डॉ सत्या सिंह
एक चुप की राजधानी है, और उसी राजधानी में रहते हैं विनय और मल्लिका ( दारिया ) । और इस चुप की राजधानी को गढ़ा है उपन्यासकार दयानंद पांडेय ने जिनकी 75 से अधिक पुस्तकें एक नई विविधता लिए आ चुकी हैं तथा उनका ब्लॉग "सरोकारनामा " नित नए आयाम गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा है । दयानंद पांडेय एक निडर पत्रकार और संपादक भी रह चुके हैं अपनी बेबाकी की वज़ह से , उन के द्वारा रचित पुस्तक जिसे वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है ,"विपश्यना में प्रेम" को पढ़ा और वाणी प्रकाशन द्वारा आयोजित उस पुस्तक की चर्चा में में भी शामिल हुई । पुस्तक के कथानक के अलावा उसकी भाषा का भी कोई ज़बाब नहीं । जैसे कि उन्हीं के शब्दों में " अब मौन में ही सोना था, मौन में ही जगना था मौन में ही नहाना मौन में ही खाना था। मौन क्या था मन के शोर में और-और जलना था। तो क्या मौन मन को जला डालता है? पता नहीं, पर अभी तो यह मौन मन को सुलगा रहा था। बिना धुएं और बिना आंच के धीमी आंच पर जैसे सांय दहक रह थी। मौन की मीठी आंच एक अजीब सी दुनिया में ले जा रह थी। आंखें बंद थीं और जैसे मदहोशी सी छा रह थी। यह कौन सी दुनिया थी ?" और उसी दुनिया में , उस दुनिया में रहकर भी, उस दुनियां से दूर अपनी दुनिया में रहते हैं , विनय और मल्लिका ।
दयानंद पांडेय की कोई भी किताब " विपश्यना में प्रेम "के अलावा अभी मैं ने पढ़ी नहीं है पर उन का ब्लॉग सरोकारनामा पढ़ती रही हूं। वह प्रत्येक विषय पर खुल कर लिखते हैं। बिना यह सोचे कि कोई पढ़ कर क्या सोचेगा और क्या कहेगा। या फिर कहें कि बाल की खाल उधेड़ देते हैं । स्त्री पुरुष के संबंधों को बड़ी बोल्डनेस के साथ लिख डालते हैं । विपश्यना में प्रेम को मैं ने कई बार पढ़ा है । जादुई शब्दों से आमना सामना हुआ है , जैसे आन-पान ( साँस लेना छोड़ना ) , ठुमुक ठुमुक कर चलता हुआ सूर्य , चाँद भी जैसे स्लीवलेस हो गया , नींद की नाव आदि । एक अद्भुत शिल्पकार की तरह इस उपन्यास में उन्होंने शब्दों को विचारों का जामा पहनाया है। और मल्लिका तथा विनय के भावों और संबंधों को बड़ी ही बेबाकी से गढ़ा है जिसमें बोल्डनेस है तो यथार्थ भी है । लेखक ने कई जगह बुद्ध का भी चित्रण किया है । लेखक एक अनुत्तरित प्रश्न बुद्ध से पूछा है कि " अगर राहुल की जगह बुद्ध और यशोधरा की कोई बेटी होती तो क्या तब भी बुद्ध उसे भिक्षा में मांग कर ले जाते ।" उन का यह उपन्यास एक तरह से एक बौद्धिक फिलॉसफी से ओत प्रोत है ।
एक जगह वह सीता की व्यथा और मनोभावों का आंकलन अपने स्तर से करते हुए यह भी लिखते हैं कि , " जब लक्ष्मण जंगल में पहुंच कर अचानक रथ को रोक देते हैं तथा रथ से सीता को उतारते हुए बताते हैं कि भइया का आदेश है कि आप को यहीं छोड़ दूं । पर सीता विचलित नहीं होतीं। क्यों कि लक्ष्मण उन के पास हैं। लेकिन जब लक्ष्मण रथ पर चढ़ कर चल देते हैं तब भी सीता विचलित नहीं होतीं। लक्ष्मण अचानक आंख से ओझल होते हैं तो जब तक उन का रथ दिखता रहता है, सीता तब तक विचलित नहीं होतीं। रथ ओझल होता है तो रथ का ध्वज दिखने लगता है। जब तक रथ का ध्वज दिखता रहता है, सीता विचलित नहीं होतीं। लेकिन जब रथ का ध्वज भी ओझल हो जाता है, सीता विलाप करती हैं। इतना जोर से विलाप करती हैं कि दूब चर रहे मृग के मुंह से दूब गिर जाती है। आकाश में उड़ते पक्षी ठहर जाते हैं। वृक्ष की शाखाएं आपस में रगड़ खाने लगती हैं। मानो पूरा वन ही सीता के शोक में डूब जाता है। समूचा वन सीता के साथ विलाप करने लगता है। तो उनके मन में यह भी ख्याल आता है कि " तो क्या जब सिद्धार्थ यशोधरा को छोड़ कर गए तो लुंबिनी भी यशोधरा के साथ विलाप में डूबी थी ? यशोधरा के शोक में संलग्न हुई थी लुंबिनी ? कोई उत्तर नहीं है।"
सच बहुत कुछ इस उपन्यास में ऐसा है जो हाथ में लेने पर तन्मयता भंग नहीं होने देता और एक ही सांस में पूरा उपन्यास पढ़ने की ललक को बढ़ा देता है । विपश्यना केंद्र का सजीव चित्रण , आचार्य की भाषा जो सिर्फ़ उन की आंखें बोलती हैं , विनय की छटपटाहट , इसकी बेबाकी , सब कुछ किसी भी पाठक को बांधने में सक्षम " शायद या फिर यह विपश्यना में प्रेम की ही दुनिया थी । विनय और मल्लिका की दुनिया थी । एक जगह वह लिखते हैं कि , " इश्क़ का कोई एक सेटिल्ड ला नहीं है , कि ऐसे करो तो होगा, वैसे नहीं होगा। इश्क़ की कोई एक राह नहीं होती। यह हाई वे भी हो सकता है, पगडंडी भी गड्ढे वाली सड़क भी, कोई तंग गली भी खेत भी, तालाब भी, बाग़ भी, आकाश, धरती, पानी कोई भी राह दे सकता है। हवा भी। चांद , तारे, सूरज भी। विपश्यना भी। विपश्यना में भी प्रेम का आकाश अचानक उपस्थित हो सकता है। जो विनय के लिए तो सही है पर क्या यह मल्लिका का भी विनय के प्रति वास्तविक प्यार था ? यहां पर मेरे विचार से बिल्कुल नहीं क्यों कि प्यार में कोई किसी के साथ " ट्राई " नहीं करता वह तो सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार करता है । और प्यार का मतलब तो इतना है कि प्यार या प्रेम एक एहसास है, जो दिमाग से नहीं दिल से होता है और इस में अनेक भावनाओं व अलग अलग विचारो का समावेश होता है। प्रेम स्नेह से ले कर ख़ुशी की ओर धीरे-धीरे अग्रसर करता है। ये एक मज़बूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना है जो सब भूल कर उस के साथ जाने को प्रेरित करती है। पर यहां पर लेखक एक और कोण पर भी सोचने को विवश करता है कि , कि क्या मां ही एक ऐसा शब्द है, जिस में नारी की पूर्णता का बोध होता है। या यह कहना उचित होगा कि महान आत्माओं का विकास माता के गर्भ और गोद में ही होता है । नि:संतान होना सिर्फ़ एक भावनात्मक त्रासदी नहीं है बल्कि वह पारिवारिक, सामाजिक पहचान तथा अस्तित्व को ही ख़तरे में डाल देता है। इसी लिए एक साधारण औरत भी षडयंत्र रचने लग जाती है। यदि वह ऐसा नहीं करेगी तो घर से निकाली जाएगी या पति दूसरी औरत लाएगा । कई तरह के डर इस के पीछे काम कर रहे होते हैं। पर एक आधुनिक समाज की औरत भी इससे बाहर नहीं निकल पाती है और बच्चे के लिए ही मल्लिका विनय के सानिध्य में आती और कहती है कि , " 'तुम्हें मालूम नहीं विनय, मैं बहुत परेशान थी, मां बनने के लिए।' वह बोली, 'बहुत ट्राई किया। इलाज पर इलाज। पर हार गई थी। डाक्टर ने टेस्ट ट्यूब बेबी का भी बताया था।' वह बोलती जा रही थी, 'बीच विपश्यना में तुम क्लिक कर गए। तो ट्राई कर लिया। सारा रिस्क ले कर ट्राई किया। और सक्सेस रही। थैंक यू, माई लव !'
तो क्या इस ट्राई को हम प्रेम की परिधि में ला सकते हैं ? मैं यह पाठकों पर छोड़ती हूं क्यों कि सब का अपना अपना सच होता है , अपने-अपने भाव होते है । मैं लेखक की लेखनी को प्रणाम करती हूँ कि यह अद्भुत पुस्तक हम सब के हाथों में आई और हमने विपश्यना में प्रेम को पढ़ा जिस में बोल्डनेस के साथ ही साथ बुद्ध और सीता का भी ज़िक्र है। दरिया का विनय जिसे वह जानती नहीं ! कभी बात नहीं की। विनय द्वारा अचानक बांहों में भर कर चूम लेना नागवार नहीं गुज़रा। बल्कि दारिया उस का उसी तरह ज़बाब देती है और दोनों यूं ही कुछ देर एक दूसरे की बांहों में लिपटे रहते हैं । दोनों में कोई भौतिक संबंध नहीं हैं पूरी पुस्तक में पर , दैहिक संबंध को लेखक नें पूरी तन्मयता से दर्शाया है , जिसकी परिणति अचानक रूस से आये दारिया के फ़ोन से होती है जो उसने विनय का नंबर ढूंढ कर उसे किया है। और सब कुछ जानने के लिए पाठकों को पुस्तक पढ़ना पड़ेगा । पुस्तक के लेखक दयानंद पांडेय को उन की इस कृति के लिए साधुवाद देती हूं।
[ डॉ सत्या सिंह , पूर्व पुलिस अधिकारी हैं। ]
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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