Thursday 28 January 2016

यह विधवा विलाप अशोक वाजपेयी का नया नहीं है

अशोक वाजपेयी

कांग्रेस की भड़ैती में आप जोर-जुगाड़ से पाया साहित्य अकादमी लौटा सकते हैं , 
डी लिट लौटा सकते हैं , नाखून कटवा कर शहीद हो सकते हैं 
और एक अख़बार का संपादक आप का कॉलम भी नहीं लौटा सकता ? 

बइठब तोरे गोद में , उखारब तोर दाढ़ी !

जनसत्ता संपादक मुकेश भारद्वाज को अशोक वाजपेयी की लिखी चिट्ठी पढ़ कर भोजपुरी की यही कहावत याद आई है । और हंसी आई है अशोक वाजपेयी के इस बचपने पर । उन के तीसमार खां बनने पर । चिढ़ और खीझ हुई है उन की इस हिप्पोक्रेसी पर । उन के इस हरजाईपने पर । यह विधवा विलाप अशोक वाजपेयी का नया नहीं है । आदत पड़ गई है उन्हें ख़ुदा बन कर विधवा विलाप करने की । कुल मिला कर अपने मन की ग्रंथि में छुपे कलक्टर को , अपने आई ए एस अफ़सर को अवकाश प्राप्ति के बावजूद वह विदा नहीं कर पाए हैं । अब क्या खा कर करेंगे भला ? वह हर किसी को अपनी प्रजा , अपना नागरिक समझते रहने की भूल करते रहते हैं । और यह बिना रीढ़ के जी हुजूर लेखक उन्हें अपना कलक्टर , अपना ख़ुदा मानने का जतन करते आ रहे हैं । सो अशोक वाजपेयी का ख़ुदा होने का इलहाम पालना लाजमी है । वह कभी मध्य प्रदेश सरकार की पत्रिका पूर्वग्रह के संपादक रहे हैं और पूरी तानाशाही से । पूर्वग्रह में जिस को चाहा छापा , जिस को नहीं चाहा उसे नहीं छपने दिया । भारत भवन में भी उन्हों ने यही किया ।  जिस को चाहा भारत भवन में घुसने दिया , जिस को नहीं चाहा दुत्कार दिया । इन दिनों उन्हें शहादत का चस्का लग गया है । अशोक वाजपेयी को शहादत का जो इतना ही शौक है तो उन्हें अपनी पेंशन आदि भी सरकार को शीघ्र लौटा देना चाहिए। यह साहित्य अकादमी , यह डी लिट् आदि से वह न अपनी नींव पक्की कर पाएंगे न किसी की नींव हिला पाएंगे। अपनी सारी सदाशयता और विद्वता के बावजूद साहित्य में तो वह खुल कर गोलबंदी सर्वदा से करते रहे हैं । अब सोचता हूं कि बतौर प्रशासनिक अधिकारी वह कितने निष्पक्ष रहे होंगे ? कितनी मनमानी और कितनी अनीति किए होंगे । अफ़सोस कि अब यह सिर्फ़ सोचा ही जा सकता है । यह वही अशोक वाजपेयी हैं जिन्हों ने भोपाल में यूनियन कार्बाइड की गैस त्रासदी के बावजूद कविता समारोह करने के लिए तर्क दिया था कि, ' मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है । '

और अब अगर एक संपादक ने उन का कभी कभार स्तंभ बंद कर दिया तो दो पन्ने की चिट्ठी लिख कर विधवा विलाप में संलग्न हो गए हैं । यह ठीक नहीं है । यह तो वैसे ही हुआ कि जब कोई नया प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री बने और अपनी नई कैबिनेट बनाए और पुराने मंत्री को हटा दे तो वह मंत्री कहे कि यह आप का अपना विवेक है लेकिन आप ने यह ठीक नहीं किया । अख़बारों , पत्रिकाओं में स्तंभ लोगों के चलते और बंद होते रहते हैं । पर जैसे अशोक वाजपेयी बचपने पर उतर आए हैं और विधवा विलाप कर रहे हैं , वह बहुत ही लज्जाजनक है । उन को जानना चाहिए कि इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप को हम लोग सत्ता के ख़िलाफ़ लिखने वाले ग्रुप के तौर पर जानते हैं।  अशोक वाजपेयी जानिए कि अब आप एक बीमार आदमी हैं। इस बीमारी के तहत आप अपनी इस  चिट्ठी में शहीदाना अंदाज़ भर कर लिख रहे हैं कि , ' आप पर कोई राजनैतिक दबाव पड़ा होगा ऐसी अटकल अभी मैं नहीं लगाता ।'


अशोक वाजपेयी
वाह क्या मासूमियत है । आप को मालूम है अशोक वाजपेयी आज की तारीख़ में जनसत्ता अख़बार कितना छपता है , कितना बिकता  है ,  कितने और कैसे लोग पढ़ते हैं ?   और कि इस का प्रभाव कितना और  किस पर है ? जनसत्ता अख़बार था कभी तोप मुकाबिल । ख़ूब ख़बरें ब्रेक करता थ। उस का स्लोगन ही था सब की ख़बर ले , सब को ख़बर दे । और कि उस की तूती भी बोलती थी । पर अब जनसत्ता अख़बार आप जैसे कुछ आत्म मुग्ध लेखकों का अख़बार भर है । जनता जनार्दन का अख़बार नहीं रहा यह । प्रभाष जोशी जब जनसत्ता के संपादक थे तब यह जनता जनार्दन का अख़बार था , लेखकों का भी । ओम थानवी आए तो यह अख़बार जनता जनार्दन से कट गया । ओम थानवी की आत्म मुग्धता में , उन की मैं-मैं में लहालोट हो गया जनसत्ता । आहिस्ता-आहिस्ता कुछ और आत्म मुग्ध लेखकों की टोली भी आ जुड़ी । आप पहले ही से उपस्थित थे । जैसे लेखकों के एक गिरोह में तब्दील हो गया जनसत्ता । सूर्यनाथ सिंह जैसे सहायक संपादक ने इस गिरोह के काले चेहरे को ओम थानवी के नेतृत्व में और काला बनाने में जो योगदान दिया वह विलक्षण और अप्रतिम है । पुस्तक समीक्षा चूंकि जनसत्ता में ही शेष रह गई थी , बाक़ी अख़बारों ने इसे फ़ालतू मान कर इतिश्री कर ली तो एक विशाल रैकेट खड़ा हो गया जनसत्ता में पुस्तक समीक्षा का । ख़ास-ख़ास प्रकाशकों , ख़ास-ख़ास लेखकों की किताब की समीक्षा जैसे सूचीबद्ध हो गई जनसत्ता में । 

पर इस सब में ख़बरों से जनसत्ता का सरोकार समाप्त सा हो गया । पंकज बिष्ट के संपादन वाली समांतर जैसी पत्रिका में यह तथ्य बार-बार दर्ज किया गया । कि कोई भी अख़बार सिर्फ़ अपने कालमिस्टों और संपादकीय लेखों से नहीं , समाचार से चलता है । और लोगों ने भी कहा ।  पर ओम थानवी तो अपनी आत्म मुग्धता में धृतराष्ट्र बन गए थे । ओम थानवी अपने से असहमत लोगों को फ़ेसबुक पर जैसे ब्लाक कर रहे थे , जनसत्ता के पाठक जनसत्ता के तात्कालिक सरोकार से असहमत हो कर जनसत्ता को ब्लाक करते रहे । नतीज़ा सामने है कि दिल्ली में 1983 - 1984 में अपने प्रकाशन के छ महीने में जो जनसत्ता ढाई लाख की प्रसार संख्या छू गया था , प्रभाष जोशी को पहले पेज पर संपादकीय लिख कर कहना पड़ा था कि अब जनसत्ता ख़रीद कर नहीं , मांग कर पढ़ें । अब उसी दिल्ली में यही जनसत्ता सुनता हूं दस हज़ार भी नहीं छपता । लोग बताते हैं कि हमारे लखनऊ में तो हज़ार , पांच सौ ही छपता है ।

आलम यह है कि कोई मुहल्ला स्तर का या गांव स्तर का राजनीतिक भी , या कोई मामूली अफसर भी इस अख़बार की नोटिस नहीं लेता। ख़बर ही जब ग़ायब हो गई है अख़बार से तो कोई नोटिस लेगा भी क्यों ? मुट्ठी भर लेखकों के गिरोह और उन की गिरोहबाजी से समाज नहीं चलता , समाज पर कोई असर नहीं पड़ता तो राजनीति भी क्यों और कैसे चलेगी ? तो राजनीतिक दबाव डालने की फ़ुर्सत और ज़रूरत है किसे ? आप ख़ुद अपनी चिट्ठी में दर्ज कर रहे हैं कि आप का कालम अख़बार में न पा कर बीसियों लोगों ने फ़ोन किया । अब आप ही तय कर लें कि आप का कालम और जनसत्ता अख़बार की लोकप्रियता इतनी शून्य क्यों है ? कि बीसेक लोग ही नोटिस लेते हैं । अशोक वाजपेयी तिस पर आप दावा यह भी झोंक रहे हैं कि आप ने सत्रह साल कभी-कभार कालम लिख कर जैसे कोई कमाल कर दिया है । ऐसे जैसे हिंदी में इतने साल तक किसी ने कोई कालम लिखा ही नहीं गया । आप आज के साक्षर पत्रकारों और लेखकों को यह सूचना परोस कर अपने मुंह मिया मिट्ठू खामखा बने जा रहे हैं । अशोक वाजपेयी आप भी जान लीजिए और लोग भी जान लें कि इसी जनसत्ता अख़बार में प्रभाष जोशी ने सत्रह साल तक अबाध रूप से कागद कारे नाम का स्तंभ लिखा है हिंदी में । मरते दम तक । बिना एक भी नागा किए । यहां तक कि वह बाईपास कराने की तैयारी में थे और आपरेशन थिएटर में जाने के पहले कालम लिख कर गए । आप ने तो कभी कभार कालम में एक-दो बार नहीं अनेक बार डूबकी मार ली है और नहीं लिखा है । अलग-अलग कारणों से । न छपने की सूचना पढ़ते ही रहे हैं जब-तब हम लोग । पर प्रभाष जोशी ने कभी भी किसी भी हालत में डूबकी नहीं मारी । नागा नहीं किया । नागा किया , डुबकी मारी तो निधन के बाद ही । आप ने अपनी चिट्ठी में लिखा है कि 1997 में तब के संपादक अच्युतानंद मिश्र आप के घर गए थे जनसत्ता में नियमित लिखने का निवेदन ले कर । हालां कि यह प्रभाष जोशी को अपमानित करने की एक प्रक्रिया तब कुछ लोगों ने मानी थी । क्यों कि प्रभाष जोशी और अशोक वाजपेयी के छत्तीस के आंकड़े की जानकारी समूचे हिंदी जगत को थी । अच्युतानंद मिश्र को नहीं थी , यह कैसे माना जा सकता है । खैर अच्युतानंद मिश्र के बारे में आप क्या कुछ नहीं जानते ? इतने नादान तो नहीं हैं आप अशोक वाजपेयी । नहीं जानते तो अब से जान लीजिए । पत्रकारिता में वह पुराने लाइजनर हैं । कह सकते हैं कुख्यात लाइजनर । निश्चित रूप से आप के कांग्रेसी संपर्कों का ख़ूब लाभ उन्हों ने लिया होगा । और ख़ूब  दूहा होगा । फोकट में वह कभी कुछ करते नहीं । दूसरे अच्युतानंद मिश्र तो पैदाइशी संघी हैं , भाजपाई भी हैं । तब भी उन के संपर्क भाजपा , सपा , कांग्रेस आदि सभी पार्टियों में बहुत पुख्ता हैं । आप की सूची , प्राथमिकता और एजेंडे में संघ , भाजपा और भाजपाई कब से हैं ? अब देर-सबेर यह खुलासा भी आप को कर ही देना चाहिए । फिर जनसत्ता से क्या सिर्फ़ अशोक वाजपेयी का कालम ही विदा हुआ है ? बहुतेरे लोगों को ओम थानवी ही विदा करते गए । अपने अहंकार में । तो कई लेखक उन से असहमत हो कर , त्रस्त हो कर ख़ुद ही विदा हो लिए । यह किसी भी अख़बार में , किसी भी कॉलमिस्ट के लिए रुटीन बात है । होता ही रहता है यह सब । लेकिन चूंकि अशोक वाजपेयी नौकरशाह रहे हैं , अपने को ख़ुदा मानने का इलहाम भी उन्हें है और निरंतर है तो वह किसी हाथी की तरह चिग्घाड़ कर विलाप कर रहे हैं । विधवा विलाप कर रहे हैं । क्या तो जनतांत्रिकता का स्पेस ख़त्म होता जा रहा है । 

क्या कुतर्क है । ख़ुद तानाशाह हो कर दूसरों से जनतांत्रिक स्पेस मांग रहे हैं ?

कोई भी अख़बार , कोई भी चैनल बनिए की दुकान है । आज की तारीख़ में प्रोडक्ट है । और आप वहां जनतांत्रिकता का स्पेस तलाश रहे हैं । इतने नादान तो नहीं हैं आप अशोक वाजपेयी । अच्छा चलिए एक बार मान भी लेते हैं कि आप ज़रा सा नादान हैं , ज़रा सा मासूम भी हैं । पर आप अपनी तानाशाही के बारे में भी तो मुंह खोल लीजिए एक बार भूल कर ही सही । आप के मुंह में भी जुबान है एक अदद । आप के हाथ में कलम भी है एक अदद । आख़िर आप और नामवर सिंह ने एक समय में अलग-अलग गिरोह बना कर हिंदी के लोगों को मुर्गा बना कर जो तानाशाही बूकी है यह क्या किसी से छुपी हुई है भला ? वह तो कहिए कि बीच तानाशाही में हंस ले कर राजेंद्र यादव उपस्थित हो गए । हिंदी में एक नया गैंग बना कर ही सही उन्हों ने आप दोनों की तानाशाही को लगभग लगाम लगा दी । नए-पुराने लोगों को एक जनतांत्रिक स्पेस भी दी । नहीं आप लोग तो सब को भून कर खा चुके थे । प्रकाशक आप के थे , सरकारें आप की थीं , पुरस्कार आप के थे , पुरस्कार से लगायत किताब ख़रीद तक की सारी समितियों में आप ही आप लोग थे । एक समय अज्ञेय जैसे बड़े फलक वाले लेखक को भी आप लोगों ने दड़बे में डाल दिया था । भूल गए हैं क्या ?

आप भूल गए हैं पर जनसत्ता टीम का पुराना सदस्य रहे होने के नाते मैं तो नहीं ही भूला हूं कि इसी जनसत्ता में प्रभाष जोशी ने आप के प्रशासनिक भ्रष्टाचार और भारत भवन के काले कारनामों की कितनी धज्जियां उड़ाई हैं , बारंबार उड़ाई हैं । भोपाल से एन  के सिंह , दिल्ली से आलोक तोमर लगातार अपनी रिपोर्टों में आप के भ्रष्टाचार की पोल खोलते रहते थे। अपने कारे कागद कालम में भी इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आप की मयकशी और गालियों का भी बखान प्रभाष जोशी एकाधिक बार कर गए हैं । एक बार तो बहुत क्षुब्ध हो कर जनसत्ता में प्रभाष जोशी ने लिखा था अपने कालम कागद कारे में ,  ' अशोक वाजपेयी के भोपाल से दिल्ली आने से फ़र्क यह पड़ा है कि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बार में हिंदी गालियां भी सुनाई देने लगी हैं । '

लेकिन तब तो आप ख़ामोश  रहे थे ।


अशोक वाजपेयी
अशोक वाजपेयी असल में लोगों को टूल बनाते-बनाते अब ख़ुद टूल बन चले हैं । जैसे कि बीते दिनों वह कांग्रेस के टूल बन गए । साहित्य अकादमी वापस कर देश में असहिष्णुता का राग आलाप कर । अलग बात है उस में अशोक वाजपेयी एक तीर से दो निशाने साध रहे थे । एक कांग्रेस का हित साध रहे थे दूसरे साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से एक प्रतिशोध ले रहे थे । हुआ यह था कि अशोक वाजपेयी ने विश्व कविता समारोह आयोजित करने की एक योजना बनाई । वह चाहते थे कि रज़ा फाउंडेशन  विश्व कविता समारोह आयोजित करे और साहित्य अकादमी उसे प्रायोजित कर दे । यानी कर्ता-धर्ता अशोक वाजपेयी रहें और खर्चा-वर्चा साहित्य अकादमी करे । विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि जब खर्च सारा साहित्य अकादमी के जिम्मे है तो कर्ता-धर्ता भी साहित्य अकादमी ही रहेगी ।  और कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने साहित्य अकादमी में विश्व कविता समारोह कर भी डाला । बिना अशोक वाजपेयी और रज़ा फाउंडेशन के । अशोक वाजपेयी ने इसे अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल माना और कभी-कभार में लिख कर कहा कि अब इस रिजीम में साहित्य अकादमी परिसर में पांव भी नहीं रखूंगा । गौरतलब है कि अरबों रुपए वाले रज़ा फाउंडेशन के कर्ता-धर्ता अशोक वाजपेयी ही हैं । तो चाणक्य की तरह शिखा बांध कर बैठे अशोक वाजपेयी ने कांग्रेस की असहिष्णुता की आंच की लपट को पकड़ा और साहित्य अकादमी पर लपेट दिया । आग धधक उठी । पर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की डिप्लोमेसी और चुप्पी में आग असमय बुझ गई ।  अब तो लोग पुरस्कार वापसी में लग गए हैं । साहित्य अकादमी प्रसंग में मुंह की खाने के बाद अशोक वाजपेयी हैदराबाद में रोहित की आत्महत्या की आग में भी अपनी हवन सामग्री ले कर पहुंचे । डी लिट लौटाने का ऐलान लेकिन फुसफुसा कर रह गया । शोला नहीं बन पाया । तिस पर अब यह चिट्ठी । हड़बड़ी इतनी है , खीझ इतनी है यह चिट्ठी लिखने की कि चिट्ठी में आप की भाषा का वह मोहक जाल , वह लावण्य लुप्त है , जिस के लिए कि आप को हम जानते हैं । और तो और इस चिट्ठी में वर्तनी की अशुद्धियां भी बेशुमार हैं । इन से तो बचा ही जा सकता था ।

अब एक प्रसंग अमिताभ बच्चन और अशोक वाजपेयी का भी गौरतलब है ।

हम सभी जानते हैं और देखते भी हैं कि अमिताभ बच्चन अपने पिता हरिवंश राय बच्चन की कविताओं का पाठ बडे़ मन और जतन से करते हैं। खास कर मधुशाला का सस्वर पाठ कर तो वह लहालोट हो जाते हैं। अपने अशोक वाजपेयी भी अमिताभ के इस बच्चन कविता पाठ के भंवर में जैसे डूबे ही नहीं लहालोट भी हो गए। उन्हों ने मान लिया कि वह ख़ुदा हैं तो उन की ख़ुदाई के झांसे में अमिताभ बच्चन भी आ ही जाएंगे ।

सो अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशती पर उन्हों ने योजना बनाई कि इन कवियों की कविताओं का पाठ क्यों न अमिताभ बच्चन से ही करवा लिया जाए। उन्हों ने अमिताभ बच्चन को चिट्ठी लिखी इस बारे में। और सीधा प्रस्ताव रखा कि वह इन कवियों की कविताओं का पाठ करना कुबूल करें। और कि अगर वह चाहें तो कविताओं का चयन उन की सुविधा से वह खुद कर देंगे। बस वह काव्यपाठ करना मंजूर कर लें। जगह और प्रायोजक भी वह अपनी सुविधा से तय कर लें। सुविधा के लिए अशोक वाजपेयी ने हरिवंश राय बच्चन से अपने संबंधों का हवाला भी दिया। साथ ही उन के ससुर और पत्रकार रहे तरुण कुमार भादुड़ी  से भी अपने याराना होने का वास्ता भी दिया। पर अमिताभ बच्चन ने सांस नहीं ली तो नहीं ली।
अशोक वाजपेयी ने कुछ दिन इंतज़ार के बाद फिर एक चिट्ठी भेजी अमिताभ को। पर वह फिर भी निरुत्तर रहे। जवाब या हां की कौन कहे पत्र की पावती तक नहीं मिली अशोक वाजपेयी को। पर उन की नादानी यहीं खत्म नहीं हुई। उन्हों ने जनसत्ता में अपने कालम कभी कभार विस्तार से इस बारे में लिखा भी। फिर भी अमिताभ बच्चन नहीं पसीजे। न उन की विनम्रता जागी। इस लिए कि कविता पाठ में उन के पिता की कविता की बात नहीं थी, उन की मार्केटिंग नहीं थी, उन को पैसा नहीं मिल रहा था।
अशोक वाजपेयी आईएएस अफ़सर रहे हैं, विद्वान आलोचक और संवेदनशील कवि हैं, बावजूद इस सब के वह भी अमिताभ बच्चन के विनम्रता के टूल में फंस गए। विनम्रता के मार्केटिंग टूल में। अब जो संतुष्टि उन्हें अपने पिता की कविताओं का पाठ कर के या अपने खेत में ट्रैक्टर चला कर मिलेगी, उन की विनम्रता को जो खाद मिलेगी वह अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन या केदार की कविताओं के पाठ से तो मिलने से रही। सो अशोक वाजपेयी की ख़ुदाई यहां भी गड्ढे में चली गई । सिलसिले और भी हैं जो फिर कभी ।

हालां कि मैं अशोक वाजपेयी की कविताएं पढ़ता हूं , प्रशंसक हूं उन की भाषा का , कायल हूं उन की विद्वता का । कभी-कभार का पाठक भी रहा हूं । हालां कि अपनी विदेश यात्राओं , अपने पसंदीदा लेखकों , रचनाओं का रोजनामचा ही बांचते रहे कभी-कभार में । जैसे कोई डायरी दर्ज कर रहा हो । फिर भी इस बहाने कई अद्यतन सूचनाएं , भाषा का स्वाद और उस की मिठास से मन भरा मिलता था । यह कभी-कभार पढ़ना रुचिकर भी था । इस का बंद होना खलता है । लेकिन यह कोई ऐसा झटका नहीं है कि इस पर इस कदर विधवा विलाप किया ही जाए । इसी लिए अशोक वाजपेयी की तानाशाही और उन की सद्य: नौटंकी मुझे बिलकुल प्रिय नहीं है । उन की यह हिपोक्रेसी भरी हरकतें मन खट्टा कर देती हैं । सो बहुत आदर के साथ अशोक वाजपेयी से कहना चाहता हूं  कि  कांग्रेस की भड़ैती में आप जोर-जुगाड़ से पाया साहित्य अकादमी लौटा सकते हैं , डी लिट लौटा सकते हैं , नाखून कटवा कर शहीद हो सकते हैं और एक अख़बार का संपादक आप का कॉलम भी नहीं लौटा सकता ? यह तो बहुत बड़ी नाइंसाफी है अशोक वाजपेयी । इतना असहिष्णु भी न बनिए ।

 पढ़िए जनसत्ता संपादक मुकेश भारद्वाज को अशोक वाजपेयी की लिखी यह दो पन्ने की चिट्ठी



यह लिंक भी पढ़ें :

1 . आख़िर मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों की ज़िद से लौटे अशोक वाजपेयी 

2 . साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का तमाशा 

3 . अशोक वाजपेयी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर के सिर्फ़ और सिर्फ़ नौटंकी की है

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2 comments:

  1. खरी खरी . समय के साथ परिवर्तन चलता रहता है ...बहुत सी बातें जानकार ज्ञानवर्धन हुआ ...
    आपको जन्मदिन की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें!

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  2. कडबी स्याही से सत्य लिखा है ।
    seetamni.blogspot.in

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