Friday, 27 October 2023

विपश्यना में प्रेम और अश्वघोष के बुद्ध चरितम् महाकाव्य का स्मरण

राजकमल गोस्वामी 

विपश्यना में प्रेम एक सहज पठनीय उपन्यास है जो लंबा और उबाऊ नहीं है अपितु पाठक को आदि से अंत तक बांधे रहता है। साधना के मार्ग में क्या-क्या और कैसी-कैसी बाधाएं आती हैं ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने उन का स्वयं अनुभव किया हो। कभी अश्वघोष का बुद्ध चरितम् महाकाव्य पढ़ा था जिस में एक सर्ग बुद्ध की मार विजय को समर्पित है। अरति प्रीति और तृषा मार की पुत्रियां हैं जिन की सहायता से मार बुद्ध की तपस्या भंग करने की चेष्टा करता है। समकालीन युग में मार किसी गंभीर साधक को कैसे राह से भटकाता है इस उपन्यास को पढ़ कर उस का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। प्रतीकात्मक रूप से मार की सेना विभिन्न चरित्रों के रूप में उपन्यास में मौजूद है । 

विपश्यना एक बौद्ध साधना पद्धति है जो योग से थोड़ा भिन्न है और समय साध्य है। इस में प्राणायाम कुंभक रेचक आदि नहीं करना होता बस नासापुटों से आती-जाती श्वांस को साक्षी भाव से देखना होता है। मन इधर-उधर भागता है लेकिन उसे भी भागते हुए साक्षी भाव से ही देखना होता है। धीरे-धीरे मन की दबी कुचली वासनाएं और कुंठाएं  शांत होने लगती हैं और कभी-कभी आवेग के रूप में बाहर भी निकल आती हैं । कुछ लोग ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने  चिल्लाने भी लगते हैं पर ऐसा अपवाद स्वरूप ही होता है । 

उपन्यास में ऐसे ही एक शिविर का जीवंत वर्णन किया गया है। पाठक पढ़ते-पढ़ते उसी लोक में पहुंच जाता है । पात्रों का चयन इस प्रकार किया गया है कि साधक के भटकते हुए मन का सटीक विश्लेषण किया जा सके। बौद्ध कार्य कारण श्रृंखला के अनुसार पहले इंद्रियां विषयों के संपर्क में आती हैं जिस से अनुभूति या मन में वेदना उत्पन्न होती है जो आसक्ति को जन्म देती है। अंततः संसार चक्र में पड़ कर संस्कारों के वशीभूत हो कर यह कार्य कारण  श्रृंखला मनुष्य को पुनर्जन्म की ओर ले जाती है ।

शिविर में सारी इंद्रियों के लिए विषय मौजूद हैं। पहले बौद्ध संघ में नारी का प्रवेश वर्जित था लेकिन स्वयं बुद्ध ने ही अपनी मौसी महाप्रजापति गौतमी के आग्रह पर उन्हें प्रवेश दे कर यह प्रतिबंध उठा लिया । नारी के प्रवेश के बाद बौद्ध साधकों की राह और कठिन हो गई जो संप्रति इस विपश्यना शिविर में भी दिखाई देती है । 

शिविर का अनुशासन आचार्य के निर्देश और कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें लागू करने का प्रयास अपनी जगह है पर मन किसी का नियंत्रण में आता दिखाई नहीं देता। चाहे वह ऑस्ट्रेलियाई लड़की हो लंदन वाला लड़का हो या सिंगापुरी भगवाधारी साधु। उपन्यास का नायक विनय भी मन में भारी अंतर्द्वंद्व के बावजूद रूसी स्त्री के प्रति आसक्त हो ही जाता है। बौद्ध साधक ब्रह्म और आत्मा पर तो विश्वास नहीं करते पर निर्वाण और पुनर्जन्म पर पूरी आस्था रखते हैं । कभी विश्वामित्र ने सोचा होगा कि ब्रह्म तो कहीं भागा नहीं जा रहा पर मेनका लौट गई तो फिर नहीं मिलने वाली ।  विनय कुछ इसी तरह की मनःस्थिति से गुजरते हुए मल्लिका की अलकों में उलझ जाता है ।

उपन्यास की भाषा बहुत सहज है और शैली दृष्टांतपरक है। चुप की राजधानी और बटलोई में अदहन जैसी उपमाएं सारी परिस्थितियों को स्वयं प्रकट कर देती हैं। मौन और स्थिरता में मन की चंचलता और शरीर की दुखन मिल कर साधक की राह कैसे कठिन बना देती हैं, साधक का मन यशोधरा और सीता की मनोदशा की ओर भटक जाता है उस का स्वयं का ध्यान धरा रह जाता है ।

उपन्यास विभिन्न चरित्रों के माध्यम से पाठक को बांधे रहता है। मैं एक ही बार में आद्योपांत उपन्यास को पढ़ गया। अंत तक पहुंचते-पहुंचते मुझे फिर बुद्ध का स्मरण हो आया। पुत्र जन्म की शुभ सूचना मिलने पर सिद्धार्थ के मुंह  से अनायास ही निकला “ राहु जातो बंधनम् जातम्” । इसी वाक्य को ले कर दादा शुद्धोदन ने बालक का नाम राहुल रख दिया। उपन्यासकार ने एक अनूठा विषय चुना है। आध्यात्मिक समस्याओं पर उपन्यास कम ही लिखे जाते हैं। कभी चित्रलेखा पढ़ा था या अब विपश्यना में प्रेम पढ़ रहा हूं। कामना है कि लेखक का यश इस उपन्यास के माध्यम से चंदन की तरह महके ।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl



2 comments:

  1. निस्सन्देह अध्यात्मिक विषय पर उपन्यास लिखना और उसकी समीक्षा लिखना दोनो दुरूह कार्य है । यह प्रयास सराहनीय है । मुझे पूरा विश्वास है कि इस सारगर्भित रचना से पाठक लाभान्वित होंगें .

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  2. समीक्षा सार गर्भित बन पड़ी है।पुस्तक पढ़ना है।

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