दयानंद पांडेय
लेखकों की चुनी हुई चुप्पियां , चुने हुए विरोध की बहुत चर्चा हो चुकी है। इतनी कि यह लेखक अपने-अपने गिरोह की खोल में सिमट कर रह गए हैं। जनता से पूरी तरह कट कर रह गए हैं। पाठकों से कोई रिश्ता नहीं रह गया है। कट कर रह गए हैं। ख़ुद ही लिखते हैं , ख़ुद ही पढ़ते हैं , ख़ुद ही सुनते हैं। अपनी गली में श्वान की तरह भौंकते रहते हैं। सो चुनी हुई चुप्पियों , चुने हुए विरोध की तरह किताबों की चर्चा भी उन की चुनी हुई ही होती है। ऐसे , जैसे वह अगर गिरोह से इतर किसी किताब का नाम ले लेंगे , उस की चर्चा कर देंगे तो वह किताब अमर हो जाएगी , वह लेखक अमर हो जाएगा। वह पीछे रह जाएंगे। समाप्त हो जाएंगे। इस भय और दहशत से वह चुप्पी साध लेते हैं। अभद्रता और अश्लीलता की हद तक व्यस्त हो जाते हैं। गुप्त रुप से काटने लग जाते हैं। बदनाम करने लग जाते हैं। इसी लिए अपने नए उपन्यास विपश्यना में प्रेम पर मैं ने नया प्रयोग किया। गिरोहबंद लेखकों के बजाय , निष्कपट और प्रशंसक , लेखकों पाठकों से विपश्यना में प्रेम पर लिखने के लिए निवेदन किया। बिना नाज़-नखरे के लोग समीक्षा लिखते गए। कुछ मित्रों ने बिना कहे भी बढ़िया समीक्षा लिखी है।
हर्ष का विषय यह है कि कोई दो-तीन महीने पहले छपे विपश्यना में प्रेम पर अब तक डेढ़ दर्जन समीक्षाएं लिखी गई हैं। अभी लगभग दर्जन भर मित्रों ने और लिखने के लिए बताया है। हो सकता है , यह संख्या और बढ़ जाए। पहले सवाल उठा कि इन समीक्षाओं को क्या विभिन्न पत्रिकाओं में छपने भेजा जाए ? जवाब भी पहले से उपस्थित था कि ज़्यादातर पत्रिकाओं में इन्हीं गिरोहबंद लेखकों का कब्ज़ा है। साल-दो साल समीक्षा रोक कर अपनी गुंडई थोप देते। फिर बताते कि अब तो देर हो गई है। अच्छा यह पत्रिकाएं छपती भी कितनी हैं ? दो सौ से पांच सौ। हद से हद एक हज़ार। और मिलती भी कहां हैं ? सिर्फ़ संपादक और मुट्ठी भर लेखकों के यहां। अख़बारों में समीक्षा छपने , न छपने का कोई अर्थ नहीं रह गया है अब। समीक्षा के नाम पर सिर्फ़ सूचना ही होती है। लंबी प्रतीक्षा के बाद चार-छ लाइन की सूचना। साहित्य और पुस्तक समीक्षा पूरी तरह अनुपस्थित है , अखबारों से।
फिर ऐसे में सरोकारनामा से बेहतर क्या जगह हो सकती थी भला ! लाखों की हिट वाले सरोकारनामा पर ही छापना उचित लगा। सरोकारनामा ने पहले भी इन गिरोहबंद लेखकों की हेकड़ी बारंबार तोड़ी है। इन का अहंकार चूर-चूर किया है। नंगा किया है। विपश्यना में प्रेम के बाबत फिर किया है। उन के आगे दर्पण रख दिया है। कि लो , देखो अपने आप को। क्या हो गए हो। मुट्ठी भर लोग कितना बदबू कर रहे हो। सो सरोकारनामा से फ़ेसबुक और वाट्सअप के मार्फ़त भी यह समीक्षाएं सब तक पहुंची हैं। सूचना और विचार परोसने की बड़ी ताक़त है , सोशल मीडिया। लोकतांत्रिक है। विपश्यना में प्रेम पर एक से एक अविस्मरणीय समीक्षाएं , अलग-अलग रंग और अलग-अलग ढंग , जुदा-जुदा स्वाद और भिन्न-भिन्न रंग लिए उपस्थित हैं। और क्या चाहिए भला ! इस नई परंपरा और नई धज के लिए सभी आदरणीय मित्रों , प्रशंसकों का हृदय से कृतज्ञ हूं। नत हूं , उन के इस नेह के आगे। नेह का यह रिश्ता कभी न टूटे। सर्वदा बना रहे। मन में तस्वीर बन कर टंगा रहे सदा , सर्वदा।
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