Tuesday, 10 October 2023

तो क्या विपश्यना का मौन मन को जला डालता है?

अलका प्रमोद 

 ‘‘विपश्यना में  प्रेम’’ एक अद्भुत प्रयोग 

प्रतिष्ठित वरिष्ठ लोकप्रिय साहित्यकार दयानंद पाण्डेय का सद्यः प्रकाशित उपन्यास  ‘‘विपश्यना से प्रेम’’एक अद्भुत प्रयोग है जहां अलौकिक तथा लौकिक अनुभूतियों को आधार बना कर कथानक का ताना-बाना बुना गया है। इसमें विपश्यना का दर्शन भी है और स्त्री-पुरुष का प्रेम भी विद्यमान है, बुद्ध के द्वारा संन्यास लेने पर चिंतन भी है और मानवीय दुर्बलताओं का सत्य भी है। परहित हेतु निज स्वार्थ का त्याग भी है तथा निजी स्वार्थ के लिये कोई भी राह अपनाने की प्रवृत्ति भी। एक सिद्धहस्त लेखक ही इतनी विपरीत परिस्थितियों का ऐसा रोचक कथानक बुन सकता है जो पाठक को अंत तक उपन्यास को सतत पढ़ने के बाध्य कर दे। उपन्यास में विपश्यना का गूढ़ दर्शन और शिविर में आये प्रतिभागियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण लेखक की संवेदनशीलता तथा सूक्ष्म पारखी दृष्टि को सिद्ध करता है। 

उपन्यास का प्रारंभ ही विपश्यना के संसार की क्लिष्टता, मन की दुरूहता और उपन्यास के कथानक के साथ-साथ विपश्यना अर्थात अपने अंतस की ओर देखने की समांतर यात्रा को गति देता है।

लेखक उपन्यास की प्रथम पंक्ति में ही इस विपश्यना शिविर को नाम देते हैं ‘चुप की राजधानी’ जहां चुप रह कर, ध्यान लगा कर आत्ममंथन करना है। यहां नीरव शांति रहती है। उपन्यास का नायक विनय अपने जीवन की उलझनों से पलायन करके मन की शांति प्राप्त करने के लिये आया है। नायक के मन के अंतर्द्वंद्व में एक सामान्य सामाजिक व्यक्ति का प्रतिबिंब है । विपश्यना में मौन रहने की अनिवार्यता है। उपन्यास के नायक विनय को मौन रह कर स्वयं के अंतर्मन में झांकने के लिये आदेशित किया जाता है। उस के लिये सहज नहीं होता है इस परिस्थिति में ढलना। उस का मन विभिन्न दिशाओं में विचरण करता है।

 शिविर का प्रारंभ होने पर है विनय की अनुभूति को यह पंक्तियां व्यक्त करती हैं ‘‘अब मौन में ही सोना था, मौन में ही जगना था। मौन में ही नहाना था, मौन में ही खाना था। तो क्या मौन मन को जला डालता है? पता नहीं पर अभी तो मौन मन को सुलगा रहा था। बिना धुएं और बिना आंच के। धीमी आंच पर जैसे सांस दहक रही थी। मौन की मीठी आंच एक अजीब सी दुनिया में ले जा रही थी। आंखें बंद थीं और जैसे मदहोशी छा रही थी। यह कौन सी दुनिया थी? दुनिया थी कि सपना थी? सपना कि कोई और लोक? ......प्रवचन में विचारों की खिड़की थी जो भावों की शुद्धता थी और तार्किकता की जो कड़ी दर कड़ी थी, विनय को मोह गई ।.’’

एक सामान्य व्यक्ति जब विपश्यना की प्रक्रिया में प्रवेश करता है तो विपश्यना में मौन रहने के समय उस के मन में चल रहे झंझावत के सूक्ष्मतम अवयव भी लेखक की पैनी दृष्टि से बच नहीं हैं और उन्होंने मौन और तार्किक प्रवचनों के हो रहे विपरीत प्रभावों से उत्पन्न द्वंद्व को सूक्ष्मता से उकेरा है। जिस प्रकार इस उपन्यास में  विपश्यना शिविर के परिवेश का वर्णन किया है वह निश्चय ही एक शब्द चित्र प्रस्तुत करता है शिविर का। इस शिविर में विदेशी जोड़े भी हैं, देश के सुदूर क्षेत्रों से आए , हर आयु वर्ग के धनी, निर्धन, शिक्षित, अशिक्षित सभी। इस उपन्यास की पंक्तियों के अनुसार ‘‘हर कोई स्ट्रेस का मारा हुआ था।.............पर सब के सब एक साथ एक ध्येय के लिए ही आये थे -तनाव तंबू को तोड़ने।........

 विनय बुद्ध की शरण में जाने के उद्देश्य से आया पर शिविर में बुद्ध के बारे में कुछ था ही नहीं। थी तो बुद्ध की तपस्या। इस उपन्यास में बुद्ध के संन्यास को ले कर चिंतन है। विनय सोचता हैै-‘‘ डगर डगर , नगर नगर घूम कर वह सब को भूल रहे थे कि याद कर रहे थे? वह तो अपने ही को भूलना सीख रहे थे,  सिखा रहे थे कि भूल जाओ अपने आप को भी। साक्षी भाव से तटस्थ भाव से देखो। खुद को भी। दुख हो सुख हो उसे महसूस मत करो। बस देखो और आगे निकल जाओ। कितना आसान है यह बताना देखना और सिखा देना? और कितना कठिन है इसे अंगीकार करना?’’

विनय बुद्ध को भी प्रश्न के घेरे में लेते हुए सोचता है बुद्ध के महल जा कर पुत्र के मांगने पर -यदि पुत्र की जगह पुत्री होती तो क्या वह उसे भी भिक्षा में ले लेते?’’

विनय के माध्यम से लेखक ने वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में और बुद्ध की मान्यताओं पर भी प्रश्न उठाए हैं जो विचारणीय हैं। बुद्ध, यशोधरा और राहुल की मनःस्थिति और विपश्यना के भाव पर चिंतन उपन्यास में समांतर रूप से चलता रहता है।  

विपश्यना में आई एक स्त्री अचानक एक दिन शाम के सत्र में विलाप करती है -‘‘का करबे रे! का कैलेबै हमार!......अब हमार टाइम आ गइल! हमार टाइम आ गइल।’’ उसके विलाप पर कार्यकर्ता उसे उठा कर बाहर ले जाने का उपक्रम करते हैं।  तब वह कहती है‘‘ हम कहीं नाई जाब! हम सब एहीं बताइब! कुल बताइब।’’पर उसे बलपूर्वक बाहर ले जाते हैं । उसे देख कर विनय को यशोधरा का दुःख याद आ जाता है। जब एक स्त्री विलाप करती है तो सब तटस्थ क्यों रहते हैं। क्या जब यशोधरा ने विलाप किया होगा तो लुंबिनी भी तटस्थ रहा होगा ? क्या यह विपश्यना की सफलता है?

........ क्या स्त्री के विलाप में भी कोई रहस्य है, बुद्ध क्या रहस्य नहीं हैं? रहस्य ही है यह विपश्यना भी?  

विनय के मन में निरंतर प्रश्न सिर उठाते रहते हैं- विनय सोचता है कि यह ध्यान उस का अभिनय है या साधना?’’

 विनय का मन यशोधरा के दुख से द्रवित है उसके मन में निरंतर बुद्ध के संन्यास तथा यशोधरा के दर्द के संदर्भ में विचार-विमर्श चलता रहता है ।

कथानक में एक मोड़ आता है जब एक रशियन गोरी स्त्री विनय के समीप आती है तब वह संयम नहीं रख पाता।  उसका ध्यान भटक जाता है। जंगल में ध्यान करना सरल है पर जहां आकर्षण हो संयम विरले ही कर पाते हैं।  तभी तो वह उस स्त्री केे प्रेमपाश में मन के बंधन, देह के बंधन सब तोड़ देता है। जिसका नाम भी नहीं जानता, भाषा भी नहीं जानता पर तन और मन की भाषा उन को समीप ले आती है। इस उपन्यास में एक पंक्ति है-‘‘जब मन में देह का ध्यान आ जाये तो सारे ध्यान बिला जाते हैं। सारी विपश्यना बिला जाती है। बिलबिला जाती है।’’

विनय उस स्त्री का काल्पनिक नाम मल्लिका रख लेता है और अब दिन रात वह मल्लिका के साथ होता है। कभी यथार्थ में तो कभी कल्पना में। विपश्यना की गहराई में गोते लगाते-लगाते लेखक स्त्री पुरुष के दैहिक संबंधों को उकेरने लगते हैं। इस उपन्यास में विपश्यना के दर्शन के जितनी गहराई से विश्लेषण किया गया है उतने ही विस्तार से रागात्मक प्रेम तथा दैहिक संबंधों का वर्णन भी है। विनय और मल्लिका के संबंधों के प्रवाह में एक नया मोड़ तब आता है जब शिविर समाप्त होने लगता है।

कहानी जैसे-जैसे उत्कर्ष की ओर बढ़ती है धीरे-धीरे अनेक सच उद्घाटित होने लगते हैं। मनुष्य की दुर्बलता कितनी प्रबल है , सिद्ध होता जाता है। अंत होते-होते विनय को ज्ञात होता है कि वहां अधिकांश लोगों के आने का उद्देश्य तनाव से मुक्ति नहीं कुछ और होता है। उदाहरणार्थ अंग्रेज लड़का और उसकी आस्ट्रेलियन मित्र किसी तनाव को दूर करने अथवा विपश्यना का अनुभव करने इस शिविर में नहीं आए थे वरन वह भारत भ्रमण पर आए  थे तथा उन्हें रहने के लिए यह सब से सस्ती जगह लगी अतः वह आ गए। यही नहीं वह इस शिविर से न तो आत्मचिंतन कर के कुछ नया अनुभाव प्राप्त करते हैं न ही आत्मज्ञान। उन का टूरिज्म का व्यापार है और इस शिविर को भी वह अपने पैकेज में एक आकर्षण के रूप में जोड़ने की योजना बनाते हैं।

यही नहीं महाराष्ट्र से आया कई लोगों का समूह भी इस शिविर में मात्र इस लिए आया था कि महाराष्ट्र सरकार ने इस विपश्यना शिविर के लिए छुट्टी तथा विशेष अलाउंस देने की योजना घोषित की थी। जैसे ही उन पर से मौन का बंधन समाप्त होता है वह बिना किसी की सुविधा की चिंता किये शोर और हंगामा करने लगते हैं। किसी विदेशी  जोड़े को संबंध स्थापित करने के लिए, किसी को समलैंगिकता के लिए नियम तोड़ने पर बाहर किया गया।

विनय को आघात तो तब लगता है जब उस की प्रेमिका जिसे वह मन ही मन मल्लिका कहता था अपने पति से मिलवाती है जो इस शिविर में ही था। उसकी मल्लिका का वास्तविक नाम दारिया है। इस अप्रत्याशित तथ्य ने विनय को आहत भी किया और आश्चर्यचकित भी। परंतु उपन्यास का चरमोत्कर्ष तो अभी शेष था और यही उपन्यास की तथा लेखक की सफलता है कि अप्रत्याशित चरमोत्कर्ष पाठको को चौंका देता है। 

शिविर से लौटने के कुछ समय बाद विनय को ज्ञात होता है कि दारिया ने उसके बच्चे के जन्म दिया है तथा उसका पति संतानोत्पत्ति में असमर्थ था अतः वह संतान की आकांक्षा में ही सुनियोजित ढंग से विनय के समीप आयी थी। इस उपन्यास की कथावस्तु रोचक है तथा अपनी राह से बंधी नदी सी प्रवाहित होती है।  कहीं विचलित नहीं होती। पात्रों का मनोविश्लेषण सूक्ष्म है। उपन्यास में सरल-सहज स्वाभाविक भाषा इसकी संप्रेषणीयता के बढ़ाती हैं तथा यदा-कदा आंचलिक शब्द भावों की बोधगम्यता के बढ़ाते हैं। उदाहरणार्थ -‘‘वह जैसे अफना जाता है।’’

कहीं-कहीं भाषा मन के भावों को चित्रित करती सी लगती है-

‘‘चेहरे पर भूख टंगी रहती थी किसी सिनेमा के पोस्टर की तरह। ’’

उपन्यास में विपश्यना शिविर का जो परिदृश्य प्रस्तुत किया है वह बिना शिविर में गये वहाँ के वातावरण के समझने के लिए पर्याप्त है। यथा- ‘‘आदमी तो आदमी, पेड़ पौधे ,फूल, पत्ते, प्रकृति, वनस्पति सब चुप थे। जाने क्यों कोई चिड़िया भी नहीं चहकती थी। न भीतर की आवाज़ बाहर जाती थी, न बाहर की आवाज़ भीतर।....’’

रोचकता और जिज्ञासा इस उपन्यास की विशेषता है। चरमोत्कर्ष पाठक को चौंकाता ही नहीं वरन चकित भी करता है। उपन्यास के कथानक की बुनावट जहाँ पाठक को आद्योपांत बांधे रखने में सफल है , वहीं विपश्यना का गूढ़ दर्शन तथा मानवीय दुर्बलताओं का सच पाठक को आत्मचिंतन करने के संदेश को भी संप्रेषित करता है। निश्चय ही यह अद्वितीय उपन्यास पठनीय है । उपन्यास की लोकप्रियता की शुभाकांक्षा के साथ  लेखक को हार्दिक बधाई!


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl

2 comments:

  1. इस उपन्यास का ताना बाना लीक से हटकर एक नये विषय पर बुना गया है जो हमें भावों और विचारों की धरती की सैर कराता है। हम सुधी पाठकों से एक बार इसे पढने का सुझाव जरूर देंगे

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