दयानंद पांडेय
ग़ालिब छूटी शराब और इस के लेखक और नायक रवींद्र कालिया पर मैं बुरी तरह फ़िदा था एक समय । आज भी हूं , रहूंगा । संस्मरण मैं ने बहुत पढ़े हैं और लिखे हैं । लेकिन रवींद्र कालिया ने जैसे दुर्लभ संस्मरण लिखे हैं उन का कोई शानी नहीं । ग़ालिब छुटी शराब जब मैं ने पढ़ कर ख़त्म की तो रवींद्र कालिया को फ़ोन कर उन्हें सैल्यूट किया और उन से कहा कि आप से बहुत रश्क होता है और कहने को जी करता है कि हाय मैं क्यों न रवींद्र कालिया हुआ । काश कि मैं भी रवींद्र कालिया होता । सुन कर वह बहुत भावुक हो गए ।
उन दिनों वह इलाहबाद में रहते थे । बाद के दिनों में भी मैं उन से यह बात लगातार कहता रहा हूं । मिलने पर भी , फ़ोन पर भी । हमारे बीच संवाद का यह एक स्थाई वाक्य था जैसे । इस लिए भी कि ग़ालिब छुटी शराब का करंट ही कुछ ऐसा है । उस करंट में अभी भी गिरफ़्तार हूं। इस के आगे उन की सारी रचनाएं मुझे फीकी लगती हैं । ठीक वैसे ही जैसे श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी के आगे उन की सारी रचनाएं फीकी हैं । ग़ालिब छुटी शराब के विवरणों में बेबाकी और ईमानदारी का जो संगम है वह संगम अभी तक मुझे सिर्फ़ एक और जगह ही मिला है । खुशवंत सिंह की आत्म कथा सच प्यार और थोड़ी सी शरारत में । रवींद्र कालिया खुशवंत सिंह की तरह बोल्ड और विराट तो नहीं हैं पर जितना भी वह कहते परोसते हैं उस में पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता झलकती है । जैसे बहते हुए साफ पानी में दिखती है । मयकश दोनों हैं और दीवाने भी । लेकिन खुशवंत सिंह को सिर्फ़ एक मयकशी के लिए दिन-दिन भर प्रूफ़ नहीं पढ़ने पड़ते । तमाम फ़ालतू समझौते नहीं करने पड़ते । इसी लिए रवींद्र कालिया की मयकशी बड़ी बन जाती है । कितने मयकश होंगे जो अपने अध्यापक के साथ भी बतौर विद्यार्थी पीते होंगे । अपने अध्यापक मोहन राकेश के साथ रवींद्र कालिया तो बीयर पीते थे । बताईए कि पिता का निधन हो गया है । कालिया इलाहबाद से जहाज में बैठ कर दिल्ली पहुंचते हैं , दिल्ली से जालंधर। पिता की अंत्येष्टि के बाद शाम को उन्हें तलब लगती है । पूरा घर लोगों , रिश्तेदारों से भरा है । घर से बाहर पीना भी मुश्किल है कि लोग क्या कहेंगे । घर में रात का खाना नहीं बनना है । सो किचेन ही ख़ाली जगह मिलती है । वह शराब ख़रीद कर किचेन में अंदर से कुंडा लगा कर बैठ जाते हैं । अकेले । गो कि अकेले पीना हस्त मैथुन मानते हैं । श्वसुर का निधन हो गया है । रात में मयकशी के समय फ़ोन पर सूचना मिलती है । पर सो जाते हैं । सुबह उठ कर याद करते हुए से ममता जी से बुदबुदाते हुए बताते हैं कि शायद ऐसा हो गया है । अब लेकिन यह ख़बर सीधे कैसे कनफ़र्म की जाए । तय होता है कि साढ़ू से फ़ोन कर कनफ़र्म किया जाए । साढ़ू इन से भी आगे की चीज़ हैं । कनफ़र्म तो करते हैं पर यह कहते हुए कि आज ही हमारी मैरिज एनिवर्सरी है । इन को भी अभी जाना था । सारा प्रोग्राम चौपट कर दिया । शराब ही है जो आधी रात मुंबई में धर्मवीर भारती के घर पहुंचा देती है । उन की ऐसी-तैसी कर के लौटते हैं । सुबह धर्मयुग की नौकरी से इस्तीफ़ा भेजते हैं । शराब ही है जो अपना प्रतिवाद दर्ज करने इलाहबाद में सोटा गुरु भैरव प्रसाद गुप्त के घर एक रात ज्ञानरंजन के साथ पहुंच कर गालियां का वाचन करवा देती है । रात भर । भैरव प्रसाद गुप्त के घर से कोई प्रतिवाद नहीं आता । सारी बत्तियां बुझ जाती हैं । कन्हैयालाल नंदन को जिस आत्मीयता से वह अपनी यादों में बारंबार परोसते हैं वह उन की कृतज्ञता का अविरल पाठ है । परिवार चलाने के लिए ममता कालिया की तपस्या , उन का त्याग रह-रह छलक पड़ता है ग़ालिब छुटी शराब में । हालां कि शराब पीने को वह अपने विद्रोह से जोड़ते हुए लिखते हैं , ' मुझे क्या हो गया कि मसें भीगते ही मैं सिगरेट फूंकने लगा और बीयर से दोस्ती कर ली । यह शुद्धतावादी वातावरण के प्रति शुद्ध विद्रोह था या वक्ती या उम्र का तकाज़ा। माहौल में कोई न कोई जहर अवश्य घुल गया था कि सपने देखने वाली आंखें अंधी हो गई थीं । योग्यता पर सिफ़ारिश हावी हो चुकी थी । '
ननिहाल में तो लहसुन प्याज भी नहीं खाया जाता था। ऐसे परिवार से आने वाले रवींद्र कालिया से एक शराब जाने क्या क्या करवाती रहती है । शराब ही आस , शराब ही सांस । कालिया ने इस की जितनी यातनाएं दर्ज की हैं , इतनी तरह और इतनी शिद्दत से दर्ज की हैं ,अपमान की जो तफ़सील दी है , कि उन से बार-बार कहना पड़ जाता है मुझे कि काश कि मैं भी रवींद्र कालिया होता । रवींद्र कालिया की सारी फक्क्ड़ई , सारी ऊर्जा , सारी रचनात्मकता उन के शराबी जीवन के बहाने उन्हें ईमानदार और बड़ा बना देता है । अपना अच्छा-बुरा सारा स्याह सफ़ेद कहला देता है । अपना कमीनापन भी कहने से वह बाज नहीं आते । शराब उन्हें संत बना देती है ग़ालिब छुटी शराब के मार्फ़त । शराब की संतई में वह अनजाने और अनायास एक से एक मेटाफर रचते जाते हैं जिन का जवाब नहीं । कई सारे छेद खोलते हैं , कई सारे छेद बंद भी करते हैं । अपने समय को , अपने जीवन को , अपने लोगों को इस बेकली और इस आत्मीयता से दर्ज करते मिलते हैं कालिया गोया अपने जीवन का ही नहीं अपने समय का पुनर्पाठ उपस्थित कर रहे हों । जैसे नामवर सिंह की गर्वीली ग़रीबी हो , जैसे राजेंद्र यादव का मुड़-मुड़ कर देखना हो, जैसे काशीनाथ सिंह का घर का जोगी जोगड़ा हो । वह एक जगह आह भर कर लिख गए हैं कि इस बात के लिए तरसता रह गया कि पी कर नाली के किनारे लेटने की गति नहीं मिली । बाक़ी सब । बस इसी के लिए वह तरस गए । यह और ऐसी बात इतनी शराफ़त से , इतने निर्विकार भाव से कोई संत ही कह सकता है । इसी अर्थ में रवींद्र कालिया संत थे । शराब ने उन्हें मारने की कोशिश की तो वह शराब से निकल आए । सिगरेट से निकल आए । अब उम्र के इस मोड़ पर कैंसर ने मारने की कोशिश की तो वह उस से भी लड़ कर निकल आए । लेकिन अंत समय पर वह लीवर सिरोसिस बीमारी से हार गए ।
रवींद्र कालिया के तमाम यार और समकालीन जब-तब झूठ बोलते रहते हैं । दिखावा भी कर लेते हैं । सच में झूठ मिला कर लिखते भी रहते हैं । अपने बारे में भी और दूसरों के बारे में भी । रवींद्र कालिया अपने इन यारों से इस मामले में जुदा हैं । लिखने में वह किसी से मुरव्वत नहीं करते । अपने आप से भी । यह ज़रूर हो सकता है कि जहां जिस प्रसंग में उन को मुश्किल पेश आती है , उस प्रसंग पर ख़ामोश निकल जाते हैं । जैसे अपने महिला प्रसंगों पर वह एकदम ख़ामोश हैं । कहीं कोई संकेत नहीं । पर जो प्रसंग दर्ज करते हैं तो उसे जस का तस । ऐसे जैसे महाभारत का संजय धृतराष्ट्र को आंखों देखा हाल बता रहा हो । हां , अगर दुर्योधन मारा जा रहा है तो वहां ख़ामोश हो जाए इस लिए कि धृतराष्ट्र के लिए यह असहनीय और अप्रिय प्रसंग है तो बात और है । कालिया ने यह भी किया है । बार-बार किया है । पर यह बिलकुल नहीं किया है कि दुर्योधन मारा जा रहा है और कालिया बता रहे हों कि दुर्योधन दूसरों को मार रहा है ।
उपेंद्र नाथ अश्क पर उन का लिखा संस्मरण याद आता है । उस में नीलाभ का गुस्सा याद आता है । ज्ञानरंजन की मिठाईयों का विवरण भूलता नहीं । नहीं भूलते दूधनाथ पर उन के तंज । से रा यात्री और उन की श्वान सेना का आत्मीय वर्णन । आख़िरी संस्मरण उन का आलोक जैन पर पढ़ा । अद्भुत । बार-बार आलोक जैन सामने आ-आ कर खड़े हो जाते हैं । बैठ जाते हैं । उन की बेचैनी गश्त करने लगती है । वह चीखने और चिल्लाने लगते हैं । कोलकाता से दिल्ली तक पसरा छिन्न-भिन्न होता उन का साम्राज्य आंखों में टंग जाता है । कश्मीर में शूटिंग कर रही एक हीरोइन पर जहाज से उन का फूल बरसाना यादों में बस जाता है । भाई अशोक जैन से व्यवसाय में पिछड़ जाना , पिट जाना रिस-रिस कर सामने आ जाता है । उन का बिखरना , उन का टूटना जैसे टूटे कांच की तरह चुभने लगता है । रवींद्र कालिया संस्मरण नहीं लिखते , सिनेमा दिखाते हैं । रेशा-रेशा । एक-एक मनोभाव । एक-एक अंदाज़ । एक-एक दृश्य । लांग शॉट , क्लोज शॉट । लय और छंद में बांध कर । संगीत में ढाल कर । जैसे कोई संगम हो यादों का । गंगा इधर से आ रही है , जमुना उधर से । दोनों मिलती हैं सखियों की तरह । बिना किसी की सीमा का अतिक्रमण किए । और मिल कर बह चलती हैं । एक साथ । कब एक हो जाती हैं पता ही नहीं चलता । रवींद्र कालिया लगता है लगता है अपने संस्मरणों में यही गंगा-जमुनी का , सखी भाव का पाठ पढ़ते-पढ़ाते हैं । उन के संस्मरणों में जैसे चांदनी खिलती है और हम उस चांदनी में नहाने लगते हैं ।
रवींद्र कालिया हिंदी पट्टी में राजनीति , गोलबंदी और तीन तिकड़म भी ख़ूब करते रहे हैं । और पूरी उस्तादी से करते रहे हैं । बाक़ायदा किसी गिरोह की तरह । इस काम के लिए उन्हों ने इलाहाबाद , लखनऊ , कोलकाता और दिल्ली तक में कई पिट्ठू तैयार किए थे । बड़े मनोयोग से । बतौर संपादक लेकिन वह उदार भी रहे हैं एक समय तक । ख़ास कर वागर्थ में । नया ज्ञानोदय में भी शुरुआती दिनों में ठीक रहे । बाद के दिनों में वह अपने पिट्ठुओं के जाल में इस क़दर फंस गए कि उन का उदार संपादक मर गया । अखिलेश और कुणाल जैसे लोग तो थे ही उन के संपादक की मिट्टी पलीद करने के लिए रही सही कसर विभूति नारायण राय जैसे जाहिल , लंपट और रैकेटियर मित्र ने पूरी कर दी । छिनार प्रसंग ने इस रंग को और चटक कर दिया । वह कहते हैं न कि बुद्धिमान दुश्मन ठीक पर मूर्ख दोस्त नहीं । कालिया इन्हीं मूर्ख , चापलूस और चुगलखोर दोस्तों में फंस गए । संपादक होना काजल की कोठरी में रहना होता ही है । बहुत कम संपादक बिना कालिख के बाहर निकल पाते हैं । ज़्यादातर कालिख ले कर ही निकलते हैं । कालिया भी ऐसे ही निकले । मैं मानता हूं कि एक तो छिनार प्रसंग में पड़ना ही नहीं था । यह सच लेकिन अप्रिय विषय था । पर जो पड़ ही गए किसी बेवकूफी के तहत तो नौकरी बचाने के लिए माफ़ी तो हरगिज़ नहीं मांगनी थी । क्यों कि तथ्य तो रवींद्र कालिया के पक्ष में थे और कि अभी भी हैं । उन्हों ने अप्रिय ज़रूर कहा था पर कोई ग़लत बात नहीं कही थी । अगर मैं होता कालिया की जगह तो एक तो ऐसी बात नहीं करता और जो करता भी किसी मूर्खता में तो शर्तिया इस बात पर माफ़ी नहीं मांगता । नौकरी को लात मार कर चला आता ।
रवींद्र कालिया खुल्ल्म खुल्ला कांग्रेस की गोटियां खेलते रहे हैं । छुप-छुपा कर नहीं । अशोक वाजपेयी की तरह मुंह में राम बगल में छुरी की तर्ज़ में नहीं । ज़िक्र ज़रूरी है कि रिश्ते में रवींद्र कालिया और अशोक वाजपेयी साढ़ू भी हैं । देवी प्रसाद त्रिपाठी और जगदीश पीयूष जैसे लोगों से उन की यारी छुपी हुई नहीं रही है । इमरजेंसी में संजय गांधी के लिए वह खुल कर लामबंदी करने के लिए भी जाने गए । वागर्थ और नया ज्ञानोदय में उन की उपस्थिति राजनीतिक संपर्कों के चलते ही हुई थी । छिनार प्रसंग में भी तमाम उठा-पटक के बावजूद अंतत: राजनीतिक संपर्कों ने ही काम किया और ताजो-तख़्त सलामत रहा ।
जब हम पढ़ते थे तब फ़िल्मी गॉसिप्स की तरह लेखकों की गॉसिप्स भी ख़ूब चलती थी । इस गॉसिप्स के चलते ही हम राजेंद्र यादव-मन्नू भंडारी , रवींद्र कालिया-ममता अग्रवाल को जान पाए थे । पहले इन का रोमांस जाना , इन की रचनाएं बहुत बाद में । और आज मुझे लगता है और कि ठीक ही लगता है कि कथा तो मन्नू भंडारी और ममता कालिया ही के पास है । राजेंद्र यादव को अब हम कथा के लिए नहीं हंस के लिए जानते हैं । उन के विवाद , विमर्श और उन की औरतों के लिए जानते हैं । उन की कहानियों का नाम , उन के उपन्यासों की कोई चर्चा क्यों नहीं करता ? जब कि मन्नू भंडारी को तो हम उन की कथा के लिए ही जानते और मानते हैं । महाभोज , यही सच है से लगायत आप का बंटी तक । ममता कालिया को भी हम उन की कथा के लिए जानते हैं । दौड़ जैसा उपन्यास कहां लिख पाए रवींद्र कालिया । नौ साल पत्नी की जैसी चर्चा होती है वैसी चर्चा लायक़ वह कहानी नहीं है । मोहन राकेश के जीवन से जुड़ी कहानी न होती तो नोटिस भी इस तरह न ली जाती । मोहन राकेश के जीवन से जुड़ी कथा ही है मन्नू भंडारी का आप का बंटी । पर वह सिर्फ़ इस लिए ही तो नहीं जानी जाती कि वह मोहन राकेश के और उन के बच्चे , उन के तनाव भरे दांपत्य की कथा है । काला रजिस्टर में भी कुछ नहीं है । बस धर्मवीर भारती से जुड़ी कथा है , इस लिए ही जानी जाती है । ख़ुदा सही सलामत , राना डे रोड , ए बी सी डी आदि भी कालिया को लंबे समय तक याद करवाने वाली रचनाएं नहीं हैं । कालिया को हम याद करते हैं उन के कालजयी संस्मरणों के लिए । उन की शराब और उन के संपादक के लिए । अब अलग बात है कि राजेंद्र यादव और रवींद्र कालिया दोनों ने ही बतौर संपादक ज़्यादातर कहानियां कमज़ोर छापीं । सवा अरब की आबादी में दस-बारह हज़ार छपने वाली पत्रिकाओं में खोखली कहानियां लिखने वाले कहानीकारों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी की । गधों का एक गैंग खड़ा किया जो इन को अपनी पीठ पर बैठा कर इन की जय-जयकार करते रहें । यह लोग इन गधों की खोखली और कमज़ोर कहानियां छाप कर इन गधों को हीरो बनाते रहे और यह गधे जय-जयकार करते रहे हैं । अब देखिए न कि खोखली कहानियां लिखने वाले यह गधे , यह गढ़े हीरो कहां और कितने पानी में हैं ? कौन पढ़ रहा है इन को ? ख़ुद ही पढ़ रहे हैं , ख़ुद ही लड़ रहे हैं । लड़ने के लिए इन की तलवारें तक काठ की हैं ।
जो भी हो रवींद्र कालिया में एक बात जो सब से ज़बरदस्त थी वह उन की सहजता और सरलता । सब को बराबरी में बिठा कर बात करना । राजेंद्र यादव में भी यह तत्व थे । पर रवींद्र कालिया का एक प्लस यह था कि वह सब से वह आदर भाव से भी पेश आते । आम पुरुषों की तरह औरतों में सामान्य दिलचस्पी ही थी उन की । औरतबाज़ या औरतखोर नहीं थे राजेंद्र यादव की तरह । विज़न उन का बहुत साफ था । तमाम ग़लत लोगों से घिरे रहने के बावजूद ग़लत को ग़लत और सही को सही कहने में वह सेकेंड भर का भी समय नहीं लेते थे । जैसे अपने पट्ट शिष्य अखिलेश पर केंद्रित एक पत्रिका पर शशि भूषण द्विवेदी से उन्हों ने चर्चा में कह दिया कि अखिलेश पर छपे संस्मरण गाय पर निबंध जैसे हैं । शशि भूषण द्विवेदी ने यह बात उन्हें उद्धृत करते हुए फ़ेसबुक पर अपनी पोस्ट में लिख दी । कोई और होता तो शायद पलटी मार जाता इस टिप्पणी से । पर रवींद्र कालिया ने पलटी नहीं मारी । बल्कि अपनी प्रति टिप्पणी में अपने इस कहे की तसदीक़ भी कर दी ।
रवींद्र कालिया लखनऊ जब-तब आते रहते थे । अब तो कथाक्रम आयोजन की आंच मद्धम हो रही है पर एक समय कथाक्रम की आंच देखते बनती थी । बात उन दिनों की है जब कथाक्रम अपनी रवानी पर था । उस की गरमी देखते बनती थी । एक बार नामवर सिंह की किसी बात पर गहरा प्रतिवाद किया रवींद्र कालिया ने । पर सत्रावसान पर बाहर आ कर वह नामवर से बात ही बात में मुसकुराते हुए बोले , ' प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो !' नामवर पान कूंचते हुए मंद-मंद मुसकुराते रहे । कालिया कहते थे कि अगर कहीं आप कार्यक्रम में देर से पहुंचे हों और नामवर जी बोल चुके हों तो पछताइए नहीं । परमानंद जी को सुन लीजिएगा । ऐसे चुहुल उन से सुनने को अकसर मिल जाते थे । काशी तो इस तरह की बातें नहीं करते पर दूधनाथ सिंह भी ऐसे चुहुल बड़ी बारीकी से कर लेते हैं । इस का सब से बढ़िया उदाहरण अब की के कथाक्रम में मिला । कथाक्रम सम्मान अखिलेश को दिया गया । रोहिणी अग्रवाल ने परंपरा निभाते हुए अखिलेश की शान में ख़ूब कसीदे पढ़े । पर बतौर मुख्य वक्ता दूधनाथ सिंह ने अखिलेश की बड़े सलीक़े से धुलाई कर दी । डट कर कर दी । लगातार करते रहे । पूरी शालीनता से । गज़ब के धोबी हैं दूधनाथ सिंह । कहने लगे कि अखिलेश ने सिर्फ़ एक ही अच्छी कहानी लिखी है जो मुझ पर लिखी है । अन्वेषण की बड़ी तारीफ़ की थी रोहिणी अग्रवाल ने । दूधनाथ कहने लगे बहुत कच्चा है अन्वेषण । बिलकुल शुरुआती उपन्यास है । निष्कासन पर भी वह कहने लगे कि महाकाव्यात्मक नहीं है । नहीं , बिलकुल नहीं है । बहुत औसत है । इसी विषय पर गिरिराज किशोर का पहला गिरमिटिया ज़रुर महाकाव्यात्मक उपन्यास है । आदि-आदि । रवींद्र कालिया भी ऐसे ही बड़ी शालीनता से लोगों की धुलाई करते थे । आख़िरी बार वह बीते साल आए लखनऊ आए थे पचहत्तर पार चार यार वाले कार्यक्रम में । जिस में तीन यार ही आए । दूधनाथ , काशीनाथ और रवींद्र कालिया । ज्ञानरंजन नहीं आए । पर सच यह है कि ज्ञानरंजन न आ कर भी आए हुए थे । हर किसी की चर्चा में ज्ञानरंजन , उन की मिठाई और उन का ग़ायब रहना , उन का झूठ बोलना ही समाया हुआ था । रवींद्र कालिया बोले तो ठीक-ठाक। बल्कि सब से बढ़िया बोले वह । लेकिन कैंसर से लड़ने में उन की देह टूट गई थी । उन का लंबा क़द अब बीमारी से दुहरा और क्षीण हो गया था । थके-थके से वह फंसे-फंसे दिखे । जैसे कोई पक्षी पिंजरे में क़ैद हो गया हो । यही पक्षी कल पिजरा तोड़ कर उड़ गया । और असहिष्णुता की फर्जी बीन बजाने वाला यह हिंदी समाज कितना कृतघ्न है इतना उत्सव धर्मी है कि जिस दोपहर उन के निधन की ख़बर आ गई उस के बाद भी उस रोज पुस्तक मेले में पुस्तक लोकार्पण के जश्न नहीं थमे । फ़ेसबुक पर लोकार्पण सहित सम्मान , मिलना-जुलना आदि फ़ोटो सहित हर्ष में विभोर थे लोग । पुस्तक मेले में उन को श्रद्धांजलि भी उस रोज नहीं दी गई । निधन रवींद्र कालिया का हुआ है और वर्तमान परिदृश्य में सहिष्णुता के सब से बड़े पैरोकार अशोक वाजपेयी का इकतीस साल पुराना कहा याद आ रहा है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड की गैस त्रासदी के बावजूद कविता समारोह करने के लिए अशोक वाजपेयी ने तर्क दिया था कि, ' मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है । ' हिंदी समाज और लफ्फाजी में सराबोर हिंदी लेखक अब ऐसे ही संवेदनहीनता की नाव में सवार हैं । दिल्ली के पुस्तक मेले में उत्सव है। लखनऊ में उत्सव है । हर कहीं उत्सव है । शोक के लिए कहीं भी किसी के पास एक भी दिन , एक भी क्षण का अवकाश नहीं है। लखनऊ के एक जन जो रवींद्र कालिया के बहुत ख़ास , साहित्य में लगभग उन के अर्दली , एक दिन पहले रोए , ठीक दूसरे ही दिन उत्सव धर्मी हो गए। सच ही कहा था अशोक वाजपेयी ने , ' मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है । ' उत्सव धर्मी ही हुआ जाता है । सचमुच बहुत शर्मनाक स्थिति है । लेकिन इन बेशर्मों की आंख का पानी मर गया है । तिस पर तुर्रा यह कि साहित्य भी रचेंगे। साहित्य की ठेकेदारी भी । पट्टा लिखवा कर आए हैं। हिंदी समाज और लफ्फाजी में सराबोर हिंदी लेखक अब ऐसे ही संवेदनहीनता की नाव में सवार हैं ।
रवींद्र कालिया लखनऊ जब-तब आते रहते थे । अब तो कथाक्रम आयोजन की आंच मद्धम हो रही है पर एक समय कथाक्रम की आंच देखते बनती थी । बात उन दिनों की है जब कथाक्रम अपनी रवानी पर था । उस की गरमी देखते बनती थी । एक बार नामवर सिंह की किसी बात पर गहरा प्रतिवाद किया रवींद्र कालिया ने । पर सत्रावसान पर बाहर आ कर वह नामवर से बात ही बात में मुसकुराते हुए बोले , ' प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो !' नामवर पान कूंचते हुए मंद-मंद मुसकुराते रहे । कालिया कहते थे कि अगर कहीं आप कार्यक्रम में देर से पहुंचे हों और नामवर जी बोल चुके हों तो पछताइए नहीं । परमानंद जी को सुन लीजिएगा । ऐसे चुहुल उन से सुनने को अकसर मिल जाते थे । काशी तो इस तरह की बातें नहीं करते पर दूधनाथ सिंह भी ऐसे चुहुल बड़ी बारीकी से कर लेते हैं । इस का सब से बढ़िया उदाहरण अब की के कथाक्रम में मिला । कथाक्रम सम्मान अखिलेश को दिया गया । रोहिणी अग्रवाल ने परंपरा निभाते हुए अखिलेश की शान में ख़ूब कसीदे पढ़े । पर बतौर मुख्य वक्ता दूधनाथ सिंह ने अखिलेश की बड़े सलीक़े से धुलाई कर दी । डट कर कर दी । लगातार करते रहे । पूरी शालीनता से । गज़ब के धोबी हैं दूधनाथ सिंह । कहने लगे कि अखिलेश ने सिर्फ़ एक ही अच्छी कहानी लिखी है जो मुझ पर लिखी है । अन्वेषण की बड़ी तारीफ़ की थी रोहिणी अग्रवाल ने । दूधनाथ कहने लगे बहुत कच्चा है अन्वेषण । बिलकुल शुरुआती उपन्यास है । निष्कासन पर भी वह कहने लगे कि महाकाव्यात्मक नहीं है । नहीं , बिलकुल नहीं है । बहुत औसत है । इसी विषय पर गिरिराज किशोर का पहला गिरमिटिया ज़रुर महाकाव्यात्मक उपन्यास है । आदि-आदि । रवींद्र कालिया भी ऐसे ही बड़ी शालीनता से लोगों की धुलाई करते थे । आख़िरी बार वह बीते साल आए लखनऊ आए थे पचहत्तर पार चार यार वाले कार्यक्रम में । जिस में तीन यार ही आए । दूधनाथ , काशीनाथ और रवींद्र कालिया । ज्ञानरंजन नहीं आए । पर सच यह है कि ज्ञानरंजन न आ कर भी आए हुए थे । हर किसी की चर्चा में ज्ञानरंजन , उन की मिठाई और उन का ग़ायब रहना , उन का झूठ बोलना ही समाया हुआ था । रवींद्र कालिया बोले तो ठीक-ठाक। बल्कि सब से बढ़िया बोले वह । लेकिन कैंसर से लड़ने में उन की देह टूट गई थी । उन का लंबा क़द अब बीमारी से दुहरा और क्षीण हो गया था । थके-थके से वह फंसे-फंसे दिखे । जैसे कोई पक्षी पिंजरे में क़ैद हो गया हो । यही पक्षी कल पिजरा तोड़ कर उड़ गया । और असहिष्णुता की फर्जी बीन बजाने वाला यह हिंदी समाज कितना कृतघ्न है इतना उत्सव धर्मी है कि जिस दोपहर उन के निधन की ख़बर आ गई उस के बाद भी उस रोज पुस्तक मेले में पुस्तक लोकार्पण के जश्न नहीं थमे । फ़ेसबुक पर लोकार्पण सहित सम्मान , मिलना-जुलना आदि फ़ोटो सहित हर्ष में विभोर थे लोग । पुस्तक मेले में उन को श्रद्धांजलि भी उस रोज नहीं दी गई । निधन रवींद्र कालिया का हुआ है और वर्तमान परिदृश्य में सहिष्णुता के सब से बड़े पैरोकार अशोक वाजपेयी का इकतीस साल पुराना कहा याद आ रहा है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड की गैस त्रासदी के बावजूद कविता समारोह करने के लिए अशोक वाजपेयी ने तर्क दिया था कि, ' मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है । ' हिंदी समाज और लफ्फाजी में सराबोर हिंदी लेखक अब ऐसे ही संवेदनहीनता की नाव में सवार हैं । दिल्ली के पुस्तक मेले में उत्सव है। लखनऊ में उत्सव है । हर कहीं उत्सव है । शोक के लिए कहीं भी किसी के पास एक भी दिन , एक भी क्षण का अवकाश नहीं है। लखनऊ के एक जन जो रवींद्र कालिया के बहुत ख़ास , साहित्य में लगभग उन के अर्दली , एक दिन पहले रोए , ठीक दूसरे ही दिन उत्सव धर्मी हो गए। सच ही कहा था अशोक वाजपेयी ने , ' मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है । ' उत्सव धर्मी ही हुआ जाता है । सचमुच बहुत शर्मनाक स्थिति है । लेकिन इन बेशर्मों की आंख का पानी मर गया है । तिस पर तुर्रा यह कि साहित्य भी रचेंगे। साहित्य की ठेकेदारी भी । पट्टा लिखवा कर आए हैं। हिंदी समाज और लफ्फाजी में सराबोर हिंदी लेखक अब ऐसे ही संवेदनहीनता की नाव में सवार हैं ।
अब तो तमाम संपादक रचना नहीं पढ़ते , चेहरा पढ़ते हैं , नाम पढ़ते हैं । नाम ही छापते हैं , चेहरा ही छापते हैं , बांचते हैं । लेकिन रवींद्र कालिया अब उन बचे-खुचे संपादकों में से रह गए थे जो नए से नए लोगों को भी पढ़ते थे , छापते थे । उस पर बात करते थे । अब जैसे कि मेरी रचनाओं में अकसर भोजपुरी के संवाद होते हैं , भोजपुरी पुट होता है । रवींद्र कालिया ने एक बार बात ही बात में इस से बचने की सलाह दी । मैं ने कहा कि माहौल बुनने के लिए ऐसा करना पड़ता है । वह फटाक से बोले , ' प्रेमचंद से बड़ा भोजपुरी वाला हिंदी में कौन लेखक है ? उन की रचनाओं में तो भोजपुरी नहीं मिलती ।' सच रवींद्र कालिया की कहानियों में भी पंजाबी नहीं मिलती । उन के कथा गुरु मोहन राकेश की कहानियों में भी नहीं । तब से अब इस गड़बड़ी से भरसक बचता हूं मैं ।
मेरा सौभाग्य है कि लखनऊवा राजनीति और कुटिलता की आंच के बावजूद रवींद्र कालिया का स्नेह मुझे निरंतर मिलता रहा । वह जब संपादक नहीं थे तब भी और संपादक रहे तब भी । वागर्थ और नया ज्ञानोदय दोनों जगह मांग कर मेरी कहानियां छापीं उन्हों ने । लोक कवि अब गाते नहीं पर जब मुझे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान मिला तो उन्हों ने मुझे बधाई देते हुए कहा कि मुझे भी यह मिला था पहले । यह संयोग ही है कि मुझे उत्तर प्रदेश हिंदी संसथान के दो सम्मान रवींद्र कालिया के साथ ही मिले । जब उन्हें साहित्य भूषण मिला तो मुझे प्रेमचंद सम्मान मिला । जब उन्हें लोहिया सम्मान मिला तो मुझे यशपाल सम्मान । हर बार उन की बधाई भरा स्नेह भी । वह अपनी लंबी बाहों में भर लेते । मेरा उपन्यास बांसगांव की मुनमुन भी वह छापना चाहते थे नया ज्ञानोदय में । मैं ने भेजा भी उन्हें उन के कहने पर ही । संभवत: वह किसी के कहने में आ गए । कान के कच्चे हो चले थे । मुझे इंतज़ार करवाने लगे । पर ज़्यादा इंतज़ार मैं नहीं कर पाता , नहीं कर पाया । प्रकाशक को छापने को दे दिया । उन से क्षमा मांग ली । हृदयनाथ मंगेशकर का एक दिलचस्प , विवादित और बोल्ड इंटरव्यू भी नया ज्ञानोदय में उन्हों ने छापा । और बहुत जल्दी । मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के प्रशंसकों में थे वह । जब इस उपन्यास पर कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट हुआ तो हिम्मत बंधाते हुए कमलेश्वर से बात करने की सलाह दी उन्हों ने । यह कहते हुए कि कमलेश्वर भी लड़ चुके हैं कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट । और सचमुच कमलेश्वर जी की सलाह बहुत काम आई । वह निरंतर मेरी हौसला अफ़जाई करते रहे थे । राजेंद्र यादव ने हंस में इस बाबत संपादकीय भी लिखी । लेकिन रवींद्र कालिया को राजेंद्र यादव का वह लिखा पसंद नहीं आया था तब । इलाहबाद में सतीश जमाली सहित कई लोगों को उन्हों ने यह उपन्यास पढ़वाया था तब । इन दिनों वह भूले-भटके फ़ेसबुक पर जब आते थे तो मेरी टिप्पणियां भी पढ़ते थे । फ़ोन कर तारीफ़ भी करते थे । मिलने पर भी वह कहते कि बहुत दिलेरी से लिखते हैं आप । बाज दफ़ा वह फ़ेसबुक के मार्फ़त मेरे ब्लॉग सरोकारनामा पर भी जाने लगे थे । जुलाई में किसी दिन एक दोपहर उन का फ़ोन आया । कहने लगे , ' आप के कुछ संस्मरण हैं सरोकारनामा पर । अच्छे लग रहे हैं । नेट पर लंबा पढ़ना मुश्किल होता है । हो सके तो किताब भेज दीजिए । गाज़ियाबाद का अपना नया पता एस एम एस किया । मैं ने यादों का मधुबन और हम पत्ता , तुम ओस दोनों भेज दिया । किताबें मिलीं तो वह फ़ोन पर बता कर ख़ुश हो गए । बाद में सारे संस्मरण पढ़ कर भी उन्हों ने बात की । प्रभाष जोशी वाले संस्मरण पर वह फ़िदा हो गए थे । कहने लगे इस को सब से ज़्यादा इंज्वाय किया मैं ने । संस्मरणों के मास्टर से अपने संस्मरणों की तारीफ़ सुन कर मन गदगद हो गया था । वह कहने लगे कभी दिल्ली आइए तो मिलते हैं , बैठ कर बात करेंगे । भारत सरकार की तरफ से भारत महोत्सव में उन दिनों मॉरीशस जाने की बात थी । ममता जी भी लेखकों के उस दल में थीं । मैं ने कहा कि उसी दौरान आऊंगा तो मिलूंगा । पर वह कार्यक्रम ही बाद में रद्द हो गया तो मेरा जाना भी टल गया । अब क्या भेंट होगी , क्या बात होगी जब रवींद्र कालिया ही चले गए । संस्मरणों में चांदनी खिलाने वाला रवींद्र कालिया नामक वह चांद चला गया । यादों की गंगा अब चांदनी में कैसे नहाएगी भला ।
कहानी संग्रह : नौ साल छोटी पत्नी, काला रजिस्टर, गरीबी हटाओ, बाँके लाल, गली कूचे, चकैया नीम, सत्ताइस साल की उमर तक, जरा सी रोशनी, रवींद्र कालिया की कहानियाँ
उपन्यास : खुदा सही सलामत है, ए बी सी डी, 17 रानडे रोड
संस्मरण : स्मृतियों की जन्मपत्री, कामरेड मोनालिज़ा, सृजन के सहयात्री, ग़ालिब छुटी शराब, रवींद्र कालिया के संस्मरण
व्यंग्य : राग मिलावट मालकौंस, नींद क्यों रात भर नहीं आती
संपादन : वागर्थ, नया ज्ञानोदय, गंगा जमुना, वर्ष (प्रख्यात कथाकार अमरकांत पर एकाग्र), मोहन राकेश संचयन, अमरकांत संचयन सहित अनेक पुस्तकों का संपादन
रवींद्र कालिया का रचना संसार
कहानी संग्रह : नौ साल छोटी पत्नी, काला रजिस्टर, गरीबी हटाओ, बाँके लाल, गली कूचे, चकैया नीम, सत्ताइस साल की उमर तक, जरा सी रोशनी, रवींद्र कालिया की कहानियाँ
उपन्यास : खुदा सही सलामत है, ए बी सी डी, 17 रानडे रोड
संस्मरण : स्मृतियों की जन्मपत्री, कामरेड मोनालिज़ा, सृजन के सहयात्री, ग़ालिब छुटी शराब, रवींद्र कालिया के संस्मरण
व्यंग्य : राग मिलावट मालकौंस, नींद क्यों रात भर नहीं आती
संपादन : वागर्थ, नया ज्ञानोदय, गंगा जमुना, वर्ष (प्रख्यात कथाकार अमरकांत पर एकाग्र), मोहन राकेश संचयन, अमरकांत संचयन सहित अनेक पुस्तकों का संपादन
जितना बेलौस कालिया जी का संस्मरण उतना ही बेलौस आपकी टिप्पणी !बधाई !!मुझे तो उनका हाल का एक संस्मरण 'बेचैन रूह का मुसाफिर',जो तद्भव में छपा था ,बहुत अच्छा लगा और इसे मैंने तीन बार पढ़ा ।
ReplyDeleteबेहतरीन संस्मरण लिखा आपने। विनम्र श्रद्धांजलि कालिया जी को।
ReplyDeleteबेहतरीन संस्मरण लिखा आपने। विनम्र श्रद्धांजलि कालिया जी को।
ReplyDeleteRavindra Kalia ji Bahut hi acche rachnakar evam gyani jan they.
ReplyDeleteUnki rachna sadaiv padi jayegi...
डूब कर किया गया स्मरण। बधाई।
Deleteडूब कर किया गया स्मरण। बधाई।
Deleteडूब कर किया गया स्मरण।बधाई।
ReplyDeleteडूब कर किया गया स्मरण।बधाई।
ReplyDeleteबहुत खूब..
ReplyDeleteखरी खरी लिखी बातें सुहाती है अब चाहे चित्त पड़ें या पट्ट
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