Sunday, 10 January 2016

लेकिन सागर से उछल कर मिलती तो है

फ़ोटो : गौतम चटर्जी


ग़ज़ल 

रूठ गई है ज़िंदगी उस से लेकिन निर्मल होने का विश्वास देती तो है
मैली हो गई है  बहुत गंगा लेकिन सागर से उछल कर मिलती तो है

छन्नू लाल मिश्र गाते हैं कबीर के पद में रविशंकर का सितार बजता रुनझुन
बिस्मिल्ला खां नहीं हैं पर उन की शहनाई में गंगा की गुनगुन  गूंजती तो है

गंगा और गाय को लोगों ने हिंदू बना दिया आपस में मरने मारने लगे
लेकिन वह तो मां है  बिना  भेद भाव के मनुष्यता को जीवन देती तो है

महादेव की शोभा काशी का मुकुट बिस्मिल्ला की शहनाई का गमकता गुरुर
यह गंगा ही है जो सब का घाव धोती हुई संगम की शालीनता सिखाती तो है 

नदियों की सखी है सब को साथ ले कर चलती है किसी से फ़र्क नहीं करती 
पतित पावनी है जीवनदायिनी है मोक्ष की गंगा सागर तक ले कर जाती तो है

सेक्यूलरिज्म और कम्युनलिज्म की बेहिसाब बहसें निरर्थक हैं बेमानी हैं
मंहगाई और भ्रष्टाचार की मारी जनता मासूम सही यह सच समझती तो है

बेरोजगारी बहुत है भ्रष्टाचार भी गुंडों और जातियों का बोलबाला भी बहुत
गंगा एक ही है दुनिया में बहती हुई समूचे देश को एक सूत्र में जोड़ती तो है 

[ 10 जनवरी , 2016 ]

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