Sunday 1 October 2023

घृणा और नफ़रत में डूबे लोगों के डर का वितान

दयानंद पांडेय 

एक मूर्ख है नरेंद्र मोदी जो दिन रात सब का विश्वास जीतने की बात करता रहता है। दूसरी तरफ पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी से लगायत कुछ अभिनेता , लेखक , पत्रकार तक जब-तब देश में डरने की बात बहुत बहादुरी से करते रहते हैं। हामिद अंसारी टाइप ही नहीं घृणा और नफ़रत की खेती करने वाले तो कुछ ऐसे लोग भी हैं किसी की कलाई में रक्षा सूत्र या कलावा देख कर भी डरने लगे हैं। डरने लगे हैं कि कलाई में कलावा बांध कर बैठने वाला कहीं उसे मोबाइल में टेलीग्राफ़ पढ़ते देख ले तो ? वह उसे मार तो नहीं डालेगा ? बताते चलें कि कभी कुछ बीमार जैसे एन डी टी वी पर रवीश कुमार के प्राइम टाइम में अपनी कुंठा और हताशा विगलित करते हुए अपनी दवा तलाशते थे , अपना सूर्योदय तलाशते , सूर्योदय की आस बांधते थे। भरी दुपहरिया में रात देखते थे ठीक उसी तरह ,  कुछ उसी तरह के बीमार टेलीग्राफ़ अख़बार में अपनी दवा तलाशते , सूर्योदय की आस बांधते हैं। भरी दुपहरिया में रात देखते हैं। वही और ऐसे ही लोग अब लिख रहे हैं : 

मेट्रो में बगल में बैठा यात्री कुछ न बोले, तब भी उसकी कलाई देखकर डर पैदा होता है कि कहीं मोबाइल पर टेलीग्राफ पढ़ना महंगा न पड़ जाए !

अदभुत है यह डर। सिर तन से जुदा की मुहिम से यह लोग नहीं डरते। किसी दहशतगर्द टोपी , किसी खालिस्तानी पगड़ी या पादरी से नहीं डरते। पर किसी की कलाई पर कलावा देख कर डर जाते हैं। काले धागे से डर जाते हैं। टेलीग्राफ़ अख़बार पढ़ते समय यह कलावा वाला उन्हें देख ले तो डर जाते हैं। पाक़ीज़ा फ़िल्म में राजकुमार के हिस्से का एक संवाद याद आता है : अफ़सोस कि लोग दूध से भी जल जाते हैं। 

एक तरफ यह डरने वाली जमात है , घृणा और नफ़रत है। दूसरी तरफ सब का विश्वास जीतने का भ्रम भूजता एक मूर्ख नरेंद्र मोदी है। तीसरी तरफ मोहब्बत की दुकान खोल कर बैठा एक मूर्ख टाइप का धूर्त है। स्पष्ट है कि कलाई पर कलावा देख कर डरने वाली जमात मोहब्बत की दुकान से मोहब्बत ख़रीदने की पैरोकार है। अपने को बुद्धिजीवी बताती है। कम्युनिस्ट होने का चोंगा पहन कर मोहब्बत की दुकान की मार्केटिंग करती है। किसी विज्ञापन एजेंसी की तरह। 

एक चित्रकार मित्र रवि प्रकाश सिंह की राय है कि नरेंद्र मोदी को ऐसे लोगों का विश्वास जीतने की जगह इन की खाल खींच लेनी चाहिए। शेर की खाल ओढ़े ऐसे सियारों की तबीयत हरी कर देनी चाहिए। यहां पढ़िए एक पत्रकार प्रदीप कुमार के डर के बारे में जो उन्हों ने ख़ुद लिखा है। पढ़िए और सोचिए कि इसे डर कहते हैं या घृणा। कि एजेंडा ऐसे ही सेट होता है। बिना लाऊड हुए ज़हर ऐसे ही बोया जाता है। नैरेटिव ऐसे ही सेट किया जाता है। बहुत ही सॉफ़्ट और सलीक़े से। आहिस्ता-आहिस्ता ! इन की इस मासूमियत को सलाम कीजिए। सारी , लाल सलाम !

काला धागा, लाल कलावा

प्रदीप कुमार

हमारे बचपन में अवध के गांवों, कस्बों व शहरों में माताएं, शिशुओं को नहलाने-धुलाने, साफ कपड़ा पहनाने और  घर में पारा हुआ काजल लगाने के बाद माथे पर भी हल्का-सा निशान लगा दिया करती थीं। परिवार बड़ा हुआ और सभी एक ही परिसर में रहते थे तो भाभियां, चाचियां, ताइयां और दादियां दूसरे बच्चों के भी काजल लगाकर, माथे पर निशान बनाना नहीं भूलती थीं बल्कि बच्चे खुद ही घेरकर खड़े हो जाते थे। खेलने के लिए इकट्ठा होने वाले सभी बच्चों के काजल लगा रहता था। अगर किसी के गहरा काजल लगा है, तो सभी बच्चे  उसे ‘ कजरबिलौटा डोड्ढवा ‘ कहकर चिढ़ाते थे। माथे पर काजल को अनखा कहते थे। बच्चों में इतना अंधविश्वास भर दिया जाता कि सुबह से रात तक कोई आंख नहीं धोता था; काजल हटा कि नज़र लगी। नज़र लगी तो बीमारी पकड़ लेगी,यहां तक कि बनकटा की चुड़ैल भी सताएगी। हाल यह था कि हमारे गांव के प्रायमरी स्कूल में हिंदू- मुसलमान, तथाकथित ऊंची और नीची जातियों के हर बच्चे की आंखों में काजल भरा रहता। जूनियर हाई स्कूल बन जाने के बाद देखा कि ज़्यादातर बच्चों की आंखें नकली- कजरारी होती थीं। प्रायमरी हेल्थ सेंटर खुलने पर पहली बार गांव एमबीबीएस डाक्टर से रू-ब-रू हुआ। सभी ने सुन रखा था कि एमबीबीएस तोप चीज़ होता है और भगवान जिसकी उम्र पूरी कर देते हैं, वही उसकी दवा से चंगा नहीं होता लेकिन काजल न लगाने की इसी डाक्टर की सलाह अनसुनी कर दी जाती थी।

इधर करीब दस साल से अनखा उम्र की सीमाएं तोड़ते हुए, माथे से उतर कर टखने पर आ गया है। सिंथेटिक धागे से बना, बिना घुंघरू के पायल की शक्ल का यह अनखा ( मैंने काले धागे के अलावा इसका कोई नाम नहीं सुना है ,इसलिए अनखा कहने की गुस्ताखी के लिए माफी चाहता हूं ) टिकाऊ होता है और मोहल्ले में किराने की दुकानों पर आसानी से मिल जाता है। बकौल एक दुकानदार इसकी बिक्री दिन-ब-दिन बढ़ रही है। मेरी निगाह महिलाओं, खासतौर से प्रौढ़ाओं और लड़कियों के टखनों पर कबसे टिकने लगी, ठीक से नहीं बता सकता। अपनी सोसाइटी से लेकर आसपास के मालों, कनाट प्लेस, खान मार्केट, बंगाली मार्केट और अन्य इलाकों में ऊंचा ट्राउज़र पहने महिलाओं व बाइक पर क्रास-लेग बैठी लड़कियों के टखनों पर मेरी निगाह बरबस चली जाती है। उम्र के इस मोड़ पर, पूरी तरह हमसाया बन चुकी पत्नी, रानी शुरू में झल्लाकर कहती थीं :   

' तुम्हें शर्म नहीं आती, क्या ताका करते हो?' कई बार डाट खाने के बाद मैंने रहस्य बताया ।अब वह भी इस क्रिया में भागीदार होती हैं। बेटी पूजा तो बड़ी बेतकल्लुफ़ी से साथ देती है। बस उसकी रनिंग कमेंटरी मुझे हमेशा अच्छी नहीं लगती। तो मित्रो, मेरे सर्वे का मोटा-मोटी नतीजा यह है: दस में औसतन तीन-चार महिलाओं के टखनों को अनखा सुशोभित करता है। दस में एक-आध लड़के भी अनखे से अमंगल दूर करने लगे हैं।  

वर्ग, जाति और धर्म की हदें तोड़कर अनखा भौगोलिक सीमाएं भी तोड़ने लगा है। कुछ महीने पहले की बात है, रानी के साथ मैं कोषीकोड के समुद्री तट पर पर बैठा था। अचानक कुलीन दिख रही, दो लड़कियां सामने आईं। बीबीए कर रही ये लड़कियां कालेज समारोह के लिए चंदा एकत्र कर रही थीं। आदतन मेरी निगाह उनके टखनों पर पहुंच गई। एक के टखने पर काला धागा बंधा हुआ था। नफीस अंग्रेजी बोल रही इस  लड़की से मैंने कहा, चंदा दे दूंगा मगर दो-चार मिनट बात करनी पड़ेगी। शर्माते हुए, इस ईसाई लड़की ने बताया कि मैं तो फैशन में काला धागा बांधती हूं, ज्यादा संख्या में तो नहीं पर कालेज में और लड़कियां भी इसे बांधती हैं। तबसे किसी और राज्य में जाना नहीं हुआ। फिलहाल गौरतलब यह है कि कि केरल को उच्चतम शिक्षा दर का श्रेय प्राप्त है।

बाल्यावस्था में अपने या रिश्तेदारी के गांवों में लाल कलावा अदृश्य शक्ति से सामूहिक सुरक्षा की प्रार्थना का भाव जगाता था। साल में कई बार तो हमारे ही गांव में सत्यनारायण की कथा होती थी। कुछ खाते-पीते परिवार नई फसल घर आने पर कथा करवाते और नजदीकी घरों को खाने पर बुलाते थे। मुकदमा जीतने पर भी कथा और दावत की परंपरा थी। कथा समाप्ति के साथ पंडित जी पूरी ताकत से शंख और उन्हें घेरे घर-जवार के बच्चे झूम-झूमकर घंटा बजाते थे। फिर नंबर आता कलावा बंधवाने का।अनुसूचित जाति वालों को कलावा बांधने के लिए पंडित जी नहीं बुलाते। वे छह-सात फुट की दूरी से ही भक्तिरस में डूबे रहते। रक्षा बंधन के दिन भी कलावा बांधने-बंधवाने की धूम रहती। शुरुआत होती पंडितजी की राखी से। पंडितजी इस दिन भी अनुसूचित जातियों को दूर रखते। अपवाद थे हमारे लछमन चच्चा। पंडितजी उनके नहीं, तेल पिलाई उनकी लाठी के राखी बांध दिया करते थे। वजह यह थी कि गन्ने के खेत में ऐसी-वैसी हरकत करने पर पंडितजी जब घिर गए थे, इसी लाठी ने उन्हें बेआबरू होने से बचाया था। पंडितजी जिस किसी के कलावा बांधते, यह चेतावनी अवश्य देते: मैदान जाने से पहले इसे उतार देना, नहीं तो कलावा का प्रभाव समाप्त हो जाएगा। इसी लिए हमने कलाइयों पर सिर्फ चटख रंग के धागे देखे।बस अपवाद थी लछमन चच्चा की लाठी।

रक्षा सूत्र से वास्तव में रक्षा होती है,बाबू के प्रभाव में यह विश्वास कभी नहीं हो पाया लेकिन दहशत नहीं होती थी। पंडित जी जाति और धर्म देख कर राखी बांधते थे। फिर भी ये धागे नफरत नहीं पैदा करते थे। सूनी कलाई वाले बेखौफ रहते थे। इधर कुछ वर्षों से रक्षा सूत्र का रक्षा बंधन या कथा-कीर्तन की सीमाओं से आगे विस्तार होता रहा है। टीवी चैनलों पर, लाल-लाल धागों से आभूषित, आगबबूला लोगों के फड़कते भुजदंड खौफ पैदा कर देते हैं, यह जानते हुए भी कि टीवी के पर्दे से ये बाहर नहीं आ सकते। मगर घर से निकलते ही तो इन्हीं  सबका सामना करना पड़ता है। सबसे पहले अपनी सोसाइटी में देखता हूं,चलने को तरसने वाले लोग भी कलाइयों की नुमाइश करते हुए चलते हैं। सालों को, एक-एक करके गोली मार देना चाहिए- यह प्रिय जुमला हो गया है। मेट्रो में बगल में बैठा यात्री कुछ न बोले, तब भी उसकी कलाई देखकर डर पैदा होता है कि कहीं मोबाइल पर टेलीग्राफ पढ़ना महंगा न पड़ जाए!


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