Tuesday 10 October 2023

चुप की राजधानी में प्रेम के सुर और ताल की युगलबंदी

सुधा आदेश  

वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार, श्री दयानन्द पाड़ेय जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वह साहित्य के नामचीन हस्ताक्षर हैं। बेबाक लेखनी के धनी श्री दयानन्द जी के करकमलों ने अब तक 75 पुस्तकों की रचना की है। कहानी संग्रह और उपन्यास के अतिरिक्त उन्होंने महान साहित्यकारों, राजनीतिज्ञों, अपने क्षेत्रों के नामी व्यक्तियों के साथ फिल्म जगत की जानी-मानी हस्तियों के साक्षात्कार लिये हैं। उनके ब्लॉग सरोकारनामा को अब तक 12 लाख से अधिक लोग पढ़ चुके हैं।

आपके उपन्यासों के विषय बहुआयामी हैं। वह किसी लीक पर चलते हुए नहीं लिखते। वह अपनी लेखनी के द्वारा सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था पर चोट करते हुये व्यक्ति और समाज को कटघरे में खड़ा करने से भी नहीं चूकते। ‘अपने-अपने युद्ध’ उपन्यास के लिये तो उन्हें कोर्ट, कचहरी के चक्कर भी काटने पड़े थे पर वे विचलित नहीं हुये अंततः सफलता मिली। ‘सांच को आंच नहीं’ उक्ति पर चलने वाले दयानंद जी ने कभी अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता नहीं किया। इस बार उनकी कलम ने लीक से हटकर उपन्यास रचा है...विपश्यना में प्रेम। उपन्यास का नाम आकर्षित करने वाला है...विपश्यना में प्रेम।

विपश्यना और प्रेम दोनों अलग-अलग चीजें हैं किन्तु दोनों का उद्देश्य एक ही है स्वयं को स्वयं में विलीन कर अहंकार का त्याग कर मन को शुद्ध करना। सच्चे प्रेम में व्यक्ति सुध-बुध खो बैठता है, सकारात्मक रहता है। विपश्यना केंद्रों का उद्देश्य भी यही है कि व्यक्ति जब शिक्षा लेकर बाहर निकले तो तन-मन से शुद्ध हो।

जीवन के तनावों, असंतोष से विगलित व्यक्ति अंततः शांति के लिये विपश्यना केंद्र की ओर रुख करता है। शांति मिले या न मिले लेकिन समाज से कट कर रहने का अनुभव लेकर अवश्य आता है क्योंकि मोबाइल, लैपटाप से दूरी, अपनों से दूरी आज के युग में आसान नहीं है। इसके साथ ही खान-पान में सात्विकता का पालन कष्टदाई प्रक्रिया से गुजरने जैसा है। इसका परिचय सुधी लेखक ने अपने पाठकों को इस उपन्यास के माध्यम से समय-समय पर दिया है।

भगवान बुद्ध को जब आत्मज्ञान प्राप्त हुआ तब उन्होंने संसार को अपने ज्ञान को देने के लिये जिस पद्यति को चुना उसे उन्होंने विपश्यना नाम दिया। विपश्यना का अर्थ है चीजों को वैसे ही देखना जैसी वह वास्तव में हैं। विपश्यना ध्यान का एक रूप है। दूसरे शब्दों में विपश्यना स्वयं की स्वयं से खोज है। यह बिना किसी निर्णय के स्वयं का निरीक्षण करने का तरीका है। इसे आत्मज्ञान प्राप्त करने में सहायक माना जाता है।

इस उपन्यास का नायक भी घर की परिस्थतियों से परेशान होकर शांति की प्राप्ति के लिये भगवान बुद्ध की तपोस्थली की गोद में बसे सुदूर गांव में एकांत में स्थित विपश्यना शिविर में गया है। जहाँ नदी है नहर है, पेड़-पौधे हैं, बस उन्हीं की आवाज है। लेखक के अनुसार न भीतर की आवाज बाहर जाती थी न बाहर की आवाज भीतर। अगर कोई आवाज कभी-कभार सुनाई पड़ती थी तो आचार्य की। निर्देशों की झड़ी सी। या फिर घंटे या घंटी की। या लिखित निर्देश थे, जिनको पढ़कर मान लेना और जान लेना था। लेकिन उसका इजहार संकेतों में भी नहीं करना था। आँखों-आँखों या संकेतों में भी किसी से कुछ कहना सुनना नियमों की अवहेलना थी। आपको शिविर से बाहर जाने का आदेश मिल सकता था। मौन में ही खाना, सोना और जगना था।

इस विपश्यना शिविर में जो घंटा बजता है, वह कभी स्कूल के घंटे की याद दिलाता है तो कभी जेल के घंटे के घंटे की याद। स्कूल में क्लास और विषय की बात घंटे से समझ में आती है। जेल में उठने, सोने, खाने का घंटा बजता है। तो क्या यह एक किस्म की जेल है? ऐसी जेल जिसमें बतियाना,मिलना आदि निषेध है। ऐसे गोया सिगरेट के डिब्बे और शराब की बोतल पर इंज्यूरियस फॉर हेल्थ लिखा होता है। सिगरेट और शराब फिर भी लोग पीते हैं।

शायद इसीलिए लेखक ने विपश्यना केंद्र को ‘चुप की राजधानी’ कहा है क्योंकि यहाँ किसी को किसी से बात करने की आजादी नहीं है।

इतनी कठिन दिनचर्या तथा नियमों के बावजूद दिल तो दिल ही है। चुप की राजधानी में न जाने कब और कैसे विनय और इस शिविर में आई रूसी स्त्री के मध्य प्रेम की कली खिल उठी। वह उसे अच्छी लगने लगी, मौन तथा एक दूसरे की भाषा न आने के कारण संवाद नहीं हो पाया किन्तु देह ने गुस्ताखी की और विनय का मल्लिका असली नाम दारिया से मिलन हो गया।

 चुप की राजधानी में छिपते-छिपाते प्रेम के सुर और ताल की युगलबंदी चल ही रही थी कि एक दिन प्रवचन सत्र के पश्चात घोषणा हुई कि साधकों की साधना अब आज पूरी हुई। यह सुनते ही विनय का दिल धक से रह गया। इतनी जल्दी कैसे ख़त्म हो गई साधना।

लेखक के शब्दों में- यह तो ठीक नहीं हुआ। जीना आया जब तलक तो ज़िंदगी फिसल गई वाली बात हो गई यह तो। कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे वाली बात हो गई। अब तो विपश्यना की साधना का स्वर समझ आ रहा था। शुरू के दिन तो समझने और सीखने में खर्च हो गए। अब साधना के दिन आए तो साधना के सत्र ही समाप्त हो गए। यह क्या बात हुई भला। साधना, मल्लिका की साधना में उसने दिन ही गिनने छोड़ दिए थे। उसे अपने एक आई. ए. एस. मित्र की याद आ गई। वह कहते जब किसी विभाग में ट्रांसफर होता है तो थोड़ा समय लगता है वहां का कामकाज समझने-जानने में। जब कामकाज समझ में आने लगता है, तभी फिर ट्रांसफर हो जाता है। किसी दूसरे विभाग में। काम क्या ख़ाक करेंगे। यहां विनय के साथ भी यही हो गया है। ध्यान जब समझ आ गया तो ख़त्म। विनय को ध्यान ही नहीं, मल्लिका से बिछड़ने का भी मलाल हो रहा है। लेकिन वह क्या करे अब। कर भी क्या सकता है।

साधना समाप्ति के अंतिम दिनों में एक दूसरे से मिलने तथा फोन नंबरों के आदान प्रदान की छूट मिल गई थी। लेखक ने लंदन के लड़के जो विनय को सदा पुत्र समान आदर देता रहा था तथा उसकी आस्ट्रेलियाई प्रेमिका के बारे में बताते हुये लिखा है कि यहाँ लोग सिर्फ मन के तनाव, अवसाद से दूर जाने के लिये नहीं आते, कुछ तो समय पास करने और इंज्वाय करने आते हैं क्योंकि यह सस्ती जगह है। उस युगल की टूरिज्म एजेंसी थी जिसके लिये वे भारत आये थे। समय बचा था, सबसे सस्ती जगह यही लगी अतः यहाँ आ गये। एक तरफ वह तजुर्बा मिलने की बात करता है तो दूसरी तरफ इस पद्यति का मजाक बनाता है जो विनय को अच्छा नहीं लगा।

शिविर में देश-विदेश के अनेक व्यक्ति थे। लेखक ने शिविर के नियमों, अनुशासन तथा रहन-सहन, खान-पान का ऐसे वर्णन किया है कि पाठक भी विपश्यना केंद्र के सुरम्य वातावरण में रच बस जाता है। उसे लगता है कि केवल विनय या अन्य व्यक्ति ही नहीं वह स्वयं भी इस शिविर का हिस्सा है।

नियमानुसार विनय और दरिया को भी शिविर छोड़कर जाना ही था। गुस्ताख मिलन की दोनों को क्या सजा मिली, मैं इसके बारे ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहूंगी क्योंकि पर्दे के पीछे छिपी वस्तु लोगों को अधिक आकर्षित करती है। इस रहस्य को जानने के लिये आप सभी को ‘विपश्यना में प्रेम’ उपन्यास अवश्य ही पढ़ना चाहिये।

कथ्य और शिल्प के साथ भाषाई वैशिष्ट्य से सजा, रोचकता तथा रोमांच से भरपूर ‘विपश्यना में प्रेम’ उपन्यास पाठकों को बांधे रहने की क्षमता रखता है।

दयानंद पांडेय जी का ‘विपश्यना में प्रेम’ लीक से हटकर उपन्यास है जो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। आकर्षक मुखपृष्ठ 106 पृष्ठ की पेपरबैक तथा हार्ड बाउंड की इस पुस्तक का मूल्य क्रमशः 299 तथा 499 है।

मैं आ0 दयानंद पाडेयजी को साहित्य जगत को अनमोल कृति देने के लिये साधुवाद देती हूँ तथा कामना करती हूँ कि उनकी कलम से और भी कालजई रचनायेँ  निकलकर साहित्यजगत को समृद्ध करती रहेंगी।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl

 

 

 

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