Thursday, 19 October 2023

जब मन में देह का ध्यान आ जाए तो सारी विपश्यना बिला जाती है

राजकिशोर सिनहा 

मुझ में यह दोष है कि लंबे-लंबे लेख पढ़ने में ऊब जाता हूँ और बीच में ही छोड़ देता हूं। दयानंद पांडेय जी के लेख-कथानक या उन की पत्रकारिता के अनुभवों के विवरण भी अपने पूरे विस्तार में होते हैं, फिर भी उन के लेखन में जो एक लय और सरसता है, उस के कारण पूरा पढ़ने की उत्सुकता अंत-अंत तक बनी रहती है। उनके ब्लॉग सरोकारनामा , उनकी रचनाओं की व्यापक जनस्वीकार्यता से यह बात प्रमाणित होती है। 

शुरू-शुरू में दयानंद पांडेय जी को जब मैं ने जाना, तब उन की पत्रकारिता के अनुभवों से और उन की रिपोर्टिंग को पढ़ कर जाना। राजनीति से संबंधित किसी मुद्दे और विशेष कर उत्तर प्रदेश की राजनीति के बारे में जब मुझे जानने की इच्छा होती थी तो मैं झट से दयानंद पांडेय जी की वाल पर चला जाता। राजनेताओं के साथ, नौकरशाहों के बारे में यथार्थ से ओतप्रोत उन के अनुभव रोमांचित और मुग्ध कर देनेवाले होते थे। कटु सत्यों के पूर्ण अनावरण में तनिक भी संकोच नहीं, ज़रा-सी भी झिझक नहीं। पढ़ कर ही महसूस हो जाता था कि ऐसी खरी-खरी रिपोर्टिंग करना निःसंदेह अपने प्राणों को संकट में डालना है परंतु दयानंद जी ने वह भी किया और पूरे मन से, पूरी निष्ठा से किया।

बात केवल उनकी सत्यपरक, निरद्वंद्व , रोचक एवं मुखर वर्णनशीलता की ही नहीं है, ऐसे निर्भय पत्रकार का दायित्व निभाते हुए उन को मैं एक योद्धा के रूप में देखता हूं। 'अपने-अपने युद्ध' में भी उन का यह युद्धरत रूप दिखता है। चाटुकारिता से कोसों दूर उन के इस योद्धास्वरूप को मैं नमन योग्य भी मानता हूँ, अनुकरणीय तो है ही।

विपश्यना मन को एकाग्र करके राग, द्वेष एवं अविद्या आदि विकारों से अपने मानस को पूरी तरह से मुक्त कर के अंतर्मन की गहराइयों तक जा कर आत्म-निरीक्षण द्वारा चित्तशुद्धि की साधना है। शिविर के कठोर अनुशासन साधना के अंग होते हैं। विपश्यना की साधना के दौरान जिन शीलों का पालन करना अनिवार्य होता है उन में से एक मैथुन से विरत रहना भी है। परंतु पुस्तक के शीर्षक 'विपश्यना में प्रेम' से यह पूर्वाभास हो जाता है कि विपश्यना के शिविर में शिविर के नियमों का उल्लंघन हुआ है। उपन्यास के नायक विनय की अनुभूति को अभिव्यक्त करती निम्नलिखित पंक्तियां दर्शाती हैं कि विपश्यना की साधना में भी व्यक्ति भयंकर उहापोह में है और स्वयं को आत्मकेंद्रित नहीं कर पा रहा है:-

‘‘अब मौन में ही सोना था, मौन में ही जगना था। मौन में ही नहाना था, मौन में ही खाना था। तो क्या मौन मन को जला डालता है? पता नहीं, पर अभी तो मौन मन को सुलगा रहा था। बिना धुएं और बिना आंच के। धीमी आंच पर जैसे सांस दहक रही थी ..."

और

"चेहरे पर भूख टंगी रहती थी किसी सिनेमा के पोस्टर की तरह।’’

उपन्यास को पढ़ते हुए जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि शिविर में केवल प्रेम ही नहीं, अपितु शारीरिक स्पर्श और संभोग भी हुआ है और संभवत: बार-बार हुआ है। उपन्यास की निम्नलिखित पंक्तियां भी यह दर्शाती हैं -

‘‘जब मन में देह का ध्यान आ जाए तो सारे ध्यान बिला जाते हैं। सारी विपश्यना बिला जाती है। बिलबिला जाती है।’’

इस तथ्य की और भी संपुष्टि मल्लिका के फ़ोन से होती है जब वह विनय से कहती है कि मैं तुम्हारे बेटे की मां बन गई हूं।

उपन्यास में इस वास्तविकता को रेखांकित किया गया है कि मनुष्य यदि ध्यान और साधना के मार्ग पर चल कर आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है तो भी वह स्वभाववश और पूर्वजन्मों के संचित कर्मों के संस्कारवश अपनी वृत्ति और प्रवृत्ति से उबर नहीं पाता है और इस प्रकार लौकिक मायाजाल में उलझ कर अपने पथ से भटक जाता है। वह साधना के संकल्प तो लेता है, उस के लिए ध्यान शिविर में भी जाता है, शिविर की कक्षाओं में आध्यात्मिक गुर भी सीखता है, फिर भी वह कामना और वासना की फिसलन से बच नहीं पाता और इस प्रकार चलता तो वह अपने ध्येय की ओर है लेकिन पहुंचता कहीं नहीं है। जब विश्वामित्र जैसे ऋषि मेनका के देहपाश में पिघल गए तो इस उपन्यास का नायक विनय यदि मल्लिका के कामपाश में पिघल और फिसल कर बह गया तो इस में आश्चर्य कुछ नहीं।

एक मुहावरा है - आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास। यहां वही हुआ है। विपश्यना से प्रेम करना था और विपश्यना में प्रेम हो गया। लीन होना था विपश्यना में और लिप्त हो गए वासना में! चले थे गंगा जल पीने और रास्ते में दारू के ठेके को देख कर लगे शराब के फेनिल बोतल को तलाशने!

अपने इस उपन्यास में दयानंद जी ने मानव की इस स्वभावगत दुर्बलता का चित्रण अत्यंतसुंदर ढंग से किया है। 

दयानंद जी की लेखनी और प्रस्तुतिकरण का कौशल या सम्मोहन, जो भी हम कहना चाहें कह सकते हैं, पाठक को पाठ से हटने नहीं देता। यह उन के कथ्यों, पात्रों और बिंबों की स्वाभाविकता और रोचकता की मदिरा का हैंगओवर है जिस के रसास्वादन का लोभ पाठकगण संवरण नहीं कर सकते। 'विपश्यना में प्रेम' उपन्यास में भी दयानंद पांडेय जी के लेखन का यह वैशिष्ट्य आदि से अंत तक अपनी सहज गति से प्रवाहमान है।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


1 comment:

  1. अभी मैंने उपन्यास तो नहीं पढ़ा लेकिन समीक्षा एं

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