क्या वर्तमान भारतीय संसद और उस की सर्वोच्चता, उस की गरिमा, गौरव और उस का गगन अब सचमुच खतरे में पड़ गया है? नहीं मैं सिर्फ़ आतंकवादी हमले की बात नहीं कर रहा हूं। कि जो चाहे उस पर जब चाहे वार कर सकता है। अभी बीते संसद सत्र में जिस तरह सांसदों ने अपने मुह मियां मिट्ठू बनते हुए संसद की सर्वोच्चता के भजन एक सुर में गाए थे, वह अद्भुत था।
बताइए कि लालू यादव जैसे लोग जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूब कर, संसदीय और सार्वजनिक गरिमा और शुचिता दोनों पर जाने कितनी कालिख पोत कर अपना राजपाट गंवा बैठे हैं, सब से ज़्यादा उन्हीं को संसद की पवित्रता खतरे में दिख रही थी। और वह मनमोहन सिंह को सलाह कम निर्देश भी लगभग घुड़पते हुए फ़ुल सामंती अंदाज़ में दे रहे थे कि शासन लुंज-पुंज हो कर नहीं, रौब से चलता है। शरद यादव जैसे पढे़-लिखे, समझदार नेता भी लालू के सुर में ही संसद की पवित्रता का भजन गाते दिखे। लगभग कुतर्क करते हुए। उस दिन ओमपुरी और किरन बेदी की भी खूब भर्त्सना हुई और कहा गया कि यह संसद और सांसदों का मज़ाक है। और यह देखिए कि देखते ही देखते एक एक कर अरविंद केजरीवाल, किरन बेदी, ओम पुरी और प्रशांत भूषण को संसद की अवमानना की नोटिसें मिल गईं।
यह जैसे कोढ़ में खाज हो गया वाली बात हो गई। यह सांसद और राजनीतिज्ञ ऐसे पेश आ रहे हैं गोया जनता से भी उपर संसद हो गई है। जिस संविधान को दिन रात बदल कर अपने अनुरुप बनाते जा रहे यह नेता उस में संशोधन कर कर के उस का लोथड़ा बना चुके हैं। उसी संविधान की दुहाई दे-दे कर जनता को गाय की तरह सुई लगा-लगा कर दूहने वाले यह राजनीतिज्ञ अपनी सुविधा और सुख के लिए दिन रात देश को बेचने लगे हैं। एक नहीं अनेक मामले हैं। और सब को सब कुछ पता है।
राहत इंदौरी तो साफ लिख रहे हैं कि, 'सच बात कौन है जो सरे आम कह सके/ मैं कह रहा हूं मुझ को सज़ा देनी चाहिए/ सौदा यहीं पे होता है हिंदुस्तान का/ संसद भवन में आग लगा देनी चाहिए।' और राहत इंदौरी ने यह शेर या गज़ल कोई आज नहीं लिखी है। यह कोई 6 या 7 साल पुराना शेर है। तो क्यों नहीं राहत इंदौरी के इस शेर पर अपने सांसद लोग कोई प्रतिक्रिया जता पाए? क्यों नहीं उन पर भी अवमानना की नोटिस वाली तलवार लटका पाए? क्या इस लिए कि वह शायर हैं? या इस लिए कि वह अल्पसंख्यक हैं और मुस्लिम वोट बैंक की थाती छूट जाएगी इन पेड़ों और भैंसों को प्रणाम करने वालों से?
बताइए कि शरद यादव एक दिन संसद में बोल रहे थे कि हम लोग तो पेड़, भैंस सब को प्रणाम करते हैं चुनाव में। पर मज़ा देखिए कि रामलीला मैदान में जुटी जनता को वह प्रणाम करने की बजाय दुत्कार रहे थे। देश भर में जगह-जगह अन्ना के समर्थन में जुटी जनता उन्हें या सरकार को अमरीकी साज़िश लग रही थी और है। आरएसएस और भाजपा की चाल लग रही थी। इस लिए कि यह जनता उन की सीधी वोटर नहीं थी। उन दिनों अपनी आका के देश में न रहने पर चुप्पी साधे दिग्विजय भी अब मुंह खोलने लगे हैं। बिल्कुल खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाले अंदाज़ में। वह कह रहे हैं कि अन्ना ने आरएसएस वालों के हाथ में तिरंगा थमा कर काली टोपी की जगह सफ़ेद टोपी पहनवा दिया। तो क्या यह जनता का ज्वार अब भाजपा के पक्ष में जा रहा है? दिग्विजय जी को तो यह खतरे की घंटी सुननी चाहिए। पर वह तो अलर्ट होने के बजाय मज़ा ले रहे हैं।
खैर यह उन का अपना अंदाज़ है। वह ही जानें। हम तो यह जानते हैं कि समाज और जनता अब करवट ले रही है। इन राजनीतिज्ञों को इस इबारत को पढ़ना और समझना चाहिए। यह संसद की सर्वोच्चता की सनक में सुन्न लोग क्या एक ऐसा विधेयक भी पास करने का हौसला रखते हैं कि जिस दाम पर और जिस गुणवत्ता वाला भोजन, नाश्ता वह संसद में छकते हैं, उसी दाम में और उसी गुणवत्ता वाला भोजन नाश्ता वह कम से कम गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों को भी उपलब्ध करवाने की हुंकार भरें! या फिर अपने वेतन का चौथाई ही सही बेरोजगारों के लिए बेरोजगारी भत्ता ही देने का विधेयक पास कर दें! या फिर अपनी सांसद निधि को रोजगार देने वाले कामों के नाम कर दें? लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा तो यह सांसद सपने में भी नहीं सोच सकते हैं। सोच लेंगे तो उन की पवित्रता और सर्वोच्चता संकट में नहीं पड जाएगी?
प्रेमचंद कहते थे कि साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है। तो शायद इसी मशाल को ध्वनित करते हुए धूमिल चालीस साल पहले संसद से सड़क तक की कैफ़ियत बांच रहे थे। धूमिल जैसे अपनी कविताओं से इस व्यवस्था और संसद पर तेजाब डाल रहे थे। एक बानगी देखिए, 'मुझ से कहा गया कि/ संसद देश की धड़कन को/ प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है/ जनता को/ जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है/ लेकिन क्या यह सच है?/ या यह सच है कि/ अपने यहां संसद-/ तेली की वह घानी है/ जिस में आधा तेल है/ और आधा पानी है/ और यदि यह सच नहीं है/ तो यहां एक ईमानदार आदमी को/ अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?/ जिस ने सत्य कह दिया है/ उस का बुरा हाल क्यों है?'
तो तब के सांसदों और तब की संसद ने क्यों नहीं हुंकार भरी कि संसद की अवमानना हो गई? शायद इस लिए कि तब तक वोट इस कदर जातियों और संप्रदायों के खाने में नहीं बंटे थे। न ही राजनीतिज्ञ इतने पतित हुए थे। न ही सामंती आचरण की बू उन में इस लपट के साथ भभकती थी। और कि शायद वह तब वोटरों को अपना भगवान, अपना खुदा, अपना गॉड दिखावे के लिए सही मानते थे। खुद को खुदा मानने की बीमारी उन में बेहयाई की इस सीमा तक नहीं समाई थी। और कि उन में तब जनता को सुनने की इच्छा भी थी, कहीं न कहीं।
कोई पैंतीस साल पहले दुष्यंत कुमार लिख रहे थे, 'कल नुमाइश में मिला था चिथडे़ पहने हुए/ मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।' वह जैसे जोड़ते थे, '.सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर/ झोले में उसके पास कोई संविधान है/ वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है/ माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है।' दुष्यंत का शेर तो ऐन आपातकाल में आया था। जब कि धूमिल की कविता बस उस के पहले। संयोग देखिए कि धूमिल आपातकाल बस लगने के पहले हम से बिछडे़ और दुष्यंत आपातकाल लगने के छह महीने बाद। पर आपातकाल और फिर नब्बे के दशक में आए आर्थिक उदारीकरण की बयार में सारी नैतिकता, शुचिता समाज में खंडित हो कर दिन-ब-दिन हमारे सामने नंगी होती गई है। राजनीतिज्ञों की सारी नैतिकता में पलीता लग गया।
भ्रष्टाचार की विष बेल के साथ-साथ उन का अहंकार, जातियों और साप्रदायिकता का घटाटोप अंधकार बढ़ता ही गया है। क्या अगर नंदीग्राम और सिंगूर में हुए जुल्म की आवाज़ के खिलाफ भाजपा खड़ी हो जाती है तो सिंगुर की जनता भाजपाई और सांप्रादायिक हो जाती है? माहौल यही बन गया है अब। दरअसल राजनीति में तो विमर्श और बहस के नाम पर अब सिर्फ़ कुतर्क और कुचक्र ही शेष रह गया है। दंगों की बात चलती है तो भाजपा कांग्रेस को 1984 के दंगों का आइना दिखाती है। कांग्रेस भाजपा को गुजरात दंगों का दर्पण दिखाती है। अपने-अपने दर्पण में कोई कभी नहीं देखता और न सबक लेता है। भ्रष्टाचार मसले पर भी यही हाल है। सभी एक दूसरे के भ्रष्टाचारियों की कुंडली बांचने में विभोर हो जाते हैं। बतर्ज़ तेरी साड़ी, मेरी साड़ी से ज़्यादा सफ़ेद कैसे?
संसदीय व्यवस्था, मर्यादा और उस की शुचिता की बांग देने वाली इन राजनीतिक पार्टियों की बेहूदगी अब सारी हदें लांघ कर जनता की गाढ़ी कमाई के खर्च पर अब एक नई अराजक संसदीय व्यवस्था कायम करने की ओर अग्रसर है, जिस में सारे गैर प्रजातांत्रिक तौर तरीके सामंती कलफ़ लगा कर जनता को सबक सिखाने के लिए औज़ार बाहुत यत्न से बटोरे जा रहे हैं। दुष्यंत के एक शेर में ही जो कहें कि, 'आप दीवार गिराने के लिए आए थे/ आप दीवार उठाने लगे ये तो हद है!'
और मज़ा यह कि अपने कुछ इंटेलेक्चुअल और लेखक भी जो अब जनता और उस की संवेदना और भावना से इस कदर कट गए हैं कि बकरी की बेचारगी में तब्दील हो चुकी जनता अगर शासन रुपी शेर से लड़ने की सोचती भी है तो वह बकरी के तौर तरीके पर ऐतराज़ ही नहीं जताते जैसे एक मुहिम सी भी छेड़ बैठते हैं। यह एक नया संकट है। कि सारे ऐब बकरी में ही हैं, शेर तो दूध का धोया है ही। तो क्या प्रेमचंद गलत ही कह गए हैं कि साहित्य समाज की मशाल है? और कि राहत इंदौरी भी बेजां ही लिख रहे हैं कि 'सौदा यहीं पे होता है हिंदोस्तान का/ संसद भवन में आग लगा देनी चाहिए!'
सच मानिए आज की संसद हमारी संसद हरगिज़ नहीं है। धूमिल के शब्दों मे जो कहें कि संसद देश की धड़कन को प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है! अब यह दर्पण खंडित हो चुका है। यह संसद अब नपुंसक और कायर हो चुकी है। अपने ही ऊपर हमला करने वाले आतंकवादी को सज़ा देने या सबक देने लायक नहीं रह गई है। अपने रक्षकों को कानून और सुरक्षा का कवच नहीं दे सकती। शहीद हो गए तो उन की बला से। जनता की दुश्मन बन चुकी यह संसद जनता के लिए कुशासन, महंगाई और भ्रष्टाचार की भट्ठी बनाती है। राहत इंदौरी ठीक ही कह रहे हैं कि इस संसद को आग लगा देनी चाहिए। देश को अब नई संसद की ज़रुरत है। वह संसद जिस के दर्पण में देश की धड़कन प्रतिबिंबित हो, जो जनता को अपने से ऊपर माने, जनता का खुदा मानने से बाज़ आए!
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