दयानंद पांडेय
उनके मुखाभिनय का फलक भी काफी विस्तार के साथ उनकी आंखों में, तरल आंखों में उपस्थित रहता था। उनकी हिरनी सी आकुल आंखों और पतले होठों की जो मार थी, वह हलके से हलके दृश्यों को भी दमदार बना देती थी। इतना ही नहीं मुझे तो लगता है शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल, दीप्ति नवल, तब्बू और अब बिपाशा बसु सरीखी अभिनेत्रियों की नींव में हैं नूतन। यह सारी अभिनेत्रियां नूतन ही का विस्तार जान पड़ती हैं। बंदिनी नूतन की महत्वपूर्ण फ़िल्म है। इस एक बंदिनी में नूतन का अभिनय संसार एक साथ कई क्षितिजों को छूता है। ‘मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहि श्याम रंग दई दे’ गुलज़ार लिखित और निर्देशित इस गीत में नूतन बिलकुल लरिकइयां का सा माहौल बुनती हैं। जेल में गाने वाले गीत में जो सरलता वह विकट विह्वलता के साथ बुनती हैं वह गुनने और गुनगुनाने की गमक को चमक दे जाता है। अशोक कुमार के साथ वाले दृश्यों में वह दुस्साहसी प्रेमिका का रूप इस विकलता से जीती हैं कि अशोक कुमार भी कई बार भहरा जाते हैं। ख़ास कर फ़िल्म के उस अंतिम फ्रेम में जब ‘मेरे साजन हैं उस पार, मैं इस पार’ गीत को एस.डी. बर्मन की गायकी लगभग गुहारती है तो नूतन के होंठ तो हिल हिल के ख़ामोश रह जाते हैं।
पर आंखें? आंखें ख़ामोशी तोड़ कर बोलती ही नहीं लगभग चीख़ती हुई पुकारती हैं, अशोक कुमार को ‘मैं बंदिनी पिया की।’ और वह दौड़ती क्या बिलकुल आंधी की तरह स्टार्ट स्टीमर में ऐसे चढ़ जाती हैं गोया भूचाल आया हो। उनके अभिनय की आग भी दरअसल यही है। नूतन की आंखों का उनके मुखाभिनय, बल्कि समूचे अंगाभिनय का इस एक फ्रेम में विमल राय ने नूतन का बेस्ट ले लिया है। मन के द्वंद्व को यहां देह से दिखाना नूतन ही के वश की बात थी। और न सिर्फ़ मन का द्वंद्व, मन की तरलता भी इस आर्द्रता से वह परोसती हैं कि मन उद्वेलित हुए बिना नहीं रह पाता। एस.डी. बर्मन की गायकी की गुहार और नूतन की आंखों की पुकार विमल राय के निर्देशन में मथ कर, एक साथ मिल कर हिंदी सिने दुनिया को एक ऐसा यादगार फ्रेम थमा जाती हैं जिसका रंग बड़ा दाहक है। इसी फ़िल्म में कै़दी का जीवन जीते हुए ख़ास कर चक्की पीसने वाले दृश्य में जो रंग वह भरती हैं उससे धर्मेंद्र भी ध्वस्त हो जाते हैं।
संकोच, झिझक, अकुलाहट और तिस पर आग भरी आह जब वह एक मीठे से गीत में भी भर देती हैं अपने अभिनय के बूते तो वह अभिनय का अनुपम अनुभव संसार भी हमें थमा जाती हैं। ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस, पिया का घर प्यारा लगे।’ गीत इस का सर्वोत्तम उदाहरण है। फ़िल्म सरस्वती चंद्र के इस गीत में नूतन तल्ख़ी और चुलबुलापन एक साथ चुआती हैं तो उसकी चुभन चिहुंकाती भी है। नूतन के ठुमके में इस गीत के दो अंतर्विरोधी रंग इस कसाव के साथ कसमसाते हैं कि कूतना कठिन हो जाता है। मोहक मादकता का रंग ‘पिया’ के लिए तो तल्ख़ी की तुर्शी और ताव प्रेमी के लिए। ‘छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए, यह मुनासिब नहीं आदमी के लिए।’ गीत में भी उनका तेवर देखने लायक है।
नूतन ने सुजाता और सीमा जैसी यादगार फ़िल्में की तो छलिया जैसी चालू फ़िल्मों से भी वह बाबस्ता रहीं। ‘दिल ने फिर याद किया’ फ़िल्म में नूतन धर्मेंद्र और रहमान के साथ हैं। ‘दिल ने फिर याद किया’, बर्क सी लहराई है’ गीत में हालांकि बाज़ी रहमान मारते हैं और बीस ठहरते हैं पर नूतन सुमन कल्यानपुर की आवाज़ में जब शम्मआ की क़िस्मत क्या है उच्चारती हैं तो लगता है कि जैसे बर्फ़ पिघल गई हो और उनका बुर्का इसमें काफी इज़ाफ़ा भरता है। कोई चार दशक से भी ज़्यादा समय तक हिंदी सिनेमा में समाई हुई नूतन जैसे विविध चरित्र जीती रहीं, किसी एक फ्रेम या चौखटे में फिट नहीं रहीं। कहूं कि ग्लैमर गर्ल बन कर नहीं (इस्मत चुगताई वाली फ़िल्म छोड़ कर जिसमें वह बलराज साहनी और तलत महमूद के साथ थीं) रहीं। पर करोड़ों दिलों पर बड़ी संजीदगी से राज करती रहीं और शायद अभी भी करती रहेंगी। बीच में कुछ समय तक वह शादी वादी करके बच्चे पालने में लग गईं। फिर कुछ दिन बाद जब वह पलटीं तो मैं तुलसी तेरे आंगन की में विजय आनंद और आशा पारेख के साथ राज खोसला के निर्देशन में।
छः फ़िल्म फे़यर एवार्ड समेटे सादे नाक नक्श वाली नूतन संजीदा अभिनेत्री के नाते दर्शकों के एक ख़ास कोने में हमेशा जमी रहीं। सही मायने में नूतन स्टार वाली हिरोइन नहीं थी। वह तो अभिनेत्री थीं। शायद इसी लिए चार दशक का लंबा फ़िल्मी सफ़र बिना ज़्यादा उतार चढ़ाव के वह जी गईं। और ग्लैमर के गंध को वह ज़्यादा नहीं जी पाईं तो यह अच्छा ही हुआ। अगर नूतन भी ग्लैमर की गमक में डूब गई होतीं तो हम से एक संवेदनशील अभिनेत्री क्षमा करें विरल संवेदना को जीने वाली यह छरहरी अभिनेत्री हम से बहुत पहले ही बिला गई होती। जब कि नूतन का फिगर उनकी उम्र के आख़ीर चौवनवें बसंत में भी ऐसा था कि षोडषी की भूमिका में भी फिट पड़ती थीं। शुरू ही से उनका फिगर ऐसा था और वह चाहतीं तो ग्लैमर गर्ल बन कर काफी चमक बटोर सकती थीं। अपनी छोटी बहन तनूजा की तरह। या मां शोभना समर्थ की तरह। लेकिन उन्होंने अपने फिगर से चमक बटोरने के बजाय दमक ही बटोरना ठीक समझा। अभिनय की दमक। तब जब कि नूतन की समकालीन वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर जैसी संवेदनशील अभिनेत्रियां ग्लैमर में ऊभ चूभ रहीं।
पर नूतन? नूतन तो अपनी सादगी और उनके दर्शक भी उनकी सादगी पर ही मरते मिटते रहे। वह अस्सी के दशक में अपने बेटे मोहनीश बहल को तो फ़िल्मों में ठीक से नहीं टिका पाईं पर खुद की उपस्थिति पर उंगली नहीं उठने दी। मेरी जंग और कर्मा में चरित्र अभिनेत्री क्या मां बन के वर्ह आइं। पर नई नवेली हीरोइनों की छुट्टी करती हुई। नूतन के दपदपाते सौंदर्य की सौम्यता की आंच में इन हीरोइनों का लपलपाता मेकअप वाला सौंदर्य बुझ-बुझ जाता है। सिर्फ़ यह पर्दे पर देख कर कोई कह नहीं सकता था कि वह पचास की हो गई हैं शायद इसी लिए कर्मा और मेरी जंग दोनों फ़िल्मों के मुख्य गाने नूतन पर फ़िल्माए गए। मेरी जंग में जिस विक्षिप्त स्त्री को वह जीती हैं और जिस संक्षिप्तता में जीती हैं उसमें भी उनकी आंखों का अंगार लपलपाता रहता है। जबकि ‘ज़िंदगी हर क़दम एक नई जंग है’ गीत में उनकी आंख की ललक दर्ज करने लायक़ है। कर्मा में तो वह दिलीप कुमार के साथ हैं और ‘ऐ वतन तेरे लिए’ और ‘दुनिया भर में अफसर हूं पर आई लव यू।’ में वह साबित करती हैं कि दिलीप कुमार से उनकी परफार्मेंस दबती नहीं है, वरन उभरती है।
पर नूतन? नूतन तो अपनी सादगी और उनके दर्शक भी उनकी सादगी पर ही मरते मिटते रहे। वह अस्सी के दशक में अपने बेटे मोहनीश बहल को तो फ़िल्मों में ठीक से नहीं टिका पाईं पर खुद की उपस्थिति पर उंगली नहीं उठने दी। मेरी जंग और कर्मा में चरित्र अभिनेत्री क्या मां बन के वर्ह आइं। पर नई नवेली हीरोइनों की छुट्टी करती हुई। नूतन के दपदपाते सौंदर्य की सौम्यता की आंच में इन हीरोइनों का लपलपाता मेकअप वाला सौंदर्य बुझ-बुझ जाता है। सिर्फ़ यह पर्दे पर देख कर कोई कह नहीं सकता था कि वह पचास की हो गई हैं शायद इसी लिए कर्मा और मेरी जंग दोनों फ़िल्मों के मुख्य गाने नूतन पर फ़िल्माए गए। मेरी जंग में जिस विक्षिप्त स्त्री को वह जीती हैं और जिस संक्षिप्तता में जीती हैं उसमें भी उनकी आंखों का अंगार लपलपाता रहता है। जबकि ‘ज़िंदगी हर क़दम एक नई जंग है’ गीत में उनकी आंख की ललक दर्ज करने लायक़ है। कर्मा में तो वह दिलीप कुमार के साथ हैं और ‘ऐ वतन तेरे लिए’ और ‘दुनिया भर में अफसर हूं पर आई लव यू।’ में वह साबित करती हैं कि दिलीप कुमार से उनकी परफार्मेंस दबती नहीं है, वरन उभरती है।
आखि़री बार नूतन छोटे पर्दे पर आईं विमल मित्र के मुजरिम हाज़िर में विधवा की केंद्रीय भूमिका में। उत्पल दत्त के साथ उन्हें अभिनय की नई रेखाएं फिर गढ़ने को मिलीं। डोली वाले दृश्यों में जो बेकली वह उड़ेलती हैं लगभग उसी अनुपात में उत्पल दत्त के साथ के दृश्यों में धारदार संवादों के बावजूद संकोच भी परोसती हैं तो उनका अभिनय अंगार बन जाता है, उनकी आह हाहाकार बन जाती है। मिलन फ़ि़ल्म के ‘युग-युग से ये गीत मिलन के गाते रहे हैं गाते रहेंगे’ गीत में नूतन की आंखों में जो उल्लास उमड़ता है, ‘सावन का महीना पवन करे सोर’ में जो अबोधता छलकती है, वह उल्लास और अबोधता पर्दे पर अब नहीं गढ़ी जाती। क्यों? क्योंकि नूतन को हमसे बिलाए दो दशक हो गए हैं। वह पिया के घर दूर कहीं चली गई हैं। कबीर के पिया के घर। वह गीत गाती हुई ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस, पिया का घर प्यारा लगे।’ ठीक वही तल्ख़ी ठीक वही दंश, वही आह, और वही अंगार जो वह सरस्वती चंद्र में ठुमके लगा कर बो जाती हैं। (साभार-लमही)
If beauty, dignity, elegance and innocence could be fused into a person ,her name was Nutan,in acting ability she towered above everybody else.
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