अशोक मिश्र
कहानियां युगों से कही और सुनी जा रही हैं। कहानियां तो उस समय भी मौजूद थीं, जब पूरी दुनिया में वाचिक परंपरा थी। लिपि और कागज के आविष्कार से बहुत पहले। कहते हैं कि रामायण, महाभारत से लेकर बौद्ध और जैन साहित्य वाचिक परंपरा में मौजूद था। लिपिबद्ध तो बहुत बाद में तीसरी चौथी शताब्दी में हुई हैं। ऐसा माना जाता है। कहानियां तो उस समय भी मौजूद थीं, जब शब्द नहीं थे, लिपि नहीं थी, वाचिक परंपरा भी नहीं थी। सब कुछ गूंगे के गुड़ के समान था। अरे! यह जीवन भी तो एक कहानी है। जीवन की कहानी इतनी सरल भी नहीं है। पूरा जीवन खपाना पड़ता है बांचने के लिए। कई बार अनकही रह जाती हैं जीवन की कहानियां। जीवन में प्रेम है, घृणा भी है। निर्मल प्रेम है, तो विवाहेतर संबंध भी हैं। कहीं इनमें कटुता है, तो कहीं मिसरी की मिठास भी। अगर समग्र रूप से कहा जाए, तो दयानंद पांडेय की इन 21 कहानियों का मूल स्वर विवाहेतर संबंध से उपजे हालात और शारीरिक भूख का प्रकटयन है। इन कहानियों की भूख, पीड़ा, प्रेम, घृणा जो कुछ भी मध्यममार्गी नहीं है। प्रबलतम है। पहली कहानी ‘तुम्हारे बिना’ विवाहेतर संबंध रखने वाले युवक-युवती की कहानी है। दोनों प्रेम या यों कहें कि सेक्स के लिए आकुल-व्याकुल रहते हैं। कहानी में दोनों के बीच होने वाले यौन संबंधों की एक विशद व्याख्या है। पूरा सिजरा मौजूद है। अपने पति के प्रेम से अतृप्त युवती किसी बांंध तोड़ कर पगलाई नदी की तरह विवाहेतर संबंध बनाती है, तो वह इसी तरह कामुक हो जाती है। जिस तरह कहानी ‘तुम्हारे बिना’ की नायिका होती है। ऐसे प्रेम और संभोग का खुमार एक दिन जब टूटता है, तो नायिका किसी कछुए की तरह अपनी खोल में सिमट जाती है। रह जाती है एक छटपटाहट, विरह में कटती नायक की रातें और पुरानी यादों का एक भरा पूरा गट्ठर।
दयानंद पांडेय की दूसरी कहानी ‘सपनों का सिनेमा’ बिना शादी किए लिव इन रिलेशन में रहने वाले एक युगल की कहानी है। लड़की लड़के के प्रेम में इतनी पगलाई है कि अपनी मां के हाथों कपड़े धोने की थापी से मार खाने के बावजूद घर छोड़ कर प्रेमी के घर में रहने चली आती है। यत्र, तत्र, सर्वत्र संभोग सुख उठाने, प्रेम करने के बावजूद दोनों एक नहीं रह पाते हैं। एक भूख, एक अव्यक्त पीड़ा, एक छटपटाहट, एक बेचैनी, लड़की के छोड़ कर चले जाने के बाद विरह से उपजी व्याकुलता पूरी कहानी में समानांतर चिन्हित होती चलती है। ‘सपनों का सिनेमा’ की नायिका भी ठीक वैसे ही बौराई रहती है, जैसे इन दिनों अखबार और टीवी चैनलों में दिन रात दिखाई जानी श्रद्धा वालकर हत्याकांड की कहानी के अनुसार श्रद्धा पगलाई थी आफताब के साथ रहने के लिए। श्रद्धा वालकर भी अपने मां-बाप से लड़-झगड़कर आफताब पूनावाला के साथ लिव इन में रहने चली आई थी। इन दोनों कहानियों में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि श्रद्धा के 35 टुकड़े हुए और ‘तुम्हारे बिना’ की नायिका खुद ही अपने प्रेमी को छोड़ कर चली गई थी। लेकिन प्रेम और सेक्स के लिए दोनों की बौराहट, पगलाहट एक जैसी प्रतीत होती है। इस कहानी में ‘कारसेवा’ शब्द को एक नया अर्थ मिलता है। दयानंद पांडेय की ज़्यादातर कहानियों में विवाहेतर संबंध और सेक्स की भूख समान रूप से ठंडे पड़ चुके किसी अलाव की राख के नीचे दबी चिन्गारी की तरह धीरे-धीरे सुलगती रहती है। कहानी ‘सपनों का सिनेमा’ इसी भावभूमि पर रची गई कहानी है। कहानी के दोनों प्रमुख पात्र दिल्ली में रहते हैं। दिल्ली का शायद ही कोई कोना ऐसा बचा हो, जहां इन्होंने प्रेम न किया हो, सेक्स न किया हो। तमाम थुक्का फजीहत के बाद नायक दिल्ली छोड़ देता है। कई सालों बाद जब वह अपने बेटे का दिल्ली में एडमिशन कराने आता है, तो जेएनयू में दोनों की फिर मुलाक़ात होती है। नायिका जो अब खुद भी एक बेटे की मां बन चुकी है और वह भी उसी जेएनयू में अपने बेटे का नाम लिखवाने आई थी। कुल मिला कर यह विवाहेतर संबंधों की कथा किसी पूर्णता को प्राप्त किए बिना ही पूरी हो जाती है। जैसा कि ऐसे संबंधों का अंत अक्सर होता है।
इसी संग्रह की एक कहानी है ‘प्रतिनायक मैं’। यह एक ऐसे युगल की कहानी है जिन का प्रेम संबंध अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं होता है। यह कहानी इस देश के सतर फीसदी लोगों के युवावस्था की कहानी है। धनंजय और शिप्रा की प्रेम कहानी में बहुत कुछ ऐसा है जो यूनीक है। प्रेम की यह कैसी विडंबना है कि धनंजय जब भी शिप्रा के घर जाता है, तो शिप्रा को परिवार वालों के सामने अपने प्रेमी को भाई कह कर पुकारना पड़ता है। कहानी बहुत साधारण है। शिप्रा की शादी हो चुकी है। शादी के कुछ दिन बाद जब शिप्रा अपने बेटे के साथ मायके आती है, तो धनंजय के घर में ही दोनों की मुलाकात होती है। बेटे और शिप्रा की बहन शिखा के साथ। तमाम गिले-शिकवे के बाद शिप्रा अपने प्रेमी से किसी दूसरी लड़की से शादी कर लेने का अनुरोध करती है।
कहानी ‘वक्रता’ इस दार्शनिक पहलू को ध्यान में रख कर रची गई है कि जीवन में वक्रता का होना बहुत जरूरी है, ताकि वह दूसरी जीवन रेखा को कहीं न कहीं काट सके यानी दूसरी रेखा से मिल सके। दो रेखाएं एक दूसरे के समानांतर चलती रहती हैं, तो वे कभी नहीं मिल पाती हैं। कहानी ‘वक्रता’ के प्रेमी युगल एक दूसरे के समानांतर चलते रहते हैं। परिस्थितियों वश प्रेम के भरपूर आवेग के बावजूद दोनों मिल नहीं पाते, शादी के बंधन में नहीं बध पाते। दोनों का विवाह हो जाता है। प्रेमिका अपने प्रेमी अवनींद्र को परितोष कहती है, तो प्रेमी अपनी प्रेमिका अनु को पश्यंति। संयोग से अवनींद्र के घर बेटी पैदा होती है, तो वह उसका नाम पश्यंति रखता है। उधर अनु अपने बेटे का नाम परितोष रखती है। घटनाएं आगे बढ़ती हैं। अवनींद्र के मन में पश्यंति इतना गहरे रची-बसी है कि पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाते समय उस के मुंह से निकलता है, ‘नहीं पश्यंति, तुम मुझ से इतर नहीं हो सकती।’ पत्नी छिटक कर दूर हो गई, ‘आंय यह क्या? किस को याद कर रहे हो? शर्म नहीं आती..तुम्हें इतना भी ख्याल नहीं कि सोए हो मेरे साथ और याद बिटिया को कर रहो हो..छि।’ कुछ सालों बाद पश्यंति उर्फ पम्मी की मां चल बसी। फिर अवनींद्र और अनु की मुलाकात होती है। इस बीच अनु का लड़का परितोष और अवनींद्र की बेटी पश्यंति एक दूसरे को प्यार करने लगते हैं। अनु के पति का भी देहावसान हो चुका है। अनु चाहती है कि उस के बेटे का विवाह अवनींद्र की बेटी से हो जाए। उन का प्यार भले ही अधूरा रह गया हो, लेकिन उन दोनों के बेटे-बेटी का प्यार अधूरा न रहे। लेकिन अवनींद्र इस के लिए हरगिज तैयार नहीं है। इसी संग्रह में एक बहुत ही प्यारी सी कहानी है ‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’। यह कहानी बहुत ही मासूम, प्यारी, दिल को कचोट देने वाली है। बचपन के शहर में किसी व्यक्ति का जवानी में लौटना और बचपन में बिताई हुई जगहों पर जा कर उन्हें याद करना सचमुच किसी भी व्यक्ति के लिए एक अलौकिक क्षण होता है। यह इंसान की आदिम प्रवृत्ति होती है कि वह पूरी दुनिया में बदलाव चाहता है, लेकिन जिन पलों को वह अपने जीवन में जी चुका होता है, उन पलों से जुड़ी चीज़ों को वह ठीक वैसा ही देखना चाहता है। बचपन में जिस स्कूल में पढ़े थे, उस की इमारतें, उस के मैदान, वह शहर, उस के यार-दोस्त...जवानी में भी उसे सब कुछ वैसा का वैसा ही चाहिए जैसा उस के बचपन में था। यह हर व्यक्ति के मन में एक मासूम सी इच्छा होती है। बरसों बाद अपने स्कूल में, रेड लाइट एरिया में, पार्कों में घूम-घूम कर शरद अपने फ़ोटोग्राफ़र दोस्त प्रमोद के साथ अपने बचपन को याद करता है। बचपन में की गई शरारतें, लड़कियों के साथ ‘डॉक्टर-डॉक्टर’ खेलना, पेड़, क्लासरूम में लड़कियों के साथ चिपकना, छूना, होंठ चूमना, प्यार जताना, सब कुछ याद आता है। मासूम बचपन को याद करते शरद का खो सा जाना, कहानी को अद्वितीय बना देता है।
कहानी ‘फ़ोन पर फ़्लर्ट ’ का कथानक अविश्वसनीय लगता है। पीयूष अपने दफ़्तर से मीटिंग के बाद किसी को फ़ोन लगाता है। तीन-चार बार फ़ोन मिलने के बाद रीडायल करने पर एक ऐसी जगह फ़ोन लग जाता है जिस के दूसरी तरफ एक महिला बोल रही होती है। फिर पीयूष लग जाते हैं फ़ोन पर ही फ़्लर्ट करने। विवाहित महिला प्रार्थना त्रिवेदी भी उसे अपना प्रेमी समझ रात में मिलने की बात करने लगती है। इसी बीच जीवन के तमाम खट्टे-मीठे प्रसंग आते रहते हैं फ़ोन पर ही। प्रार्थना त्रिवेदी अपने जीवन की तमाम दुश्वारियां उसे अपना प्रेमी समझ कर बताती जाती हैं। साथ ही सेक्स से जुड़ी बातें भी चलती रहती हैं। फिर लखनऊ के निशातगंज इलाके में मिलने का समय भी तय होता है। वह जाता भी है, लेकिन पुलिस वाले को वहां खड़ा जान कर लौट आता है। बाद में वह उसे फ़ोन कर के बताना चाहता है कि वह उस का प्रेमी नहीं है, लेकिन बता नहीं पाता है। कहानी की अविश्वसनीय बात यह है कि कोई भी महिला इतनी देर बात करने के बाद भी अपने प्रेमी जिस के साथ वह अपने पति से छिप कर न जाने कितनी रातें बिता चुकी हो, टेलीफ़ोन पर उस की आवाज़ नहीं पहचान पाती है।
‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’ की ही तरह निर्मल और निष्पाप प्रेम की कहानी है ‘बर्फ़ में फंसी मछली।’ वैसे तो इस कहानी में भी वही कुछ है, जो अन्य कहानियों में है। इस में भी इंटरनेट पर परोसी जाने वाली गंदगियों का बहुत अच्छी तरह से वर्णन किया गया है। जिस तरह इंटरनेट पर सेक्स का असीमित बाज़ार अपनी संपूर्ण प्रबलता के साथ गंधा रहा है, उस का सटीक वर्णन इस में भी है। इस में भी वही विवाहेतर संबंध, अपनी तमाम कुंठाओं और विसंगतियों के साथ सेक्स और सेक्स का अंतरजाल बिछा हुआ है। सेक्स को ले कर आकुल-व्याकुल आदमी और औरतों के बीच एक मृदुल प्रेम कथा भी चलती रहती है। इंटरनेट की शब्दावली सीखते कहानी का नायक कब एक रूसी तलाकशुदा महिला के संपर्क में आ कर प्रेम कर बैठता है, वह अद्भुत है। रूसी महिला भी उस निर्मल प्रेम के वशीभूत हो कर भारत आने की ज़िद ठान लेती है। हालां कि नायक के रूसी सीखने और रूसी महिला के हिंदी सीखने के बीच रूसी महिला की मां द्वारा भेजा गया ईमेल बताता है कि उस की बेटी नहीं रही। निर्मल प्रेम की पराकाष्ठा की यह कहानी संग्रह की सभी कहानियों पर भारी पड़ती है। वैसे कहानियां और भी हैं जिन की चर्चा की जानी चाहिए, जैसे-‘संगम के शहर की लड़की’, ‘सफ़र में फ़्रांसिसी ’, ‘शिकस्त’, ‘सुलगन’, ‘स्ट्रीट चिल्ड्रेन’, ‘एक आवारा रात विमान में विचरते हुए’, ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ आदि। इन कहानियों में ‘शिकस्त’ जहां एक कैबिनेट मंत्री की अय्याशियों, भ्रष्टाचार, इस्तीफ़ा और बाद में कारपोरेट जगत का दलाल बनने की रोचक कथा है, तो वहीं कहानी ‘ख़ामोशी’ में एक कामरेड मनमोहन के व्यभिचार, पूंजीपतियों की दलाली, हर जगह लूटने खसोटने की प्रवृत्ति के बावजूद वामपंथ की खोल ओढ़े रहने की गाथा है। छद्म वामपंथ की कलई खोलती कहानी ‘ख़ामोशी’ में बहुत बारीक़ी से वामपंथ के अप्रासंगिक होने की बात कहने का प्रयास किया गया है। इस बारे में सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि वामपंथी विचारधारा पूरी मानवता के लिए है। व्यक्ति ग़लत हो सकता है, लेकिन विचारधारा नहीं। एक निश्चित ताप और दाब पर हाईड्रोजन के दो परमाणु और आक्सीजन के एक परमाणु को मिलाने से पानी बनता है। यह साइंस का नियम बताता है। अब अगर कोई प्रयोगशाला में एक निश्चित ताप और दाब के बिना हाईड्रोजन के दो परमाणु और आक्सीजन के एक परमाणु से पानी बनाने की कोशिश करे और पानी न बने, तो इस से नियम ग़लत नहीं हो जाता है। ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ कहानी भी अवैध संबंधों के स्वाभाविक परिणति की व्यथा कथा है। संग्रह में एक कहानी है ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’। कहानी में बाबू गोधन सिंह के थोथे आदर्श, नपुंसकता के चलते बेइज़्ज़त होने, दोनों पत्नियों के अवैध संबंधों के कारण पैदा हुए बच्चों की पोल खुलने और लगातार गिरती जाती आर्थिक दशा के बावजूद बाऊ साहब होने का दंभ आदि की शानदार विवेचना की गई है। शादी विवाह में बिना पैसे लिए घोड़े का करतब दिखाने वाले बाऊ जी इस हाल में पहुंच जाते हैं कि लोगों के सामने सारे राजफाश हो जाने के बावजूद वे कहते हैं कि बैलगाड़ी हो, घोड़ा हो, बीवी हो या कुछ और सही, लगाम अपने हाथ में होनी चाहिए। तभी ड्राइव करने का मजा है। इन इक्कीस कहानियों में ‘बड़की दी का यक्ष प्रश्न’ सचमुच यक्ष प्रश्न बन कर समाज को मुंह चिढ़ा रहा है। समाज के सामने उस का कोई उत्तर भी नहीं है। भरी जवानी में एक बेटी की पैदाइश के बाद ही विधवा हो जाने वाली बड़की दी ने पूरी ज़िंदगी ससुराल और नैहर यानी मायके में काट दी। जब तक जोर-जांगर रहा, आगे बढ़ कर सारे काम काज करती रहीं, लेकिन जब पौरुख घटा, तो वे अपनी बेटी के यहां रहने चली गईं। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में बेटी के यहां पानी नहीं पीने का रिवाज़ है। ऐसे में कोई अपनी बेटी के यहां रहने लगे, तो उसे अच्छा नहीं माना जाता है। तमाम घटनाओं, उपघटनाओं के बाद बड़की दी का यही प्रश्न है कि अब जब जांगर नहीं रहा, तो ससुराल और मायके में किस के सहारे रहती। बुढ़ापे में उन की देखभाल करने वाला कौन था? जिस कैंसर पीड़ित बेटी को उन्होंने अपनी संपत्ति लिख दी थी, उस की बेटी भी यही कहती है कि यदि उनकी नानी यानी बड़की दी यहां नहीं आती तो कहां जाती? उल्लेखनीय कहानियों में ‘सुमी का स्पेस ’, ‘हवाई पट्टी के हवा सिंह’, ‘चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी जी’ प्रमुख हैं। अगर पूरे संग्रह की कुछ ही शब्दों में व्याख्या की जाए, तो लगभग सभी कहानियों का मूल तत्व विवाहेतर संबंध, प्रेम और उस की परिणति ही है। कथ्य और शिल्प के मामले में कहानी-संग्रह बेजोड़ है। छोटे-छोटे वाक्यों में पिरोई गई कहानियां कई जगह अचंभित करती हैं, तो कहीं कहीं समाज और संबंधों में आई टूटन को रेखांकित करती हैं। समाज का खोखलापन अपनी समग्रता के साथ कहानियों में उपस्थित है। शायद इसी टूटन, खोखलेपन को दिखाने का ध्येय इन कहानियों का है।
[ डायमंड बुक्स द्वारा शीघ्र प्रकाश्य दयानंद पांडेय की 21 कहानियां की भूमिका ]
अशोक मिश्र
संपादक
दैनिक देश रोजाना
ग्राम-नथईपुरवा घूघुलपुर , पोस्ट-देवरिया (पश्चिम)
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