दयानंद पांडेय
द वैक्सीन वार का एक दृश्य |
द वैक्सीन वार सेल्यूलाइड के परदे पर फ़िल्म नहीं , मनुष्यता का महाकाव्य है। कालजयी फ़िल्म है। द वैक्सीन वार देखते हुए , उस की डिटेलिंग देखते हुए कई बार सत्यजीत रे याद आए। ह्वी शांताराम याद आए। और श्याम बेनेगल भी याद आए। कमाल की स्क्रिप्ट और कमाल का निर्देशन। एक भी सूत इधर से उधर नहीं। बहुत कम फ़िल्में होती हैं जो अपने विषय पर केंद्रित रहती हैं। उसी पर मर मिटती हैं। इस डाल से उस डाल पर कूदती हुई , मंकी एफ़र्ट करती हुई फ़िल्म नहीं है , द वैक्सीन वार। एक क्षण का भी अवकाश नहीं देती कुछ और सोचने के लिए द वैक्सीन वार। अपने साथ लगातार बांधे रहती है। ऐसे जैसे मां की उंगली हो , दर्शक मां की उंगली को नहीं छोड़ता।
द वैक्सीन वार की ऐसी निरंतरता और ऐसी कसावट को सघन किया है , डॉक्टर बलराम भार्गव की भूमिका में नाना पाटेकर के सहज और सशक्त अभिनय ने। निर्देशक विवेक अग्निहोत्री एक समय पत्रकार भी रहे हैं। तो चीज़ों को देखने का पत्रकार का पैनापन भी अनायास दीखता है द वैक्सीन वार में। निरंतर दीखता है। बिना लाऊड हुए चीन पर भी चोट करती चलती है द वैक्सीन वार। वायर जैसी प्रोपगैंडा पत्रकारिता पर भी भरपूर वार करती है। द वैक्सीन वार , वैक्सीन बनाने की जद्दोजहद तक ही नहीं सीमित है। किसी वैज्ञानिक का काम सिर्फ़ शोध और संधान तक ही सीमित होता है। पर द वैक्सीन वार फ़िल्म बताती है कि हमारे वैज्ञानिकों को बीच कोरोना में वैक्सीन पर तो काम करना ही था , प्रोपगैंडा पत्रकारिता से भी रोज दो-चार हाथ करना था। विपक्षी राजनीति के निशाने पर तो वह थे ही , अंतरराष्ट्रीय साज़िशों से भी लोहा लेना था।
डब्ल्यू एच ओ जैसी संस्थाएं भी भारत नहीं , चीन के साथ खड़ी थीं। जब विपक्ष और प्रोपगैंडा पत्रकारिता लगातार हमलावर थे देश के वैज्ञानिकों पर , तब यह निहत्थे वैज्ञानिक किस तरह घर , समाज और प्रोपगैंडा पत्रकारिता के आगे किस तरह निहत्थे थे। निहत्थे लड़ रहे थे। बता क्या लगभग फ़ैसला दे दिया गया था कि इंडिया कैन नाट डू इट। और ऐसे विपरीत समय में इन वैज्ञानिकों का ध्यान मछली की आंख की तरह सिर्फ़ वैक्सीन बनाने पर था। इन वैज्ञानिकों ने न सिर्फ़ क़ामयाब वैक्सीन बनाई बल्कि साबित किया कि इंडिया कैन डू इट। न सिर्फ़ भारत में बल्कि दुनिया भर में यह भारतीय वैक्सीन मशहूर और क़ामयाब हुई। दुनिया भर में भारतीय वैक्सीन का डंका बजा। अब इसी वैक्सीन बनने की संघर्ष कथा को द वैक्सीन वार के मार्फ़त विवेक अग्निहोत्री दुनिया के सामने ले कर उपस्थित हैं।
द वैक्सीन वार फ़िल्म में कोविड वैक्सीन के जनक आईसीएमआर के डी जी डाक्टर बलराम भार्गव सिर्फ़ वैज्ञानिक नहीं हैं , एक ईमानदार और अदभुत व्यक्तित्व वाले आदमी हैं। फ़िल्म में वह पागलपन की हद तक वह अपने काम में डूबे रहते हैं। कोविड वैक्सीन बनाने के समय उन के काम का जूनून जैसे किसी जंग में तब्दील होता जाता है। कई-कई दिन तक वैज्ञानिक अपने घर नहीं जा पाते। घर के लोगों , बच्चों से मिल नहीं पाते। डाक्टर बलराम भार्गव अपने साथी वैज्ञानिकों को कब क्या काम सौंप दें , भले ही वह घर पहुंचे ही हों , तुरंत लैब आने को कह दें , वह भी नहीं जानते। जाने को कह देने के बाद , दौड़ कर आफिस की सीढ़ियों पर ही रोक लें , ऐसी अनगिन घटनाएं फ़िल्म में भरी पड़ी हैं। नाना पाटेकर , पल्लवी जोशी , राइमा सेन , अनुपम खेर , गिरिजा ओक , निवेदिता भट्टाचार्य , सप्तमी गौड़ा , मोहन कपूर , यज्ञ तुर्लापति जैसे कलाकारों का अभिनय कहीं से भी अभिनय नहीं लगता। लगता है जैसे यही उन का जीवन है। कहीं से भी किसी अभिनय की कोई औपचारिकता नहीं दिखती। फ़िल्म की ताक़त यही है। किसी भी दृश्य या संवाद में स्पेशल इफेक्ट की नकली छौंक नहीं दिखी।
एक दृश्य है , जिस में कैबिनेट सेक्रेटरी , आईसीएमआर के डी जी डाक्टर बलराम भार्गव से एक वैक्सीन बनाने के लिए वाट्सअप ग्रुप बना कर काम करने की सलाह देते हैं। और डाक्टर भार्गव बड़ी विवशता से कहते हैं , वाट्सअप ग्रुप नहीं बना सकते क्यों कि उन के पास स्मार्ट फ़ोन नहीं है। घर आ कर बच्चों से डिस्कस करते हैं कि वाट्सअप चलाने के लिए कौन सा स्मार्ट फ़ोन ठीक है , जो सस्ते में मिल जाए ! पत्नी ताना देती है कि बताइए डी जी हो गए हैं , पर कंजूसी नहीं गई है। कोट भी रफू करवा कर पहनते हैं। डाक्टर भार्गव की एक बड़ी मुश्किल यह भी है कि वह सिर्फ़ आदेश देना जानते हैं। टारगेट एचीव करना जानते हैं। नहीं जानते तो प्लीज़ कहना , थैंक यू कहना। वैज्ञानिकों की टीम उन से , इस बात पर भड़कती रहती है। डाक्टर अब्राहम बनी पल्लवी जोशी तो रो तक पड़ती है। एकाधिक बार।
एक साइंटिस्ट है , उसे घर जाने की अनुमति दे देते हैं , डाक्टर भार्गव। रात हो गई है। पर अचानक वह दौड़ते हुए आते हैं। आफिस की सीढ़ियों पर बैठ कर बतियाने लगते हैं। फिर उस का घर जाना रद्द कर देते हैं। एक बार यह साइंटिस्ट घर पहुंचती है। छोटे बेटे ने कविता लिखी है। मां को सुनाना चाहता है। डाक्टर भार्गव का फ़ोन आ जाता है , फ़ौरन आओ। बेटा मां के पांव पकड़ कर झूल जाता है। रोने लगता है। लेकिन मां रुक नहीं पाती। जाना है। वैक्सीन बनाना है। चल देती है। एक साइंटिस्ट छुट्टी पर है। छुट्टी कैंसिल हो जाती है। वैक्सीन बनाना है। डाक्टर अब्राहम के घर में पारिवारिक कार्यक्रम है। पर सब रद्द। वैक्सीन बनाना है। वैक्सीन बनाने में सारे निजी रिश्ते , परिवार , भावना , सब स्वाहा है। क्यों कि वैक्सीन बनाना है। बीमार हैं पर वैक्सीन बनाना है। वैक्सीन वार है। डाक्टर भार्गव सभी साथियों से कहते हैं , अब तुम लोग साइंटिस्ट ही नहीं , सोल्जर भी हो। सोल्जर की तरह काम करो। सभी साइंटिस्ट सोल्जर की तरह काम करने लगते हैं।
ईरान जाना है। सभी पुरुष साइंटिस्ट एक-एक कर हाथ खड़े कर देते हैं। कि नहीं जा सकते। स्त्री साइंटिस्ट तैयार हो जाती हैं। इस में एक गर्भवती साइंटिस्ट है। फिर सभी साइंटिस्ट ईरान जाते हैं। वैक्सीन टेस्ट करने के लिए बंदर चाहिए। नहीं मिलते। तो यही साइंटिस्ट नागपुर के जंगलों में बंदर खोजने भी जाते हैं। सरकार की अनुमति से। पर मेनका गांधी और प्रोपगैंडा जर्नलिस्ट कहीं से इस बात को जान जाते हैं। हल्ला हो जाता है। पर काम बंद नहीं होता। डाक्टर भार्गव सभी साइंटिस्टों से स्पष्ट कह देते हैं कि मीडिया से दूर रहें। मीडिया वार का जवाब मीडिया वार से नहीं देना है। हमें सिर्फ़ वैक्सीन बनानी है। लेकिन प्रोपगैंडा जर्नलिस्ट कहां मानने वाले ? ख़ास कर डेली वायर पर द वैक्सीन वार फ़िल्म में फायर किया गया है। वायर विदेशी शह पर , भारत के वैज्ञानिकों को कटघरे में खड़ी करने में युद्धरत है। जिस तरह विश्वगुरु के व्यंग्य से मोदी सरकार को यह पत्रकार दिन-रात घेरती रहती है , वह लाजवाब है। राइमा सेन ने डेली वायर की पत्रकार की भूमिका बहुत अर्थपूर्ण ढंग से की है। उस के अंग-अंग से सरकार और वैज्ञानिकों के लिए घृणा फूटती रहती है। विदेशी शह पर वह यह सब कर रही है। डालर कमाने के लिए यह सब कर रही है। पर उस की नौकरानी रह-रह कर उसे कोंचती रहती है। कहती है , सरकार को नहीं पसंद करती , कोई बात नहीं। पर वैक्सीन बनाने वालों से क्या दुश्मनी है ? पत्रकार के पास कोई जवाब नहीं है। अंतत: एक दिन वह काम छोड़ कर चल देती है। राइमा सेन ने इस प्रोपगैंडा पत्रकार की भूमिका में प्राण फूंक दिए हैं। ख़ास कर प्रेस कांफ्रेंस में जिस तरह साइंटिस्टों पर सवालों का आक्रमण करती हुई ख़ुद ही घिर जाती है , वह दृश्य लाजवाब है। वैक्सीन वार ने प्रोपगैंडा मीडिया और वायर जैसों पर बुरी तरह फायर किया है।
वैक्सीन बनाने वाली ज़्यादातर साइंटिस्ट स्त्री हैं। जिस तरह अपनी जान पर खेल कर , परिवार , पति और बच्चों को छोड़ कर वह इस वैक्सीन को बनाने में लगी हैं , फ़िल्म में उन के काम को रेखांकित करते हुए विवेक अग्निहोत्री ने जिस तरह उन के काम को सैल्यूट किया है , वह अप्रतिम है। सैल्यूटिंग है। जीता-जागता दस्तावेज़ है यह फ़िल्म। बहुत ज़रुरी और विश्वसनीय फ़िल्म है द वैक्सीन वार। नाना पाटेकर के अभिनय के कंधे पर टिकी यह फ़िल्म जब तक मनुष्य और मनुष्यता है , तब तक याद की जाएगी। हां , फ़िल्म में अगर शहर-दर-शहर कोरोना में बेघर हुए मज़दूरों आदि को भी दिखाया गया होता , बिछती और जलती हुई लाशों का अंबार भी दिखाया गया होता , आक्सीजन की किल्लत भी बैकग्राउंड में ही सही , दिखाई गई होती तो बात और होती। और जीवंतता आती। लेकिन यहां तो प्रेस कांफ्रेंस में समवेत तालियां भी बजती मिलती हैं। इस से बचना चाहिए था , विवेक अग्निहोत्री को। हां , लेकिन अगर कोरोना आदि से बेघर और मरते हुए लोगों को भी दिखाया जाता तो शायद फ़िल्म द वैक्सीन वार के विषय से भटकती हुई दिखती। यह एक ख़तरा भी था।
जो भी हो कश्मीर फ़ाइल्स से तकनीक , स्क्रिप्ट , कैमरा और निर्देशन में यह द वैक्सीन वार फ़िल्म बीस है। पर बॉक्स ऑफ़िस पर कश्मीर फ़ाइल्स से बहुत पीछे है। रहेगी। तो शायद इस लिए कि इस में कश्मीर वाली त्रासदी नहीं है। कश्मीर फाइल्स भी मनुष्यता की ही फ़िल्म है और द वैक्सीन वार फ़िल्म भी। इस लिए भी कि द वैक्सीन वार फ़िल्म मसाला फ़िल्म नहीं है। नकली फ़िल्म नहीं है। नहीं पिटने को काग़ज़ के फूल , मेरा नाम जोकर , पाक़ीज़ा और तीसरी क़सम जैसे फ़िल्में भी पिट जाती हैं। पर बाद में हम उन्हें कालजयी और क्लासिक फ़िल्म के तौर पर दर्ज कर देते हैं। द वैक्सीन वार फ़िल्म भी ऐसी ही कालजयी फ़िल्म है। मनुष्यता की महान कविता है , द वैक्सीन वार फ़िल्म। मनुष्यता का महाकाव्य है। देश भर में इसे टैक्स फ्री होना चाहिए।
द वैक्सीन वार का एक दृश्य |
फ़िल्मकार ने जितनी शिद्दत से यह फ़िल्म बनायी होगी वैसे ही मन लगाकर आपने यह समीक्षा लिखी है। बिलकुल बाँधकर रखते हैं आप भी जैसे विवेक अग्निहोत्री ने यहाँ उल्लिखित इन दो फ़िल्मों में किया है।
ReplyDeleteसुंदर समीक्षा
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