Friday, 27 January 2012

जिय रजा कासी!


काशीनाथ सिंह का उपन्यास अपना मोर्चा जब पढ़ा था तब पढ़ता था और उस का ज्वान उन दिनों रह-रह आ कर सामने खड़ा हो जाता था। उन का कहानी संग्रह आदमीनामा भी उन्हीं दिनों पढ़ा। माननीय होम मिनिस्टर के नाम एक पत्र या सुधीर घोषाल जैसी कहानियां एक नया ही जुनून मन में बांधती थीं। बाद के दिनों में काशी का अस्सी सिर चढ़ कर बोलने लगा। अब तो चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इस पर एक फ़िल्म भी बना दी है।
प्रसिद्ध रंगकर्मी ऊषा गांगुली ने इस के पांडे कौन कुमति तोहें लागी नाम से जाने कितने शो किए हैं। फिर नामवर पर लिखे उन के संस्मरणों ने मुझे उन का मुरीद बना दिया। खास कर भाभी यानी नामवर सिंह की पत्नी की यातना और उन की करुणा जिस तरह उन्हों ने परोसी है, पढ़ते समय जाने क्यों मुझे अपनी अम्मा याद आती रहीं। जैसा नामवर ने अपनी पत्नी की उपेक्षा की जीवन भर,

काशीनाथ सिंह
शायद उन की समूची पीढ़ी ने यही किया है। इसी लिए नामवर की पत्नी के अक्स में मुझे अपनी अम्मा की याद आती रही। खैर यह एक दूसरा विषय है।
काशीनाथ सिंह का खांटी बनारसीपन, उन की साफगोई और भाषा की चाशनी आदि मिल कर उन का एक ऐसा रुप उपस्थित करती है कि बस पूछिए मत। हमारे सामने ज़मीन से कटे लेखकों को देख लीजिए और काशीनाथ सिंह को देख लीजिए, फ़र्क साफ दिखेगा। न सिर्फ़ लेखन में वह सहज और पूरे बांकपन के साथ उपस्थित रहते हैं बल्कि जीवन में भी उसी ऊर्जा और उछाह के साथ मिलते हैं। बनारसीपन तो उन में से हरदम टपकता है ऐसे गोया कोई पान खा ले और पान की लार टपक जाए, लगभग ऐसे ही।
सोचिए कि मैं उन से उम्र और रचना दोनों ही में कच्चा हूं। पर जब उन्हें कभी फ़ोन करता हूं और नमस्कार करता हूं तो वह छूटते ही जोर से - पालागी बाबा! बोल पड़ते हैं। एक बार बनारस के एक गुरु की चर्चा करते हुए वह बताने लगे कि अगर कोई उन के पांव छूने
दयानंद पांडेय
लगता है तो वह कहते हैं चरण ही चूना आचरण नहीं! अब इन्हीं काशीनाथ सिंह को उन के उपन्यास रेहन पर रग्घू पर आज साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा हुई है। उन्हें बधाई देने का बहुत मन कर रहा है। बहुत बधाई काशी जी! कि तनी देरियै से सही मिलल तs! जिय रजा काशी!

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