Thursday 14 January 2016

तुम्हारी सरहदों पर गांधी के कुछ भजन गाना चाहता हूं

 
फ़ोटो : सुलोचना वर्मा


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 
   
आसमान धुंधला ही सही शांति के कबूतर उड़ाना चाहता हूं
तुम्हारी सरहदों पर गांधी के कुछ भजन गाना चाहता हूं

साइमन कमीशन गो बैक की पतंग उड़ाई थी लखनऊ ने 
आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमन की पतंग उड़ाना चाहता हूं

डिप्लोमेसी तुम करो तुम ही जानो जोड़-तोड़ हार  जीत
यहां तो मनुष्यता की जीत का  ऐलान लिखना चाहता हूं

सरहद से आई है एक फौजी के शहादत की मनहूस ख़बर
उस की विधवा के बहते आंसू को सैल्यूट लिखना चाहता हूं 

संसद सुप्रीम कोर्ट सभी शक़ के घेरे में यक़ीन नहीं किसी पर
नंगई के इस दौर में बहुत धीरे से एक ईमान लिखना चाहता हूं

बारिश अब की हुई नहीं ठंड  ग़ायब ओस भी है लापता
धरती की लाचारी आंसू दुःख और संताप लिखना चाहता हूं

माघ की नरम ठंड में धूप तीखी लगती है रजाई बेमानी 
मौसम के रूठने मनाने का शोक गीत गाना चाहता हूं

मोबाईल और इंटरनेट के दौर में भी वह चिट्ठी लिखवाती है 
वसंत जैसे आया हो बाग़ में आम के बौर लिखना चाहता हूं 

पैसा मां बाप पैसा ही सब कुछ है पैसा सब से बड़ा भगवान 
इस भयावह दौर में घास पर भीगी ओस लिखना चाहता हूं 
  
घर का लिपा आंगन अम्मा की लोरी दादी के वह क़िस्से
ममत्व से सनी गोद में बैठ कर दूध भात लिखना चाहता हूं 

माथे पर टिकुली आंख में काजल गाल पर मासूम डिंपल 
तुम्हारे इसी गाल पर चुंबन बेहिसाब लिखना चाहता हूं


[ 14 जनवरी , 2016 ]

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