Thursday, 13 February 2025

तो सूरमा भोपाली बनना छोड़ दें !

दयानंद पांडेय 


बहुत पहले फ़िराक़ गोरखपुरी से एक बार पूछा गया कि सब से बड़े दो शायरों के नाम बताइए। फ़िराक़ साहब बोले , सूरदास और तुलसीदास। और देखिए कि यह दोनों आज भी ख़ूब पढ़े जाते हैं। बिकते भी ख़ूब हैं। आप कह सकते हैं कि भक्ति में लोग पढ़ते हैं। पर क्या सचमुच ? सूर और तुलसी की रचनाएं , रचना नहीं धार्मिक हैं ? फिर कबीर , मीरा , मीर और ग़ालिब ? धूमिल और दुष्यंत के बारे में क्या राय है ? दिनकर , बच्चन और नीरज क्या नहीं पढ़े जा रहे ? पढ़े और सुने तो आप भी जाते हैं। अब अगर प्रकाशक बेईमान हों , चोर हों और लेखक कवि उन्हें पैसे दे कर किताब छपवाने लगें तो किसे दोषी मानेंगे ? बाइबिल मुफ़्त बांटी जाती है पर तुलसी की रामचरित मानस रोज बीस - पचीस हज़ार बिकती है। गीता प्रेस छाप नहीं पाता। चौबीसो घंटे छपाई चलती रहती है। डेढ़ सौ करोड़ की आबादी में अगर दस - बीस किताबों का संस्करण छपने की बात हो जाए तो यह क्या है ? पचीस - तीस बरस पहले किताबों की कुछ ख़रीद समितियों में रहा हूं। राजा राममोहन राय ट्रस्ट की ख़रीद समिति में भी। देखा है सारा गुणा भाग। उन दिनों प्रकाशक लेखकों को बहुत दुःख से बताते थे कि पांच सौ प्रतियों का संस्करण हो गया है। वह सही कहते थे। पर यह नहीं कहते थे कि यह पांच सौ प्रतियों का संस्करण सबमिशन एडिशन होता था। विभिन्न ख़रीद में सबमिशन के लिए यह पांच सौ प्रतियां भी कई बार कम पड़ जाती थीं। इस के बाद आर्डर का सिलसिला शुरू होता है। सैकड़ो , हजारो करोड़ की किताबें देश भर में सरकारें खरीदतीं हैं। प्रकाशक मालामाल होते रहते हैं। मनमोहन सरकार ने आर टी आई की सुविधा दी हुई है। कोई लेखक यह सुविधा इस्तेमाल क्यों नहीं करता। क्यों नहीं पूछता कि हमारी फला किताब कितनी खरीदी गई ? नियम है सरकारी खरीद में कि लेखक को न्यूनतम दस प्रतिशत रायल्टी दी जाए। लेखक से एन ओ सी दे प्रकाशक , तभी भुगतान होगा। लेकिन अस्सी प्रतिशत रिश्वत के रूप में कमीशन देने वाला प्रकाशक लेखक की एन ओ सी खुद ही दे देता है। भुगतान ले लेता है। लेखक को रायल्टी नहीं देता। 

निर्मल वर्मा ने अपने निधन के पहले एक लेख भी लिखा था इस मामले पर। इस लेख में उन्हों ने बताया था कि दिल्ली में हिंदी के कई प्रकाशकों को वह व्यक्तिगत रुप से जानते हैं। जिन के पास हिंदी की किताब छापने और बेचने के अलावा कोई और व्यवसाय नहीं है। और यह प्रकाशक कहते हैं कि किताब बिकती नहीं। फिर भी वह यह व्यवसाय कर रहे हैं। न सिर्फ़ यह व्यवसाय कर रहे हैं बल्कि मैं देख रहा हूं कि उन की कार लंबी होती जा रही है, बंगले बड़े होते जा रहे हैं, फ़ार्म हाऊसों की संख्या बड़ी होती जा रही है तो भला कैसे?

मेरा पहला उपन्यास जब छपा था तो कह सुन कर उस की समीक्षा कई जगह छपवा ली। अच्छी-अच्छी। कुछ जगह अपने आप भी छप गई। तो मेरा दिमाग थोड़ा खराब हुआ। मन में आया कि अब मैं बड़ा लेखक हो गया हूं। कोई  पचीस-छब्बीस साल की उम्र थी, इतराने की उम्र थी, सो इतराने भी लगा। प्रभात प्रकाशन के श्यामसुंदर जी ने इस बात को नोट किया। एक दिन मेरे इतराने को हवा देते हुए बोले, 'अब तो आप बड़े लेखक हो गए हैं! अच्छी-अच्छी समीक्षाएं छप गई हैं।' मैं ने ज़रा गुरुर में सिर हिलाया। और उन से बोला, 'आप का भी तो फ़ायदा होगा!'

'वो कैसे भला?'

'आप की किताबों की सेल बढ़ जाएगी !' मैं ज़रा नहीं पूरे रौब में आ कर बोला।

'यही जानते हैं आप?' श्यामसुंदर जी ने अचानक मुझे आसमान से ज़मीन पर ला दिया। अमृतलाल नागर, अज्ञेय, भगवती चरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर आदि तमाम बडे़ लेखकों की किताबों के साथ मुझ जैसे कई नए लेखकों की कई किताबें एक साथ मेज़ पर रखते हुए वह बोले, 'इन में से सभी लेखकों की किताबें बेचने के लिए मुझे एक जैसी तरकीब ही लगानी पड़ती है।'

'क्या?' मैं चौंका।

'जी!' वह बोले, 'बिना रिश्वत के एक किताब नहीं बिकती। वह चाहे बड़ा लेखक हो या घुरहू कतवारु। सब को रिश्वत दे कर ही बेचना होता है। बाज़ार का दस्तूर है यह। बड़ा लेखक दिखाऊंगा तो दो चार किताबें खरीद ली जाएंगी। तो उस से तो हमारा खर्च भी नहीं निकलेगा।'

हकीकत यही थी। मैं चुप रह गया था तब।

किताबों की सरकारी खरीद में वैसे एक नियम है , खास कर राजा राम मोहन राय ट्रस्ट की किताबों की खरीद में तो है कि लेखकों को रायल्टी मिल गई है की एन ओ सी प्रकाशक सरकार को दें। प्रकाशक लेखक की यह एन ओ सी देते भी हैं , सरकार को। लेकिन फर्जी। लेखक को तो पता भी नहीं चलता कि कब कितनी और कौन सी किताब खरीदी गई और क्या रायल्टी बनी। इस बात की चर्चा मैं ने लखनऊ में एक आर टी आई एक्टिविस्ट नूतन ठाकुर से की जो एक आई पी एस अफ़सर अमिताभ ठाकुर की पत्नी हैं। तय हुआ कि वह हाईकोर्ट में इस बाबत एक याचिका दायर कर सरकार को निर्देश दिलवाएंगी कि लेखकों की रायल्टी सीधे लेखकों के खाते में सरकार भिजवाया करे। फिर बात आई कि इस बारे में कुछ लेखक लिख कर दें ताकि याचिका को बल मिले। तब के दिनों श्रीलाल शुक्ल , कामतानाथ , मुद्राराक्षस आदि लेखकों से इस बाबत मैं ने बात की। पर यह सभी लेखक दाएं-बाएं हो कर कतरा गए। अब यह लोग नहीं रहे। लेकिन उन्हीं दिनों मैं ने शिवमूर्ति और वीरेंद्र यादव जैसे कई लेखकों से भी बात की थी। एक शिवमूर्ति तैयार हुए । शिवमूर्ति ने इस बारे में दिल्ली में बलराम से चर्चा की। बलराम भी वीर रस में आए। लेकिन अफ़सोस कि आज तक एक भी लेखक की दस्तखत इस बाबत नहीं मिल सकी । आगे भी खैर क्या मिलेगी। मुद्राराक्षस ने तभी कहा था कि आधा-अधूरा ही सही कुछ रायल्टी तो यार मिल ही जाती है। अब ऐसा करेंगे तो यह प्रकाशक छापना ही बंद कर देंगे तो क्या करेंगे ? ऐसा ही और भी लेखकों ने घुमा-फिरा कर कहा। गरज यह कि लेखक चूहा हैं और प्रकाशक बिल्ली। फिर वही बात की बिल्ली के गले घंटी बांधे कौन ? 

हिंदी लेखक एक कायर कौम है और हिंदी का प्रकाशक एक बेईमान कौम ! दुनिया भर में प्रतिरोध का डंका बजाने वाला हिंदी का लेखक हिप्पोक्रेट भी बहुत बड़ा है । पुरस्कारों , फेलोशिप और विदेश यात्राओं के जुगाड़ में नित अपमानित होता यह हिंदी लेखक शोषक और शोषित की बात भी बहुत करता है लेकिन अपने ही शोषण के खिलाफ बोल नहीं सकता । इस बाबत उकसाने पर भी कतरा कर आंख मूंद कर निकल जाता है। दुनिया भर के मजदूरों की बात बघारने वाला यह हिंदी लेखक अपनी ही मजदूरी की बात करना भूल जाता है । प्रकाशक से रायल्टी की बात तो छोड़िए उलटे प्रकाशक को पैसे दे कर किताब छपवाने की जुगत भी करता है। हिंदी का यह लेखक अकसर पाठक का रोना भी बहुत रोता है पर अपने बच्चों को वह पढ़ाता इंग्लिश मीडियम से ही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध भी यह हिंदी लेखक बहुत ज़ोर-शोर से करता है लेकिन उस के बच्चे लाखों के पैकेज पर इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरियां करते हैं। आलम यह है कि अगर कोई बहुत बड़ा फन्ने खां हिंदी लेखक अगर रायल्टी मिलने की बड़ी हुंकार भरता मिले तो उस की हुंकार सुन लीजिए लेकिन यह बात तो जान ही लीजिए कि सिर्फ़ लेखन के दम पर यह हिंदी लेखक अपना और अपने घर के लोगों की चाय का खर्च भी नहीं उठा सकता है। बाक़ी कविता , कहानी , लेख आदि और सेमिनारों, गोष्ठियों-संगोष्ठियों वगैरह में तो अवमूल्यन , पतन और हेन-तेन आदि-आदि की जलेबी छानने और अति बघारने के लिए वह पैदा हुआ ही है । आप तो बस प्रणाम कीजिए हिंदी लेखक नाम के इस जीव को यह सोच कर कि अब तक यह ज़िंदा कैसे है ? बल्कि जिंदा क्यों है ? यह बात भी आप शौक से पूछ सकते हैं। यकीन मानिए वह कतई बुरा नहीं मानेगा । हां यह ज़रूर हो सकता है कि यह सवाल सुन कर वह बहरा हो जाए , इस बात को अनसुना कर दे , कोई झूठ बोल दे , कतरा कर निकल जाए या शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसा ले ! यह अब उसी पर मुन:सर है। आप बस आज़मा कर देखिए।

बातें बहुतेरी हैं। जिन का विस्तार यहां मुमकिन नहीं है। 

रही बात सरकारी प्राइमरी स्कूलों के बंद करने की तो बहुत तलाश किया ऐसा आदेश अभी तक नहीं मिल सका है। आदेश नहीं हुआ है तो भी हो जाना चाहिए। जैसे मुफ्त अनाज , मुफ्त की बिजली आदि देना देश हित में नहीं है , यह प्राइमरी स्कूल भी नहीं हैं। कोई जाता नहीं। क्यों कि सभी लोग अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम में पढ़ाना चाहते हैं। हमारा गांव फोरलेन सड़क पर है। गोरखपुर -बनारस रोड पर। जब जाता हूं तो हालचाल लेता हूं। अब वहां सिर्फ़ एक  दाई है। जो बच्चों के लिए दलिया बनाती है। ग्राम प्रधान के निर्देशन में। कोई दो दशक पहले की बात है। स्कूल में अध्यापकों की कमी देख कर कई बार कह - सुन कर तैनाती करवाता रहता था। एक बार दो - तीन अध्यापिकाएं गांव में घर पर आईं। हाथ जोड़ कर बोलीं , आप हरदम यहां तैनाती करवा देते हैं। मत किया कीजिए। उन का कहना था कि एक तो पढ़ाने के लिए बच्चे नहीं हैं। दूसरे , सड़क पर गांव होने के कारण जो भी अधिकारी यहां से गुज़रता है , जांच करने आ जाता है। 

बाद में पता चला कि यह अध्यापिकाएं गोरखपुर शहर में रहती हैं। कार से आती - जाती  हैं। कहीं दूर देहात में तैनाती करवाती हैं। महीने में दो - चार बार स्कूल जा कर अटेंडेंस बना कर वेतन ले लेती हैं। सड़क वाले गांव में इसी लिए तैनाती नहीं चाहतीं। क्या - क्या बताऊं ? मनमोहन सरकार हो या नरेंद्र मोदी सरकार। अखिलेश सरकार हो या योगी सरकार। सब एक जैसी हैं। सब की सब जन विरोधी हैं। ऐसे में लेखकों , कवियों से उम्मीद की ही जा सकती है कि कम से कम जनता के साथ रहे। जनविरोधी न बने। इस सरकार , उस सरकार के खाने में न बंटे। सिर्फ़ विचारधारा ही नहीं , सच के साथ रहें । जन के साथ रहें। देश , जनता और सरकार में फ़र्क़ समझें और सीखें। सरकार का विरोध डट कर करें। ईंट से ईंट बजा दें। पर देश और जनता को इस में न पीसें। 

प्रकाशक से अपना हिसाब , अपने श्रम का मूल्य लेना सीखें। नहीं ले सकते अपनी रायल्टी तो सूरमा भोपाली बनना छोड़ दें। 

[ एक मित्र की पोस्ट पर मेरा प्रतिवाद। ]


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