मीनाधर पाठक
‘विपश्यना में प्रेम’ शीर्षक पढ़ कर मेरा पाठक मन तनिक चौंकता है। विपश्यना से प्रेम तो ठीक है परंतु विपश्यना में प्रेम...! विपश्यना तो स्वयं से स्वयं का वार्तालाप है, स्वयं को जानने की प्रक्रिया, स्वयं को साधने की प्रक्रिया, स्वयं में उतर कर श्वांसों को गिनने की प्रक्रिया, स्वयं से एक मौन साक्षात्कार या बंद आंखों से ब्रह्मांड को देखने की प्रक्रिया है। बंद पलकों के भीतर कुछ पल के अंधकार के बाद एक प्रकाश का फ़ूटना और इस प्रकाश में उतरना एक अद्भुत अनुभव है। विपश्यना स्वयं से प्रेम का उत्सव है। आनंद का उत्सव है।
उत्सुकता और जिज्ञासावश मेरा पाठक मन कहानी का सिरा थमता है और उतरने लगता है कहानी के भीतर जहां एक मौन का पसारा है। सभी चुप हैं। किसी के पास संचार का कोई साधन नहीं है। यहां तक कि पेन-पेंसिल तक नहीं। मात्र दृश्य हैं। शब्द रहित दृश्य। पर इस चुप की राजधानी में एक शोर है। विचलन है। मौन में चीखें हैं। रुदन हैं, जो शिविर के मौन द्रष्टा साधकों के साथ पाठक को भी विचलित करते हैं।
होंठों का सिल जाना या लेना ही चुप नहीं होता। होंठों में सिमटे-बटुरे वे सारे शब्द मन में कोलाहल किए रहते हैं। जब तक भीतर का कोलाहल शांत नहीं होता, हम किसी ध्यान की प्रक्रिया में नहीं उतर सकते। कहानी का नायक विनय के भीतर भी एक कोलाहल है, विचलन है या आचार्य की भाषा में कहें, तो विकार है। जिस कारण वह ध्यान में नहीं उतर पाता। वह शिविर यानी चुप की राजधानी से भाग जाना चाहता है पर उस के द्वारा भरा गया बांड और वहां का अनुशासन उसे रोक लेता है।
उपन्यास की कहानी नायक प्रधान है। वही सूत्रधार भी है। या यह कहें कि पूरी कहानी नायक के ‘मैं’ में स्थित है। उस का सोना, जागना। उस की स्मृतियां। उस का अतीत और वर्तमान में आवागमन। इन सब के साथ-साथ कहानी में पात्र भी आते-जाते रहते हैं। उपन्यास पढ़ते हुए ‘दिल एक मंदिर’ फ़िल्म की याद ताज़ा हो जाती है। एक हस्पताल में पूरी फ़िल्म फ़िल्माई गई है। हां , दर्शकों को कुछ पल के लिए नायक-नायिका के अतीत के दृश्य हस्पताल के बाहर ले जाते हैं। कुछ इसी तरह यह पूरा उपन्यास विपश्यना शिविर (आश्रम) है या विपश्यना शिविर ही उपन्यास है परंतु लेखक का लेखन कौशल है कि पाठक को कहीं भी ऊब का अनुभव नहीं होता। वह शिविर के नियम, क़ानून, आना-पान, प्रवचन और वहां के देखे हुए को ऐसे रचता है कि पाठक स्वयं को विपश्यना शिविर में ही पाता है। शिविर को रचते-रचते वह स्मृतियों में आवाजाही भी करता है।
उपन्यास में संवाद बहुत कम हैं। बल्कि न के बराबर। परंतु कहानी में एक रिदम है जो अपने साथ पाठक को बांधे रखती है। कहीं भी कहानी का प्रवाह थमता प्रतीत नहीं होता। जैसे कोई पहाड़ी नदी अपनी ही रौ में बहती जाती है, कहानी भी अपने गंतव्य की ओर अग्रसर रहती है। नायक ‘मैं’ को थामें बड़ी आसानी से कहानी के भीतर-बाहर आवागमन करता है। कभी बुद्ध-यशोधरा, तो कभी सीता-लक्ष्मण संवाद, तो कभी एनसीसी कैंप, तो कभी गांव में स्त्रियों का खेलना, इन सब के बाद भी लेखक की क़लम कहानी का सिरा कहीं छूटने नहीं देती। न ही ढील देती है।
परंतु कहानी पढ़ते हुए कुछेक स्थान पर मन में अरुचि-सी उत्पन्न होती है। कथा प्रवाह में कोई घटना अचानक परिस्थितिजन्य घट जाए तो स्वाभाविक लगती है परंतु बार-बार एक ही घटना की पुनरावृत्ति मन को जुगुप्सा से भर देती है। हरेक स्थान की अपनी गरिमा, अपनी मर्यादा और एक सीमा रेखा होती है, जो उपन्यास में बार-बार खंडित होती दीख पड़ती है। यहां पर एक बात चौंकाती है कि कोई उन्हें देख नहीं पाता जब कि शिविर में जो फ्रांसीसी है, वह अकसर एकांत की तलाश या प्रकृति के मोह में झाड़ या छोटे वृक्षों के पास चला जाता है। ख़ैर...!
मुझे लगता है कि कोई कहानी हो या उपन्यास, पाठकों को बांधे रखने में उस की सब से बड़ी सफलता होती है। ‘विपश्यना में प्रेम’ का धागा हाथ में एक बार थामने के बाद तभी छूटता है जब धागे का दूसरा सिरा आप के हाथ में आ जाता है। परंतु मेरे पाठक मन को शीर्षक की सार्थकता फिर भी समझ नहीं आती। यहां प्रेम कहां है ? यहां या तो मातृत्व की चाहना है या मनोविकार, प्रेम तो नहीं ही है। ऐसा मुझे लगता है। मेरी दृष्टि में विपश्यना एक साधना है और साधना के मार्ग में यदि मन चंचल हो जाय तो असंख्य विघ्न-बाधाएं उत्पन्न करता है। जैसा कि उपन्यास में दृष्टव्य है।
उपन्यास का अंत आते-आते पृथ्वी की उर्वरता देख मन की जुगुप्सा तिरोहित होती है। जैसे कोई बंजर भूमि हरीतिमा ओढ़े सुख की नींद सोई हो या पतझड़ में कोई कोंपल फ़ूटी हो, जिसे देख कर आंखों के साथ मन भी सुख पाता है। संतति की चाहना सारी वर्जनाओं को ताक पर रखवा देती है। ऐसे में शिवमूर्ति की कहानी ‘भरतनाट्यम’ याद आती है।
विपश्यना के मौन में लेखक द्वारा ढेर सारे प्रश्न भी खड़े किए गए हैं, जिस के उत्तर तलाशने होंगे। उपन्यास की भाषा में भोजपूरियत की मिठास मन को बड़ी भली लगती है। इस कृति की सर्जना हेतु लेखक को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
शुभ-शुभ !
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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