की लोच भी अनिल रस्तोगी की देखने लायक़ है। एक दृश्य में प्रेम में मगन वह जिस तरह उछल कर बच्चों की तरह उछल कर लेट जाते हैं , वह दृश्य तो अनिर्वचनीय था। आलौकिक और निर्मल था। एक वृद्ध के प्रेम में यह उछाह की , ललक और लगाव की अदभुत अभियक्ति थी। प्रेम से लबालब अभिनय की इस आंच में जल ही जाना था दर्शकों को। अनिल रस्तोगी का अभिनय बहुत सारे नाटकों और फिल्मों में देखने का संयोग मिला है। पर यह नाटक उन का कुछ अलग सा था। उन का अभिनय कुछ अलग सा और अनूठा था। फिर भी मेरे लिए यह कह पाना बहुत कठिन है कि अनिल रस्तोगी का अभिनय बीस था कि वेदा राकेश का। गरज यह कि दोनों ही बीस थे। नाटक के एक दृश्य में शैंपेन भले नहीं उछली , ह्विस्की भी नीट पी गई। पर अभिनय में प्रेम की आवाजाही गहरे समंदर जैसी थी। मन में ख़ूब सारा शोर करती हुई सी लहरें थीं। अभिनय के विन्यास में लरजती हुई सी। 

इस नाटक का मंचन राज बिसारिया की याद में थिएटर आर्ट्स वर्कशाप ने उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के वाल्मीकि प्रेक्षागृह में किया। 






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