Friday, 27 January 2012

संगम की प्रतिमूर्ति

दयानंद पांडेय 


प्रयाग में संगम की सी शालीनता की स्वीकार्यता अगर किसी व्यक्ति में निहारनी हो तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से मिलिए। गंगा का प्रवाह, यमुना का पाट और सरस्वती का ठाट एक साथ समेटे मद्धिम-मद्धिम मुसकुराते हुए वह कई बार शिशुओं सी अबोधता बोते मिलते हैं।

उनकी कविताओं में मां, प्रेमिका, प्रकृति और व्यवस्था विरोध वास करते हैं। उनके व्यक्तित्व में सादगी, सरलता, सफलता और सक्रियता समाई दिखती है। अमूमन सफलता लोगों की सादगी और सरलता सोख लेती है। लेकिन विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की सफलता उन की सादगी से ऐसे मिलती है गोया यमुना गंगा से आ कर मिलती है। दोनों एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करतीं, साथ मिल कर कल-कल, छल-छल करती बह लेती हैं। साथ ही सरस्वती सरीखी उन की विद्वता भी साथ हो लेती है। सत्तर की इस उमर में किसी संत सी उन की सक्रियता ऐसे सधती दिखती है जैसे सरयू में गंडक और राप्ती अपनी राह ढूंढ़ एकाकार हो रही हों। और फिर सरयू गंगा में। नहीं आज की तारीख़ में पचास-पचपन की उमर में लोग बुदबुदाने लगते हैं, ‘डर लागे अपनी उमरिया से!’ पर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी सत्तर की उम्र में भी प्रेम की डगरिया पर बेधड़क चलते मिलते हैं। कुछ प्रेमी होते हैं जो अपनी प्रेमिकाओं से आई लव यू नहीं कहते पर प्यार करते रहते हैं। पूरी शिद्दत और पूरी गरमी से। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ऐसे ही प्रेमी हैं। अतृप्त प्रेमी। चुपचाप प्रेम करने वाले। प्रेम का डंका नहीं बजाते वह, ‘प्यार मैं ने भी किए हैं / मगर ऐसे नहीं / कि दुनिया पत्थर मार-मार कर अमर कर दे।’ या फिर ‘मेरे ईश्वर / यदि अतृप्त इच्छाएं / पुनर्जन्म का कारण बनती हैं / तो फिर जन्म लेना पड़ेगा मुझे / प्यार करने के लिए।’

कब आप की वह मदद कर दें यह आप भी नहीं जान सकते। फिर वह आप से मिलेंगे भी तो ऐसे गोया उन्हों ने कुछ किया ही न हो। आप याद भी दिलाएं तो वह मद्धिम हंसी हंस कर टाल जाएंगे। कुछ प्रिय हो, कुछ अप्रिय हो हर बार वह यही करते हैं। ऐसे ही करते हैं। किसी को असमंजस में वह नहीं डालते। ऐसा मैं ने कइयों बार देखा है। खुद भी असमंजस में नहीं पड़ते। परिस्थितिजन्य कोई बात आती भी है तो वह चुप रह कर टाल जाते हैं। यह उन का लोगों से उत्कट प्रेम ही है, कुछ और नहीं। पर लेखक के स्तर पर जब कहीं कुछ बात आती है, कोई बात चुभती है तो उस का प्रतिरोध वह पूरी ताकत से करते हैं। हां, पर शालीनता वह फिर भी नहीं छोड़ते। संगम की सी शालीनता। वह ऐसे ही हैं, शायद ऐसे ही रहेंगे।

वक्त ने बहुतों को बदल दिया। इतिहास भूगोल बदल दिया। ख़ास कर गंडक नदी के किनारे बसा उन का गांव रायपुर भैंसही भेड़िहारी का भूगोल बार-बार बदलता रहा है। नदी के कटान की यातना है यह। जब 20 जून, 1940 को वह पैदा हुए तो उन का गांव गोरखपुर ज़िले में था, फिर ज़िला देवरिया हो गया, फिर पड़रौना हो गया अब कुशीनगर ज़िला है। ज़िला बदलता रहा तो तहसील भी बदलती रही। शायद तभी वह लिख पाए, ‘दिन बीतते रहे / मेरी याददाश्त धुंधली होती रही / भूलता रहा / साकिन मौजा तप्पा परगना।’ जो हो वह मानते अपने को गोरखपुर का ही हैं। यह शायद गंडक और राप्ती का सरयू में मिलना है। कि सरयू का गंगा में मिलना। कहना कठिन है।

जो भी हो पर पहले पीछे मुड़ कर देखता हूं, फिर आज को देखता हूं तो पाता हूं कि सब को और सब कुछ को बदल देने वाले वक्त ने जाने क्यों विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को नहीं बदला। कोई तीन दशक से भी अधिक समय से उन्हें ऐसे ही देख रहा हूं। वही खादी का धोती-कुर्ता, घर में वही सफ़ेद लुंगी बंडी। वही धीरे से सुर्ती ठोंक कर खाना, धीरे से मुसकुराना, वही सरलता, सादगी और वही निश्छलता। ज़रा भी दंभ नहीं। वह अपने घर में सोफे पर बैठ कर भी ऐसे बतियाते हैं जैसे गांव में बैठे कउड़ा तापते बतिया रहे हों। सड़क पर भी किनारे-किनारे ऐसे चलते हैं गोया किसी खेत की मेड़ पर चल रहे हों। उन का यह देशज ठाट मुझे बार-बार मोहित करता रहा है।

विश्वनाथ जी को छोड़िए तीन दशक से भी ज़्यादा समय से निकल रही उन की पत्रिका दस्तावेज़ भी नहीं बदली। आवरण पृष्ठ पर छपता वह गोला किसी को उगता सूरज जान पड़ता है तो किसी को डूबता सूरज। किसी को पृथ्वी जान पड़ता है तो किसी को समय का पहिया। किसी को कुछ तो किसी को कुछ। पर वह गोला नहीं बदला। दस्तावेज़ का तेवर और कलेवर भी नहीं। लोग समय देख कर लाइन बदल लेते हैं पर विश्वनाथ जी न अपनी लाइन बदलते हैं न उन का दस्तावेज़। तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, दस्तावेज़ और उन का बेतियाहाता, गोरखपुर का वह घर, वह पता सभी कुछ कोई तीन दशक से अधिक समय से जस के तस हैं। गंवई बोली में कहूं तो अपने पानी पर। किसी ने भी रंग नहीं बदला। और तो और बेतियाहाता का भूगोल काफी बदल गया पर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के घर के ठीक बगल में लगी आरा मशीन भी नहीं बदली। जस की तस बदस्तूर जारी है। यह कौन सा संयोग है विश्वनाथ जी? विश्वनाथ जी के छोटे भाई जो पहले साथ रहते थे, अलग रहने लगे। बच्चे जो छोटे थे, बड़े हो गए, नौकरी करने लगे, विश्वनाथ जी की ही तरह पढ़ाने लगे, उन के बच्चे हो गए मतलब विश्वनाथ जी, बाबा विश्वनाथ हो गए फिर भी नहीं बदले। यह क्या है विश्वनाथ जी?

कविता, आलोचना, संस्मरण और संपादन को एक साथ साध लेना थोड़ा नहीं पूरा दूभर है। पर विश्वनाथ जी इन चारों विधाओं को न सिर्फ़ साधते हैं बल्कि मैं पाता हूं कि इन चारों विधाओं को यह वह किसी निपुण वकील की तरह जीते हैं। बात व्यवस्था की हो, प्रेम की हो, प्रतिरोध की हो, हर जगह वह आप को जिरह करते मिलते हैं। जिरह मतलब न्यायालय के व्यवहार में न्याय कहिए, फ़ैसला कहिए उस की आधार भूमि है जिरह। तमाम मुकदमे जिरह की गांठ में ही बनते बिगड़ते हैं। तो मैं पाता हूं कि विश्वनाथ जी अपने समूचे लेखन में जिरह को अपना हथियार बनाते हैं। उन की कविताओं को पढ़ना इक आग से गुज़रना होता है जहां वह व्यवस्था से जिरह करते मिलते हैं। ज़रूरत पड़ती है तो फै़सला लिखने वाले से भी, ‘देखो उन्हों ने लूट लिया प्यार और पैसा/धर्म और ईश्वर/कुर्सी और भाषा।’ अच्छा वकील न्यायालय में ज़्यादा सवाल नहीं पूछता अपनी जिरह में। विश्वनाथ जी भी यही करते हैं। कई बार वह कबीर की तरह जस की तस धर दीनी चदरिया का काम भी करते हैं। और यह करते हुए वह बड़े-बड़ों से टकरा जाते हैं। कविता में भी, आलोचना में भी, संस्मरणों में भी और अपने संपादकीय में भी। हां, लेकिन वह आक्रमण नहीं करते, बल्कि आइना रखते हैं। जिरह का आइना। आइना रख कर चुप हो जाते हैं।


बनारस में मेरे एक मित्र हैं गौतम चटर्जी। हिंदी, बांग्ला, अंगरेजी, संस्कृत सहित कई भाषाओं पर साधिकार बात करते हैं। पत्रकार भी हैं, रंगकर्मी भी। बी.एच.यू. से कभी मैथमैटिक्स में एम.एस.सी., पी. एच. डी. किया था गौतम चटर्जी ने पर उसी बी.एच.यू. में आज पत्रकारिता पढ़ाते हैं। इस के पहले काशी विद्यापीठ में थिएटर पढ़ाते थे। संगीत, साहित्य और थिएटर में उन का हस्तक्षेप महत्वपूर्ण है। बादल सरकार की आत्मकथा का उन्हों ने अनुवाद किया है जब कि सुप्रसिद्ध तबला वादक किशन महराज की जीवनी लिखी है। नामवर सिंह की जब भी चर्चा होती है तो गौतम चटर्जी बस एक ही बात कह कर बात ख़त्म कर देते हैं कि, ‘नामवर सिंह मूर्ख हैं और धूर्त भी। कुछ नहीं जानते हैं। सिर्फ़ बाजीगर हैं।’ गौतम चटर्जी की यह बात मुझे बेहद अश्लील और अशोभनीय लगती। इस का प्रतिकार करता और नामवर सिंह के बोलने की कला पर अपनी मुग्धता का बखान करता। तो वह बिदक जाते। पर जब दस्तावेज़ में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की एक लंबी संपादकीय ‘राम विलास शर्मा की बरसी पर आलोचना का कट्टरतावाद’ पढ़ी तो लगा कि अरे गौतम चटर्जी तो नामवर के लिए कुछ भी नहीं कहते।

नामवर सिंह के फासिज़्म का इस कदर अनावरण विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ही कर सकते थे। बिना छियोराम छियो कहे विश्वनाथ जी ने नामवर जी की जो धुलाई की है और पूरी प्रामाणिकता से कि समूचे देश ने तो पूरी नोटिस ली इस की, तमाम पत्रिकाओं ने इस संपादकीय को फिर-फिर छापा भी। पर नामवर जी ने पलट कर सांस भी नहीं ली। नामवर सिंह के फासिज़्म और अंतर्विरोध पर विश्वनाथ जी की यह संपादकीय टिप्पणी नामवर जी की छुद्रता, छल-कपट सभी को एक साथ प्याज की परत-दर-परत उधेड़ती चलती है। कि छि-छि करने को जी करता है। राजेंद्र यादव को ले कर लिखी गई विश्वनाथ जी की संपादकीय टिप्पणियां भी यही काम करती हैं। पर यहां से भी कोई सदा पलट कर नहीं आती। आती भी कैसे और किस राह से भला? हां, यह ज़रूर है कि कई बार वह अपनी संपादकीय में संस्मरण भी भर देते हैं। जैसे विष्णुकांत शास्त्री और विद्यानिवास मिश्र के निधन पर। और इन संस्मरणों में भी कई-कई बार बातों को दुहराते तिहराते चलते हैं तो ज़रा रसभंग भी होता है।

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हालांकि खेमेबाज़ी के लिए जाने नहीं जाते तो भी उन्हें अज्ञेय, विद्यानिवास मिश्र, गोविंद मिश्र जैसों के खाने में डाल दिया जाता है। पर कोई कुछ खुल कर नहीं बोलता। खगेंद्र ठाकुर जैसे एकाध लोग दबी जबान ज़रूर कुछ बोल देते हैं। विश्वनाथ जी मानते हैं कि लेखन में राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं होनी चाहिए। लेखक का राजनीति से क्या लेना देना? खगेंद्र ठाकुर प्रतिवाद करते हुए कहते हैं लेखक की राजनीति से प्रतिबद्धता ज़रूरी है। बावजूद इस सब के विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की कविताओं में समाई आग की जो कुलबुलाहट है, व्यवस्था विरोध की जो आंच है, मनुष्य के स्वतंत्रचेता होने की जो छटपटाहट है, वह हमें बेधती है बिलकुल किसी क्रौंच के वध की तरह। ख़ास कर साथ चलते हुए संग्रह की कविताएं, ‘डॉक्टरों ने आखिरी सलाह दी थी/कि इस आदमी को जिंदा रखने के लिए/इस की याददाश्त को कमज़ोर करना ज़रूरी है/तब से मैं अपने बच्चों को बोलना नहीं सिखाता/भाषा एक ख़तरनाक चीज़ है।’


मुझे याद है कि जब इमर्जेंसी के दिनों में 1976 में साथ चलते हुए संग्रह आया था तभी कविता में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की कविताओं की चमक अपनी पूरी धमक के साथ उपस्थिति दर्ज करा गई थी। इस संग्रह की कविताओं की लपट इमरजेंसी की काली छाया को झुलसाती हुई दिखी थी तब। साप्ताहिक हिंदुस्तान में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने होली के मौक़े पर कुछ कविता संग्रहों के नाम के साथ जुगलबंदी सी की थी और ‘साथ चलते हुए (विश्वनाथ प्रसाद तिवारी) लंगड़ी मत मारो यार’ लिखा ज़रूर था, पर इसी के साथ, साथ चलते हुए की इयत्ता को स्वीकार भी किया था। और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हिंदी कविता में अपनी भरपूर उपस्थिति दर्ज करवा कर कइन, गौरैया, बांस के बिंब विधानों से फुर्सत पा कर लिखने लगे थे, ‘कितने रूपों में कितनी बार/जला है यह मन तापो में/गला है बरसातों में/मगर अफसोस है मैं बड़ा नहीं बन सका/रोटी दाल को छोड़ कर खड़ा नहीं हो सका।’
इमरजेंसी के दिनों की यातना से उपजी उन की एक कहानी डायरी तभी सारिका में छपी थी। जो शायद विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की इकलौती कहानी है। फिर कोई कहानी क्यों नहीं लिखी विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने यह भी एक सवाल है। स्थानीयता का दंश सभी लेखकों को डाहता है, विश्वनाथ जी को भी ज़रूर डाहता होगा, डसता होगा। पर वह कभी परोक्ष या अपरोक्ष बोध नहीं कराते, बोध नहीं होने देते। अपनी आत्मकथा में हरिवंश राय बच्चन इलाहाबाद को निरंतर कोसते मिलते हैं, इलाहाबाद से उन का क्षोभ छुपाए नहीं छुपता। इसी तर्ज पर परमानंद श्रीवास्तव भी गोरखपुर को कोसते-बिसूरते मिलते हैं। गोरखपुर से उन की शिकायत शुरू होती है तो ख़त्म ही नहीं होती। कई बार तल्ख़ी की पराकाष्ठा पार कर जाती है। स्थानीयता का दंश और भी तमाम लेखकों में जब-तब दिखता रहता है। कौन जाए दिल्ली की गलियां छोड़ कर कहने वाले कम ही मिलते हैं।

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भी उन्हीं थोड़े से लोगों में से हैं जिन्हें अपने शहर से कोई शिकायत नहीं। शहर के लोगों से कोई शिकायत नहीं। अपने लोगों से कोई शिकायत नहीं। गोरखपुर को कभी गुरु गोरखनाथ के लिए जाना जाता था। फिर गीता प्रेस, हनुमान प्रसाद पोद्दार के लिए जाना जाने लगा। चौरी चौरा कांड और राम प्रसाद बिस्मिल की फांसी के लिए भी। मजनू गोरखपुरी, फिराक़ गोरखपुरी और फिर प्रेमचंद के प्रवास के लिए जाना गया। अब एक महंत की गुंडई और कुछ माफियाओं का वहां जोर है। लेखक, पत्रकार भी कहीं न कहीं महंत या किसी माफिया के यहां मत्था टेक कर अपने को कृतार्थ करते मिलते हैं। पर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हाल फ़िलहाल तक उन विरले लेखक पत्रकारों में हैं जो इन माफियाओं या महंत के यहां मत्था टेकने कभी गए नहीं। इस घोर पतन के समय में यह हौसला सैल्यूटिंग ही है।

जनपद उनका गोरखपुर नहीं है, पर शहर उन का गोरखपुर ही है। यहीं पढ़ लिख कर यहीं पढ़ाने लगे। विद्यार्थी जीवन में परमानंद श्रीवास्तव को वह बड़ी रश्क से देखते थे। परमानंद जी तब सेंट एंड्रयूज कालेज में पढ़ाते थे। बाद के दिनों में विश्वनाथ जी महराजगंज डिग्री कालेज में हिंदी पढ़ाने के बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे। परमानंद जी गोरखपुर विश्वविद्यालय में बाद में पढ़ाने आए। विश्वनाथ जी बाद में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हुए पर परमानंद जी नहीं हो पाए। पर यह तो बाद की बात है। पहले तो परमानंद श्रीवास्तव और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इतने क़रीब हो गए कि कुछ लोग इन दोनों को परमानंद तिवारी और विश्वनाथ प्रसाद श्रीवास्तव कहने लगे। दस्तावेज में अरुणेश नीरन के एक लेख ने दोनों में भेद डाला। यह सारा खुलासा विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने खुद अपने संस्मरण एक नाव के यात्री में किया है। लेकिन पूरी गरिमा के साथ।

व्यवहार और उम्र के लिहाज से वह हमेशा परमानंद जी को वरिष्ठ मान उन की मर्यादा का खयाल रखते आए हैं। परमानंद जी से लाख मतभेद और भेद के बावजूद कभी उन्हों ने उन के प्रति कोई ओछी टिप्पणी की हो मुझे याद नहीं आता। न लिखित, न मौखिक। परमानंद जी के अंतर्विरोध पर वह उंगली ज़रूर रखते रहे। पर उन की भाषा की चमक को भी वह नहीं भूले। एक मर्यादा की रेखा दोनों के बीच निरंतर बनी रही। दोनों में से किसी ने अतिक्रमण नहीं किया। अतिक्रमण किया तो इन दोनों के दो विद्यार्थियों ने। इन में से एक विद्यार्थी तो ऐसे थे जिन का एम.ए. में श्रीकांत वर्मा पर एक प्रबंध विश्वनाथ जी ने न सिर्फ़ तैयार करवाया बल्कि श्रीकांत वर्मा से परिचय भी करवाया। और वह श्रीकांत वर्मा की पूंछ पकड़ कर ही नौकरी की वैतरणी पार कर गए।

ख़ैर, वर्तमान साहित्य के आलोचना विशेषांक में छोटे सुकुल के नाम से एक लेख छपा। इस लेख के लपेटे में कई लेखक आए जिन पर क्षुद्र और ओछी टिप्पणियां थीं। परमानंद जी और विश्वनाथ जी पर भी बिलो द बेल्ट टिप्पणियां थीं। देश भर में इन टिप्पणियों की चर्चा और निंदा दोनों हुई। कुछ समय के लिए परमानंद जी ने तो इसे मुद्दा बना लिया। बिलकुल बम-बम हो गए। पर विश्वनाथ जी ने इस टिप्पणी की कोई नोटिस ही नहीं ली। सिरे से खारिज कर दिया। मैं ने एक बार निंदा भाव में चर्चा की तो वह हमेशा की तरह मुसकुराए नहीं। चुप रह कर ऐसे बैठे रहे गोया कुछ सुना ही न हो। छोटे सुकुल की टिप्पणियां बाद में भी छिटपुट अन्यत्र आईं। अंततः परमानंद जी ने भी उन्हें खारिज करना श्रेयस्कर समझा।


विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बिरले हिंदी लेखकों में हैं जिन्हों ने लगभग पूरा भारत ही नहीं आधी से अधिक दुनिया भी घूमी देखी है। यू.के, यू.एस., सोवियत संघ की धरती भी वह बार-बार नाप आए हैं। लौट-लौट कर यात्रा संस्मरण भी लिखे हैं। इन यात्रा संस्मरणों की किताबें भी प्रकाशित हैं। परदेसी धरती की प्रकृति को भी वह हिंदी कविताओं के मार्फत निहारते हैं और याद करते हैं। तो आनंद सा आ जाता है। इंग्लैंड की धरती और तुलसी की कविता। अद्भुत!

एक समय अरुणेश नीरन ने मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास कुरू-कुरू स्वाहा की समीक्षा लिखी थी। दस्तावेज़ में छपी। कुरू-कुरू स्वाहा से कम चर्चा उस समीक्षा की नहीं हुई थी। जब मैं दिल्ली में रहता था तब मनोहर श्याम जोशी से अकसर साप्ताहिक हिंदुस्तान के द़तर में मिलता था। और मैं ने पाया कि अरुणेश नीरन की उस समीक्षा का असर उन पर भी तारी था। जिस खिलंदड़पने की भाषा कुरू-कुरू स्वाहा में मनोहर श्याम जोशी ने परोसी थी, उसी खिलंदड़पने वाली भाषा में अरुणेश नीरन ने उस की समीक्षा भी लिखी थी। मनोहर श्याम जोशी शायद इसी लिए अरुणेश नीरन की चर्चा अकसर करते। पर बाद के दिनों में अरुणेश नीरन का वह समीक्षक कहां बिल गया कोई नहीं जानता।

विश्वनाथ जी दस्तावेज़ तो सहेज कर निकालते आ रहे हैं पर अरुणेश नीरन जैसे समीक्षकों को क्यों नहीं सहेज पाए यह भी एक सवाल है! देवेंद्र कुमार की सब से महत्वपूर्ण कविता बहस ज़रूरी है दस्तावेज के प्रवेशांक में ही छपी थी। देवेंद्र कुमार फिर वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाए, या दस्तावेज़ ने फिर वैसी बेधक कोई कविता क्यों नहीं छापी सवाल यह भी है। जैसे विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को हम सरलता, सादगी सफलता, विद्वता के लिए जानते हैं वैसे ही दस्तावेज़ को उस के कई विशेषांकों के लिए भी जानते हैं। पर सवाल फिर भी बना रह जाता है कि दस्तावेज ने कितने प्रतिभाशाली कवि या आलोचक पैदा किए? प्रतिभा क्यों नहीं तलाशी?

1981 में मैं पढ़ाई ख़त्म कर गोरखपुर से दिल्ली चला गया। पहले सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट और फिर जनसत्ता में नौकरी की। शुरू के दिनों में एक बार दिल्ली से लौटा तो विश्वनाथ जी से मिलने गया। वह मेरे दिल्ली जाने और सर्वोत्तम की नौकरी से खुश तो थे पर अचानक कहने लगे, ‘छोटे शहर से गया आदमी दिल्ली, बंबई जैसे महानगर में खो जाता है। खा जाता है महानगर उसे। उस की कोई पहचान नहीं रह जाती।’ संयोग से उस बार जब गोरखपुर से दिल्ली लौट रहा था तो ट्रेन के उसी डब्बे में विश्वनाथ जी भी थे। मैं अपनी तमाम किताबों को एक चट्ट में पैक कर दिल्ली ले जा रहा था। टी.टी. ने उसे किसी व्यापारी का माल समझा। बुक करने लगा। विश्वनाथ जी ने उसे रोका। कहा कि, ‘किताबें हैं, माल नहीं।’ फिर भी टी.टी. बोला, ‘वज़न ज़्यादा है। एक टिकट पर इतना वज़न एलाऊ नहीं है।’ विश्वनाथ जी बोले, ‘यह एक टिकट का वज़न नहीं, तीन टिकट का वज़न है।’ उन के साथ एक व्यक्ति और थे। उन्होंने अपने दोनों टिकट भी दिखा दिए। टी.टी. चला गया। फिर दिल्ली स्टेशन पर भी वज़न वाली दिक्कत नहीं आने दी। टिकट लिए वह तब तक साथ खड़े रहे जब तक स्टेशन से किताबें मैंने बाहर नहीं कर लीं। पर दिल्ली लौट कर भी विश्वनाथ जी की वह बात हमेशा बेधती रही कि, ‘छोटे शहर से गया आदमी महानगर में खो जाता है।’ मैं तो चार पांच सालों में ही दिल्ली से लखनऊ आ गया। पर विश्वनाथ जी के सब से छोटे भाई राजेंद्र रंजन तिवारी दिल्ली चले गए और उस महानगर में सचमुच खो से गए। विश्वनाथ जी राजेंद्र रंजन को खो जाने से क्यों नहीं रोक पाए? यह पूछना हालां कि व्यक्तिगत हो जाता है। फिर भी!


इन दिनों विश्वनाथ जी साहित्य अकादमी को सक्रिय कर खुद भी सक्रिय हैं। गोरखपुर उन को जब भी फ़ोन कीजिए वह कहीं न कहीं गए बताए जाते हैं। पुरस्कार से ले कर अन्य मामलों की तमाम कमेटियों में भी वह सक्रिय हैं। सो सब लोग उन से आज कल धधा कर मिलते हैं। वह भी किसी को निराश नहीं करते अपनी ओर से। पर सौ फीसदी लोगों को आज तक कोई संतुष्ट कर पाया है भला? विश्वनाथ जी इसी कार्य में अभी लगे हैं। आखिर निर्वाचित सदस्य हैं। उन की ज़िम्मेदारी बनती है। अभी तो लंबी-लंबी यात्राएं हैं, योजनाएं है, कमेटियां हैं, इच्छाएं हैं। अभी सत्तर के हो रहे हैं, और हमारी भोजपुरी में कहते हैं, ‘बड़-बड़ मार कोहबरे बाक़ी!’ तो अभी पचहत्तर का होना है। एक लेखक का पचहत्तर का होना कितना मायने रखता है, हम सभी जानते हैं। तो विश्वनाथ जी थोड़ी अपनी ऊर्जा बचा कर भी रखिए न! पचहत्तर अभी शेष है। साफ कहूं कि समर अभी शेष है।


कहा जाता है और कि सच्चाई भी है कि पाट यमुना का बड़ा होता है पर नाम गंगा का होता है। वैसे ही आदमी लाख सफल हो पर याद उस के किए और व्यवहार की ही रह जाती है। और जो व्यक्ति लेखक हो तो उस का रचा-लिखा ही शेष रह जाता है। विश्वनाथ जी से एक बात हमेशा ही से सुनता आया हूं कि जो आदमी, अच्छा आदमी नहीं हो सकता वह लेखक भी अच्छा नहीं हो सकता। इस की एक नहीं अनेक नज़ीरें हैं। और आज की तारीख़ में लेखक होना काजल की कोठरी में रहना हो गया है। चाहे कितनी भी गिरावट आई हो पर अभी इतना तो बाक़ी है ही कि लेखक राजनीतिज्ञों जितना बेशर्म नहीं हुआ है। फिर भी ज्यादातर लेखक काजल की कोठरी से दाग ले कर निकल रहे हैं। नाम एक नहीं कई हैं। ऐसे निर्लज्ज समय में हमें खुशी है कि सत्तर की कसौटी पर कसे विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अभी तक न सिर्फ़ बेदाग हैं बल्कि संगम की शालीनता की प्रतिमूर्ति बन हमारे बीच उपस्थित हैं। जैसे गंगा काशी को नहीं छोड़ती, वैसे ही सादगी विश्वनाथ जी को नहीं छोड़ती। यह ‘विश्वनाथ’ संयोग है कुछ और नहीं। ईश्वर उन्हें शतायु बनाएं हमारी यही प्रार्थना है!



(राष्ट्रीय सहारा से साभार)

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