Friday, 6 October 2023

नायक खोज रहा है शांति , मिल जाता है प्रेम !

 अनिल सिंह 

पेशे से इंजिनियर रहे अनिल सिंह श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास रागदरबारी के अदभुत मर्मज्ञ हैं।  रागदरबारी की रचना के दशकों बाद एक बार तो वह शिवपालगंज की यात्रा का जो विवरण परोसा और रागदरबारी के पात्रों की आज क्या हालत है , उस का रोमांचक विवरण प्रस्तुत कर दिया। बिलकुल श्रीलाल जी के अंदाज़ में। अभी भी जब भी कुछ वह लिखते हैं तो बात-बेबात श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी के बिना नहीं करते। रागदरबारी के पात्र कूद-कूद कर उन के विमर्श में उपस्थित हो जाते हैं। पावरग्रिड में इंजीनियर रहे अनिल सिंह ने  विपश्यना में प्रेम की समीक्षा में भी रागदरबारी के तमाम पात्र उपस्थित कर दिए हैं। अनिल सिंह हैं तो बनारसी। बनारसी ठाट उन के भीतर हिलोरें मारता रहता है। संगीत के भी रसिया हैं पर ख़ुद को वह गँजहा बताते नहीं थकते। 

विपश्यना में प्रेम: एक समीक्षा 

(एक गँजहे की कलम से)

वरिष्ठ साहित्यकार एवम् पत्रकार दयानन्द पाण्डेय 'गुरूजी' का नवीनतम उपन्यास 'विपश्यना में प्रेम' प्राप्त हुआ, और उसी के साथ गुरूजी का आदेश भी कि मुझे इसकी समीक्षा लिखनी है। अब एक असाहित्यिक ही नहीं अपितु साहित्य में लगभग पूर्ण निरक्षर व्यक्ति को गुरूजी जैसे ख्यातिलब्ध उपन्यासकार की एक रचना की समीक्षा लिखने का आदेश मिल जाय, तो उसकी दशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है: जैसे वैद्यजी की बैठक में यूँ ही बैठे रहने वाले और प्रतिदिन शाम को बैठकबाजों के लिए भङ्ग घोंटने मात्र की योग्यता रखने वाले सनीचर को अचानक शिवपालगञ्ज का ग्राम प्रधान बनने का आदेश मिल गया हो। 'पुलक गात लोचन सलिल!' जिस व्यक्ति ने जीवन में जेम्स हेडली चेज़ के उपन्यासों के अतिरिक्त जीवन में एक ही उपन्यास पढ़ा हो, और जिसे आजकल सनीचर की तरह ही अख़बार के मोटे अक्षऱ पढ़ने में भी हार्दिक कष्ट होता हो, उसके लिए एक गरिष्ठ उपन्यास पूरा पढ़ जाना कोई आसान काम न था, पर गुरूजी का आदेश! पढ़ना शुरू किया, और आनन-फानन में पढ़ भी गया। मेरी पहली प्रतिक्रिया तो वही थी, जो सनीचर ने अख़बार में छपे बवासीर के विज्ञापन को शिवपालगञ्ज की दीवारों पर लिखे विज्ञापन की तरह पा कर व्यक्त की थी: 'वही चीज़ है!' पर आदेश समीक्षा लिखने का था, प्रतिक्रिया देने का नहीं, तो प्रस्तुत है- उपन्यास की विस्तृत समीक्षा:

कथावस्तु: उपन्यास का ताना-बाना किसी पर्वतीय ठण्डे स्थान पर किन्हीं आचार्यजी द्वारा सञ्चालित एक विपश्यना ध्यान-केन्द्र के इर्द-गिर्द बुना गया है, जिसके एक साधना-सत्र में हमारा विनय नामधारी कथानायक अपने घरेलू झगड़ों से पीड़ित होकर शान्ति की खोज में कुछ देशी-विदेशी अन्वेषकों के साथ सम्मिलित होता है। देखा जाय तो उपन्यास की कहानी वहाँ से  शुरू होती है जहाँ 'राग दरबारी' की कहानी समाप्त होती है जिसमें शिवपालगञ्ज के विभिन्न आयामों को कुछ महीनों तक जीने के बाद रङ्गनाथ की आत्मा के तारों पर पलायन-सङ्गीत गूँजने लगता है, और वह शिवपालगञ्ज से पलायन कर जाता है। श्रीलाल शुक्ल जी यदि अपने उस उपन्यास को आगे बढ़ाते तो अपने नायक को ऐसे ही किसी ध्यान-शिविर में ही भेजते, पर यहाँ चर्चा का विषय 'राग दरबारी' नहीं 'विपश्यना में प्रेम' है। तो हमारा नायक अपनी घरेलू और सामाजिक अशान्ति से पलायन करने के उद्देश्य से एक विपश्यना ध्यान-शिविर में जा पहुँचता है। शिविर के आचार्यजी तो अपने जीवन में हर प्रकार की सफलता अर्जित कर चुके थे, और आत्मबोध की खोज में विपश्यना की ओर उन्मुख हुए थे, जबकि हमारा कथानायक विनय अपनी आत्मा के तारों पर बजने वाले पलायन-सङ्गीत से प्रेरित होकर वहाँ जा फँसा था। वहाँ उसके साथ जो घटित हुआ, उसकी कथा है: विपश्यना में प्रेम। 

जैसाकि हमारी परम्परा है, हम बाहर जाते हैं, और ज़रा सी बात पर शादी कर बैठते हैं। अर्जुन के साथ चित्रांगदा, उलूपी आदि को ले कर यही हुआ था, और यही हुआ था भीखमखेड़ा के पण्डित राधेलाल के साथ, जो गये तो थे शहर में आजीविका की खोज में, पर गाँव लौट आये अपने साथी चौकीदार की पत्नी के साथ। विनय के साथ इतना बुरा नहीं हुआ: उसे बस 'प्रेम' हुआ, जो किसी प्रहसन या पेचीदगी में न समाप्त होकर एक ऐसे चरम बिन्दु पर जा कर समाप्त होता है जिसमें किसी पक्ष के लिए असन्तोष का कोई कारण नहीं बचता। 

उपन्यास में शिविर के वातावरण, उसके कठोर अनुशासन, उसकी शिक्षण-पद्धति, और ध्यान के मार्ग में आने वाली रुकावटों का जो विशद वर्णन किया गया है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक इन बातों का प्रत्यक्ष अनुभव रखता है: केवल कल्पनाशीलता के बल पर वातावरण पर इस प्रकार की पकड़ सम्भव नहीं। शिविर का सुरम्य प्राकृतिक वातावरण, रात में खाली पेट सोने का नियम, भोजन सम्बन्धी अन्य अनुशासन, अखबार, मोबाइल, लैपटॉप आदि बाहर की दुनिया से सम्पर्क के सभी माध्यमों का पूर्ण निषेध, शिविर में न्यूनतम वार्तालाप, नासिकाग्र पर ध्यान लगा कर श्वास-प्रश्वास को साक्षीभाव से देखने के निर्देश, लम्बे समय तक बिना हिले-डुले बैठने की दिक्कतें, और इन निर्देशों के प्रति मन में उठने वाले स्वाभाविक विरोधों का जो सजीव वर्णन लेखक ने किया है,  उससे स्पष्ट हो जाता है कि लेखक ने या तो स्वयम् ऐसे किसी ध्यान-शिविर में भाग लिया है, या किसी भाग लेने वाले व्यक्ति से विपश्यना ध्यान-पद्धति सीखने का प्रयास किया है, और जब उपन्यास का प्रथमार्ध प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित प्रतीत होता है, तो यह कैसे मान लिया जाय कि द्वितीयार्ध पूर्णतया किसी कवि की कल्पना है?

उपन्यास के द्वितीयार्ध में जो कुछ घटित होता है, उसके आधार पर ही उपन्यास का नामकरण हुआ है। नायक खोज रहा है शांति , और उसे मिल जाता है प्रेम ! नायक को 'प्रेम' कुछ ऐसे सहज ढंग से प्राप्त होता है, जैसे शिवपालगञ्ज की कोऑपरेटिव यूनियन के सुपरवाइज़र द्वारा गेहूँ का गबन हुआ था। न कोई वार्तालाप, न पेड़ों के इर्द-गिर्द कोई नाच-गाना, कोई अन्य नाटकीयता! नायक भारतीय है, जिसे अंग्रेज़ी भी टूटी-फूटी ही आती है, और नायिका रूसी, तो दोनों के बीच बातचीत तो सम्भव ही नहीं थी, पर प्रेम इन लौकिक भाषाओँ का मोहताज कब था? बस एक-दो आँखों के इशारे, और अचानक नायक के साथ वह सब हो गया जिसे 'प्रेम' कहना कहाँ तक उचित है- यह तो नहीं कहा जा सकता, पर जिसे प्रेम के अतिरिक्त कुछ और कहना भी शायद उचित नहीं होगा। इसे यूँ समझा जाय कि अचानक नायक को वह अनुभव हुआ जो रङ्गनाथ को बद्री पहलवान की चारपाई पर लेटने मात्र से हुआ था; अब हमारा नायक रङ्गनाथ की तरह चुगद नहीं था, अतः उसने चौंक कर नायिका को भगाया नहीं, अपितु पण्डित राधेलाल की तरह उसने अवसर का लाभ उठाया। जब प्रेम  बिना वार्तालाप के हो सकता है, तो कुछ दिन इसी प्रकार चलता भी रहे, तो इसमें आश्चर्य क्या है? तो हमारे नायक-नायिका का प्रेम बिना किसी वार्तालाप के शिविर के समापन-पर्यन्त चलता रहता है। यह तो उपन्यास के अन्त में पता लगता है कि नायिका को थोड़ी-बहुत हिन्दी आती है, और बाद में दोनों के बीच कुछ बात-चीत भी होती है। 

कथावस्तु के आगे के भाग और विशेषतः उपन्यास के चरमबिन्दु की चर्चा करके उपन्यास के 'सस्पेन्स' को खोल देना लेखक के परिश्रम के साथ अन्याय होगा, अतः उपन्यास के अन्त पर एक छोटी सी टिप्पणी के साथ कथावस्तु की चर्चा यही समाप्त करते हैं। 'राग दरबारी' में बद्री पहलवान अपने शिष्य छोटे पहलवान को अखाड़े में धोबीपाट से चित करने के बाद जब उन्हें यह सूचना देते हैं कि बेला अब उनकी 'अम्मा' बनने वाली हैं, तो छोटे पहलवान को लगता है जैसे उन्हें दोबारा धोबीपाट से पटक दिया गया हो। उपन्यास की समाप्ति पर पाठक को कुछ ऐसी ही अनुभूति होती है। पहली बार पाठक अपने को धोबीपाट का शिकार उस समय अनुभव करता है, जब उसे यह पता लगता है कि शिविर में भाग लेने वाले लगभग सभी प्रतिभागी शान्ति की खोज में नहीं, अपितु अन्य व्यावसायिक कारणों से वहाँ गये थे, और उपन्यास के चरमबिन्दु (क्लाइमैक्स) पर तो समझिए क्रान्ति ही हो गयी!

भाषा-शैली: उपन्यास में वार्तालाप नहीं के बराबर है। एक तो पूरा उपन्यास एक विपश्यना शिविर की पृष्ठभूमि में रचा गया है, जिसमें बात-चीत लगभग निषिद्ध थी, दूसरे भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले विभिन्न पात्र जिनके बीच वार्तालाप की स्वाभाविक कठिनाइयाँ थीं। वार्तालाप केवल उपन्यास के अन्तिम भाग में ही घटित होता है, जो साधारण बोलचाल की भाषा में ही है। उपन्यास का अधिकांश भाग ध्यान और प्रेम के बीच नायक के मन में चलने वाले उहापोह के वर्णन में ही खर्च हो जाता है, पर एक बात तो मार्के की है, जिसकी चर्चा के बिना उपन्यास की समीक्षा पूरी नहीं हो सकती। विपश्यना के वातावरण में नायक को अकस्मात् मिले 'प्रेम' के ऐन्द्रिक पक्ष का जो विस्तृत और रोमाञ्चकारी वर्णन लेखक ने किया है, वह किसी उत्सुक पाठक को साँसें रोक कर उपन्यास को पूरा पढ़ने के लिए तो प्रेरित करेगा ही, उसे किसी विपश्यना शिविर में जाने के विषय में सोचने के लिए भी विवश करेगा। 

उपन्यास की भाषा ऐसी है कि बरबस ही उस ट्रक की याद आ जाती है जिस पर बैठकर रङ्गनाथ शिवपालगञ्ज पहुँचा था, जो शहर के किनारे जिसे छोड़ते ही देहात का महासागर शुरू हो जाता था, खड़ा था, और जिसके सत्य की तरह कई पहलू थे, जिसे एक ओर से देखकर कोई पुलिस वाला उसे सड़क के बीचोबीच खड़ा बता सकता था, और ड्राइवर दूसरी तरफ़ से देखकर उसे सड़क के किनारे खड़ा कह सकता था। जैसे पण्डित राधेलाल साक्षरता और निरक्षरता की सीमा पर रहते थे, उसी प्रकार उपन्यास की भाषा श्लीलता और अश्लीलता की सीमा पर खड़ी दिखती है। पुरातनपन्थी शुद्धतावादी भाषा को अश्लील बता सकते हैं, जबकि जबकि डी एच लॉरेन्स और हेनरी मिलर के उपन्यासों के रसिक आधुनिकतावादी उपन्यास की भाषा को कथ्य और वातावरण के अनुरूप और पूर्णतया शालीन बता सकते हैं। 

उपसंहार: यद्यपि लेखक ने ध्यान की चेष्टा में लगे नायक को बीच-बीच में ध्यान के छुटपुट अनुभव हो जाने का वर्णन किया है, पर अधिकांशतः नायक ध्यान और प्रेम के बीच झूलता ही प्रतीत होता है। नायक ने यदि 'राग दरबारी' पढ़ी होती, तो कदाचित इस असमञ्जस की स्थिति से वह बच सकता था। 'राग दरबारी' में रुप्पन बाबू के ध्यान का एक संक्षिप्त प्रकरण है जो ध्यान के प्रयास में लगे हर साधक के लिए एक स्पष्ट दिशानिर्देश का काम कर सकता है। रुप्पन बाबू रोज रात को सोने से पहले बेला के शरीर का ध्यान करते थे, और ध्यान को शुद्ध रखने के लिए वह केवल उसके शरीर को देखते थे, उस पर पड़े कपड़े को नहीं, और उन्हें ध्यान लगाने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। हमारे नायक को भी यदि अपने ध्यान को शुद्ध रखने की कोई ऐसी तकनीक मिल गयी होती, तो उसे इतना भटकना न पड़ता, पर उस अवस्था में शायद पाण्डेय जी को यह उपन्यास भी न लिखना पड़ता। 


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl

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