नई दुनिया ने अभी जो अन्ना हजारे और नाना जी देशमुख की एक साथ फ़ोटो छाप कर जो पत्रकारीय कमाल किया है और उस पर चैनलों में जो बहस चली है उस पर माथा पीट लेने को मन करता है। और यहीं काटजू की याद भी आ गई है। काटजू ने अभी हाल ही कहा था कि आज के पत्रकारों को इतिहास या अर्थशास्त्र भी नहीं आता। हालां कि हज़ार दो हज़ार रुपए पर काम करने वाले पत्रकारों से अर्थशास्त्र या इतिहास की जानकारी की उम्मीद करना गंजों के शहर में कंघी बेचना है।
लेकिन नई दुनिया के संपादक आलोक मेहता या उन के संवाददाता या ये चैनलों पर बहस का बवंडर खडा करने वाले पत्रकारों या राजनीतिज्ञों से तो यह उम्मीद की ही जा सकती है। कि वह यह सब कुछ ही नहीं और भी सब कुछ जानें। अफ़सोस कि वह नहीं जानते। जानते तो कम से कम नाना जी देशमुख जैसे निर्विवाद व्यक्ति को, समाजसेवी व्यक्ति को ले कर यह और ऐसी छिछली टिप्पणियों से ज़रुर बचते। और फिर आलोक मेहता तो मनोहर श्याम जोशी, कन्हैयालाल नंदन और राजेंद्र माथुर जैसे पत्रकारों के साथ काम कर के अपने को यहां तक ले आए हैं। लेकिन राज्यसभा में पहुंचने की उन की ललक, हड़बड़ी और महत्वाकांक्षा ने उन्हें पत्रकारीय परंपराओं से दूर कर दिया है। और वह कांग्रेस के अघोषित प्रवक्ता की तरह काम करने लग गए हैं। याद कीजिए बीते दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुछ संपादकों से मुलाकात की थी तो बाहर निकल कर ये संपादक लोग चैनलों पर जिस बेशर्मी से प्रधानमंत्री का पक्ष रखने के लिए एक दूसरे को पानी पिला रहे थे कि पूरे देश ने शर्म से आंखें मूंद ली थीं। आलोक मेहता भी उन संपादकों में से एक थे जो प्रधानमंत्री और कांग्रेस के प्रवक्ता बन कर उभरे थे।
अभी भी जब कभी आप किसी चैनल पर आप आलोक मेहता को देखिए तो बतौर पत्रकार वह कांग्रेस की एकतरफा पैरोकारी करते मिल जाएंगे। चलिए करिए। कोई हर्ज़ नहीं। आप को यह सूट करता है। तमाम लोगों को पछाड़ कर आप पद्मश्री तो मांग कर पा ही चुके हैं, राज्यसभा भी पहुंच ही जाएंगे देर सवेर। लेकिन इस के लिए भी दूध में पानी ही मिलाइए, पानी में दूध तो न मिलाइए। अपनी न सही कुछ पत्रकारीय मूल्यों की परवाह कर लीजिए। कुछ तो मनोहर श्याम जोशी, कन्हैयालाल नंदन या राजेंद्र माथुर की लाज रखिए। नाना जी देशमुख रहे होंगे कभी जनसंघ या आरएसएस में भी। रहे होंगे मोरार जी देसाई के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री। लेकिन उन्हों ने जेपी मूवमेंट में जब जेपी पर पुलिस की लाठियां चलीं तो वह नाना जी देशमुख ही थे जिन्हों ने बढ़ कर किसी फ़ौजी की तरह जेपी को कवर किया और सारी लाठियां खुद खाईं, जेपी को एक लाठी नहीं लगने दी। लोग पीठ या पैर पर पुलिस की लाठियां खाते हैं, नाना जी ने जेपी को अपनी पीठ के नीचे लेते हुए सीने पर पुलिस की लाठियां खाई थीं। यह फ़ोटो अखबारों में छपी थी। इंडियन एक्सप्रेस ने इसे पहले पेज पर तब छापा था। मुझे बहुत अच्छी तरह याद है। सोचिए कि पुलिस की वह लाठी अगर जेपी पर पड़ी होतीं तो क्या हुआ होता जेपी का और क्या हुआ होता देश का?
नाना जी जेपी के साथ ही जेल गए। बाद के दिनों में जनता पार्टी बनी। मोरार जी देसाई की सरकार बनी तो वह मंत्री बन गए। लेकिन जब दोहरी सदस्यता के फेर मोरार जी की सरकार गिरी तो नाना जी सक्रिय राजनीति त्याग कर समाज सेवा की ओर मुड़ गए। वह महाराष्ट्र के रहने वाले थे। लेकिन समाज सेवा के लिए उन्हों ने उत्तर प्रदेश चुना। उत्तर प्रदेश में सब से पिछडा ज़िला गोंडा। वहां भी उन्हों ने महात्मा गांधी की तर्ज़ पर जेपी की पत्नी प्रभावती के नाम पर प्रभावती ग्राम ही बनाया। ठीक वैसे ही जैसे गांधी ने दक्षिण अफ़्रीका में टालस्टाय आश्रम या देश में वर्धा या साबरमती आश्रम बनाया था। बल्कि नाना जी ने दो कदम आगे जा कर इस आश्रम को शिक्षा और रोजगार से जोड़ा। लेकिन जल्दी ही वह चित्रकूट चले गए। आज नाना जी देशमुख नहीं हैं पर कोई धृतराष्ट्र जैसा जन्मांध भी जो चित्रकूट चला जाए तो उसे उन का काम साफ दिखेगा, सुनाई देगा। वहां के लोगों खास कर आदिवासियों के बच्चों के लिए प्राइमरी से लगायत स्नातकोत्तर तक की शिक्षा, भोजन और चिकित्सा मुफ़्त है। कम से तीन दशक से। इतना ही नहीं वहां के लोगों को रोजगार तक वह सिखाते थे। कि कैसे काम सीख कर खुद का रोजगार वह शुरू कर सकें। तरह तरह के रोजगार। तमाम पिछडे़पन के बावजूद चित्रकूट आज तरक्की की राह पर है। न सिर्फ़ तरक्की बल्कि शांति की राह पर। नहीं तय मानिए कि अगर नाना जी देशमुख चित्रकूट न गए होते तो आज की तारीख में चित्रकूट दंतेवाडा से भी ज़्यादा बड़ा खतरनाक मोड़ पर खड़ा होता।
चित्रकूट क्या है पथरीला इलाका है। जहां आज भी खेती भगवान भरोसे होती है। पानी का साधन आज भी नहीं है कि खेतों की सिचाई हो सके। ज़मींदारों का आतंक इतना कि घर से बेटी-बहन कब उठा ले जाएं और फिर कभी वापस न दें। पिता का नाम चाहे किसी आदिवासी का हो, संतान तो वह किसी ज़मींदार का ही होता। और यह आदिवासी औरतें बेचारी दो जून भोजन के बदले अपने पति के पास लौटने को तैयार नहीं होती थीं। दो जून भोजन के बदले वह देह और परिश्रम बेच देती थीं। मैं खुद गया हूं चित्रकूट और पूरा इलाका घूमा हूं। लौट कर एक रिपोर्ट लिखी थी जो अखबार में एक पूरे पेज में छपी थी- अवैध संबंधों की आग में दहकता पाठा। ऐसे ही अत्याचारों से ददुआ जैसे लोग पैदा होते थे। बाद के दिनों में तो खैर ददुआ खुद एक बड़ा आतंक बन चला था। कि लोगों का जीना रहना दूभर हो गया। एक तरह से ददुआ और ददुआ जैसे लोगों का शासन चलता था वहां। सरकार और प्रशासन वहां नाम भर के थे। एक आईएएस अफ़सर हैं। आज कल एक ज़िले में ज़िलाधिकारी हैं। एक समय चित्रकूट इलाके में एसडीएम थे। एक मंदिर का कार्यक्रम था। एसडीएम मुख्य अतिथि थे। मय फ़ोर्स के वह वहां मौजूद थे कि तभी ददुआ आया। मंदिर में पूजा अर्चना की और लौटते समय एसडीएम के भी पैर छू कर दक्षिणा स्वरुप उन्हें पैसे भी दिए। वह चुपचाप खडे़ रहे। मिली दक्षिणा उन्हों ने तुरंत मंदिर को दान दे दी। लेकिन उसे अरेस्ट नहीं कर पाए। जब कि उस पर तमाम मुकदमे थे, वारंट था। मैं ने उन से पूछा कि अरेस्ट क्यों नहीं किया? तो वह बोले, ' फ़ोर्स मेरे साथ बहुत कम थी। और सारी जनता उस का जयकारा लगा रही थी, उस के साथ थी। क्या करता मैं भला?
ऐसे में नाना जी देशमुख चित्रकूट पहुंचे थे। और चित्रकूट का नक्शा बदल दिया। रहा होगा कभी चित्रकूट राम के वनगमन का पहला पड़ाव, रहे होंगे कभी तुलसीदास भी। लिखा होगा कि चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़, तुलसीदास चंदन घिसैं तिलक देत रघुवीर। लेकिन अब जो नाना जी देशमुख चित्रकूट पर विकास, रोजगार और शांति का चंदन लगा गए हैं, ना वह किसी कांग्रेसी, किसी जनसंघी, किसी भाजपाई, किसी आरएसएस या कम्युनिस्ट या किसी फ़ासिस्ट के वश का है नहीं जो उसे मिटा दे। क्यों कि चित्रकूट की सभी शिराओं में नाना जी ने जो शिक्षा, रोजगार, विकास और शांति का पाठ लिखा है न, वह मिटने वाला है नहीं। नाना जी जब जीवित थे तब उन से मिलने चित्रकूट कौन नहीं पहुंचता था? उन के काम से, उन की सेवा से प्रभावित सभी लोग पहुंचते थे। दलों की दूरियां वहां टूट जाती थीं। प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर, नारायणदत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव जैसे राजनीतिज्ञ जब तब पहुंचते ही रहते थे उन से मिलने। और सिर्फ़ मिलते ही नहीं, गुहार भी करते थे कि नाना जी उन के क्षेत्र में भी चल कर कुछ ऐसा ही काम करें? तो क्या यह चंद्रशेखर, यह नारायणदत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव आरएसएस के एजेंट थे? या कि हैं? फ़ोटो तो दिग्विजय सिंह की भी नाना जी देशमुख के साथ देखी गई है। लेकिन कभी खुर्राट राजनेता रहे दिग्विजय अब घाघ और बेशर्म नेता हो चले हैं। और दिक्कत यह कि जब नाना की बात चली अन्ना के नाम के साथ तो चंद्रशेखर तो अब नहीं हैं होते तो मैं जानता हूं कि वह बेबाकी से नाना जी देशमुख के पक्ष में खडे़ दीखते। कि कम से कम उन को तो ऐसा मत कहिए। दुर्भाग्य से मुलायम आदि राजनीतिज्ञों में अभी वह उदारता नहीं आ सकी है। और इन राजनीतिज्ञों में जो कभी कभार उदारता दीखती है पर उस उदारता के नीचे जो क्रूरता छुपी होती है वह कौन देख पाता है भला? और जो देखता भी है तो उस का बयान भी कौन कर पाता है भला? पर अभी इस के व्यौरे में जा पाने का शायद समय नहीं आया है।
खैर, नाना जी देशमुख के पास तब जाने वालों में सिर्फ़ राजनीतिज्ञ ही नहीं तमाम उद्योगपति और पत्रकार आदि भी थे। उन्हों ने काम ही ऐसा किया है। ढेर सारे संस्थान तो खोले ही हैं चित्रकूट में उन्हों ने पर इन सब में भी एक और गज़ब काम किया है नाना जी ने। टाटा की मदद से एक आयुर्वेद शोध संस्थान खोला है। जो अपने आप में अदभुत है। दुनिया मे अपने किस्म का अकेला। तमाम किस्म की जडी बूटियों सहित आयुर्वेद की तमाम ज़रुरी चीज़ें भी वहीं संरक्षित की हैं। काफी बडे़ इलाके में फैले इस आयुर्वेदिक संस्थान में सौ से अधिक नस्ल की तो सिर्फ़ देशी गाय हैं। पूरी एक गऊशाला है। देख कर आंखें चुंधिया जाती हैं। और मजा यह कि यह और ऐसे तमाम कामों के लिए लोग जो अकसर पैसे का रोना रोते रहते हैं, नाना जी को कभी यह सब नहीं करना पड़ा। मैं उन से १९९६ में चित्रकूट मे मिला था। तब एक लंबा इंटरव्यू भी किया था। बहुत सारी बातें हुई थीं। मैं ने उन से पूछा कि इन कामों के लिए कभी पैसे की कमी नहीं पडती? वह छूटते ही बोले कभी नहीं। उन्हों ने बताया कि वह कभी किसी से पैसा मांगने भी नहीं जाते। जिस को देना होता है वह खुद चल कर चित्रकूट आता है। कई बार लोगों को पैसा वापस करना पड़ जाता है। मैं अपने पास काम से अधिक पैसा नहीं रखता। वापस कर देता हूं। तमाम उद्योगपति मेरे पास आते हैं पैसा ले कर। लेकिन मैं योजना खुद बनाता हूं। किसी की बनाई योजना पर काम नहीं करता। योजना में जितना पैसा लगना होता है बता देता हूं। लोग दे देते हैं। काम शुरू हो जाता है। काम समय से हो जाता है। मैं यहां कोई व्यवसाय तो कर नहीं रहा कि बहुत पैसा चाहिए हो।
मैं ने उन से पूछा कि आप को नहीं लगता कि अगर आप सत्ता में भी होते या सक्रिय राजनीति में ही सही तो और ज़्यादा बेहतर काम करते? नाना जी बोले, बिलकुल नहीं। सत्ता या राजनीति में रह कर कुछ नहीं किया जा सकता। और जो करेंगे भी तो दाग ज़रुर लगेगा। फिर वह बताने लगे कि हमारा समाज वनवासी राम की पूजा करता है, राजा राम की नहीं। राजा राम ने तो कई सारे फ़ैसले इधर-उधर के किए। अप्रिय फ़ैसले किए। पर वनवासी राम ने नहीं। वनवासी राम ने समाज का कल्याण किया। राक्षस मारे। इसी लिए मैं सत्ता से, राजनीति से अलग हो गया। मैं ने चित्रकूट को चुना समाज सेवा के लिए। कि राम का वनवास यहीं से शुरु हुआ। मेरी यहां ज़रुरत थी। मैं भी वनवासी हो गया। उन्हों ने तमाम योजनाएं बताईं। और कहा कि समय नहीं है अब मेरे पास, नहीं तो और भी बहुत काम करता। उन्हों ने तमाम राजनीतिज्ञों का ज़िक्र किया और बताया कि वह लोग चाहते हैं कि उन के क्षेत्र में भी जा कर काम करूं। तो मैं ने पूछा, कि क्यों नहीं जाते? तो वह बोले वृद्ध हो गया हूं। काम करने की क्षमता जितनी है, उतनी ही करूंगा। और मैं काम शुरू कर के चला आऊं और कोई गड़बड़ करे मुझे बर्दाशत नहीं। यह समाज सेवा है, कोई उद्योग नहीं, व्यवसाय नहीं। कि पांव पसारता जाऊं। पैसा कमाता जाऊं। उन दिनों वह थोड़ा ऊंचा सुनते थे। ठीक से चलना फिरना भी मुश्किल था। पर मैं ने देखा कि जब भोजन का समय हुआ तब वह सब के साथ फ़र्श पर बैठ कर ही खाने बैठे। और खा कर अपनी थाली खुद उठाई और जा कर धोई और रख दी। सब ने यही किया।
मैं ने उन से बात ही बात में पूछा कि आप को नहीं लगता कि अगर आप ने विवाह किया होता तो जीवन और बेहतर हुआ होता। उन्हों ने नि:संकोच बताया कि हां मुझे भी अब लगता है कि यह गलती हुई। अगर विवाह किया होता तो ज़रुर अच्छा हुआ होता। शायद काम करने की ऊर्जा और होती। पर क्या करें विवाह करने की जब उम्र थी तब यह सब सोचने का अवकाश नहीं मिला। पर अब यह बात खलती है। यही बात एक बार अटल बिहारी वाजपेयी से भी मैं ने पूछी थी तो वह ज़रा टालमटोल पर आ गए। और अंतत: बोले कि अब जब नहीं किया तो क्या कहें। फिर कहने लगे जब समय था विवाह का तब देश सामने था, अब भी है। अब क्या कहूं? फिर वह कहने लगे यह तो वह लड्डू है जो खाय वो भी पछताय, जो न खाए वह भी पछताए। और हंसने लगे। लता मंगेशकर से जब एक बार यही सवाल पूछा तब वह पहले तो वह टाल गईं पर बाद में बोलीं कि समय कहां मिला जो अपने विवाह के बारे में सोचती। फिर उमर निकल गई। पर हां उन्हों ने यह ज़रूर कहा कि इस के लिए उन के मन में कोई पछतावा नहीं है। पर नाना जी को था। नाना जी देशमुख से मेरी आखिरी मुलाकात फिर दिल्ली में हुई वर्ष दो हज़ार में। जेपी की जन्म शताब्दी की तैयारियां थीं। लोग अलग-अलग मना रहे थे। नाना इस से नाखुश थे। गांधी शांति प्रतिष्ठान के लोगों ने भी तैयारी की थी और रोष जताया था कि नाना जी को भी इस की चिंता नहीं है। नाना को मैं ने यह बात बताई तो वह क्षुब्ध हो गए। बोले जेपी के लिए मुझे किसी का सर्टिफ़िकेट नहीं चाहिए। उन के लिए लाठियां मैं ने खाई हैं, उन के काम को आगे मैंने बढ़ाया है, मैं इसी से संतुष्ट हूं। मुझे जे पी के लिए जो करना होगा कर लूंगा। उन्हों ने किया भी। पर आज उन्हीं जेपी के लोग नाना के साथ अन्ना की फ़ोटो पर कांग्रेसियों के सुर में सुर मिला रहे हैं। कोई एक भी राजनीतिज्ञ या पत्रकार नाना के निष्कलंक जीवन और उन के सामाजिक काम की चर्चा नहीं कर रहा। कुछ लोग या तो बोल रहे हैं या कुछ लोग चुप्पी साध गए हैं। गोया नाना कोई पेशेवर चोर रहे हों और अन्ना ने उन के साथ फ़ोटो खिंचवा कर कोई बहुत बडा गुनाह कर दिया हो।
अन्ना हजारे, कांग्रेस और लोकपाल की इस बहस में है कोई नाना जी देशमुख के सामाजिक सरोकारों की चमक का बखान करने वाला? सच तो यह है कि अगर नाना जी देशमुख जैसे दस लोग भी देश में समाजसेवी हो जाएं तो तय मानिए देश की दशा सुधर जाएगी। समाज बदल जाएगा। अभी तो लोग फ़िल्म, क्रिकेट और राजनीति और धर्म के लोगों को ही सेलीब्रेटी माने बैठे हैं। यह यों ही नहीं है की आज की पीढ़ी नहीं जानती नाना जी देशमुख को। नहीं जानती बाबा आम्टे को, सुंदरलाल बहुगुणा या बाबा राघव दास जैसे लोगों को। सोचिए कि एक समय था कि लोग कहीं भी जा कर काम कर लेते थे। अब तो महाराष्ट्र में जा कर बिहार या उत्तर प्रदेश के लोग पीटे जा रहे हैं। लेकिन एक समय था कि महाराष्ट्र के लोग उत्तर प्रदेश में आ कर एक से एक अनूठे काम किए। बाबा राघव दास एक समय पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांधी कहे जाते थे। लेकिन कितने लोग जानते हैं कि वह पूर्वी उत्तर प्रदेश में महाराष्ट्र से आए थे। नाना जी देशमुख भी महाराष्ट्र से ही उत्तर प्रदेश में आए। मधुकर दीघे महाराष्ट्र से ही गोरखपुर आए थे। समाज सेवा के लिए। मज़दूरों के लिए काम करते करते वह राजनीति में आए। लोहिया के साथ काम करने लगे। जेपी मूवमेंट में जेल गए। १९७७ में उत्तर प्रदेश की जनता सरकार में वह वित्त मंत्री बने। मेघालय के राज्यपाल भी हुए। बाद में समाजवादी पार्टी में आ गए। छोडिए हनुमान प्रसाद पोद्दार तो गोरखपुर बंगाल से आए थे। गांधी के आंदोलन में कूद गए। गीता प्रेस जैसी संस्था दे दी। पर कितने लोग यह जानते हैं।
हां सनी लियोन, वीना मलिक, शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर आदि को ज़रुर जानते हैं। और सोचिए कि हमारी संसदीय राजनीति भी कहां चली गई है? उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक संसदीय कार्य मंत्री रहे बेनी प्रसद वर्मा का अंदाज़ तो देखिए। वह अन्ना को कहते हैं कि बुड्ढ़ा यूपी में आ कर देख ले। फिर वह कहते हैं कि वह सेना का भगोड़ा है। दिग्विजय सिंह तो दस बरस मुख्यमंत्री रहे हैं मध्य प्रदेश के लेकिन उन की भाषा और अंदाज़ भी देखिए न। लालू तो अपने अहंकार के कुएं में कूद कर लोकपाल को फ़ांसी घर बता ही चुके हैं। मनीष तिवारी अन्ना को किस तरह संबोधित कर चुके हैं हम सब जानते हैं। तो क्या यही सेलीब्रेटी हैं हमारे? नाना जी देशमुख जैसे लोग चोर हैं? यह कौन सा समाज और राजनीति हम देख रहे हैं? लोकपाल और अन्ना की बहस में नाना जी देशमुख जैसे फकीरों का असली चेहरा भी देखना क्या ज़रुरी नहीं है? सच मानिए बहुत ज़रुरी है।
लेकिन नई दुनिया के संपादक आलोक मेहता या उन के संवाददाता या ये चैनलों पर बहस का बवंडर खडा करने वाले पत्रकारों या राजनीतिज्ञों से तो यह उम्मीद की ही जा सकती है। कि वह यह सब कुछ ही नहीं और भी सब कुछ जानें। अफ़सोस कि वह नहीं जानते। जानते तो कम से कम नाना जी देशमुख जैसे निर्विवाद व्यक्ति को, समाजसेवी व्यक्ति को ले कर यह और ऐसी छिछली टिप्पणियों से ज़रुर बचते। और फिर आलोक मेहता तो मनोहर श्याम जोशी, कन्हैयालाल नंदन और राजेंद्र माथुर जैसे पत्रकारों के साथ काम कर के अपने को यहां तक ले आए हैं। लेकिन राज्यसभा में पहुंचने की उन की ललक, हड़बड़ी और महत्वाकांक्षा ने उन्हें पत्रकारीय परंपराओं से दूर कर दिया है। और वह कांग्रेस के अघोषित प्रवक्ता की तरह काम करने लग गए हैं। याद कीजिए बीते दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुछ संपादकों से मुलाकात की थी तो बाहर निकल कर ये संपादक लोग चैनलों पर जिस बेशर्मी से प्रधानमंत्री का पक्ष रखने के लिए एक दूसरे को पानी पिला रहे थे कि पूरे देश ने शर्म से आंखें मूंद ली थीं। आलोक मेहता भी उन संपादकों में से एक थे जो प्रधानमंत्री और कांग्रेस के प्रवक्ता बन कर उभरे थे।
अभी भी जब कभी आप किसी चैनल पर आप आलोक मेहता को देखिए तो बतौर पत्रकार वह कांग्रेस की एकतरफा पैरोकारी करते मिल जाएंगे। चलिए करिए। कोई हर्ज़ नहीं। आप को यह सूट करता है। तमाम लोगों को पछाड़ कर आप पद्मश्री तो मांग कर पा ही चुके हैं, राज्यसभा भी पहुंच ही जाएंगे देर सवेर। लेकिन इस के लिए भी दूध में पानी ही मिलाइए, पानी में दूध तो न मिलाइए। अपनी न सही कुछ पत्रकारीय मूल्यों की परवाह कर लीजिए। कुछ तो मनोहर श्याम जोशी, कन्हैयालाल नंदन या राजेंद्र माथुर की लाज रखिए। नाना जी देशमुख रहे होंगे कभी जनसंघ या आरएसएस में भी। रहे होंगे मोरार जी देसाई के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री। लेकिन उन्हों ने जेपी मूवमेंट में जब जेपी पर पुलिस की लाठियां चलीं तो वह नाना जी देशमुख ही थे जिन्हों ने बढ़ कर किसी फ़ौजी की तरह जेपी को कवर किया और सारी लाठियां खुद खाईं, जेपी को एक लाठी नहीं लगने दी। लोग पीठ या पैर पर पुलिस की लाठियां खाते हैं, नाना जी ने जेपी को अपनी पीठ के नीचे लेते हुए सीने पर पुलिस की लाठियां खाई थीं। यह फ़ोटो अखबारों में छपी थी। इंडियन एक्सप्रेस ने इसे पहले पेज पर तब छापा था। मुझे बहुत अच्छी तरह याद है। सोचिए कि पुलिस की वह लाठी अगर जेपी पर पड़ी होतीं तो क्या हुआ होता जेपी का और क्या हुआ होता देश का?
नाना जी जेपी के साथ ही जेल गए। बाद के दिनों में जनता पार्टी बनी। मोरार जी देसाई की सरकार बनी तो वह मंत्री बन गए। लेकिन जब दोहरी सदस्यता के फेर मोरार जी की सरकार गिरी तो नाना जी सक्रिय राजनीति त्याग कर समाज सेवा की ओर मुड़ गए। वह महाराष्ट्र के रहने वाले थे। लेकिन समाज सेवा के लिए उन्हों ने उत्तर प्रदेश चुना। उत्तर प्रदेश में सब से पिछडा ज़िला गोंडा। वहां भी उन्हों ने महात्मा गांधी की तर्ज़ पर जेपी की पत्नी प्रभावती के नाम पर प्रभावती ग्राम ही बनाया। ठीक वैसे ही जैसे गांधी ने दक्षिण अफ़्रीका में टालस्टाय आश्रम या देश में वर्धा या साबरमती आश्रम बनाया था। बल्कि नाना जी ने दो कदम आगे जा कर इस आश्रम को शिक्षा और रोजगार से जोड़ा। लेकिन जल्दी ही वह चित्रकूट चले गए। आज नाना जी देशमुख नहीं हैं पर कोई धृतराष्ट्र जैसा जन्मांध भी जो चित्रकूट चला जाए तो उसे उन का काम साफ दिखेगा, सुनाई देगा। वहां के लोगों खास कर आदिवासियों के बच्चों के लिए प्राइमरी से लगायत स्नातकोत्तर तक की शिक्षा, भोजन और चिकित्सा मुफ़्त है। कम से तीन दशक से। इतना ही नहीं वहां के लोगों को रोजगार तक वह सिखाते थे। कि कैसे काम सीख कर खुद का रोजगार वह शुरू कर सकें। तरह तरह के रोजगार। तमाम पिछडे़पन के बावजूद चित्रकूट आज तरक्की की राह पर है। न सिर्फ़ तरक्की बल्कि शांति की राह पर। नहीं तय मानिए कि अगर नाना जी देशमुख चित्रकूट न गए होते तो आज की तारीख में चित्रकूट दंतेवाडा से भी ज़्यादा बड़ा खतरनाक मोड़ पर खड़ा होता।
चित्रकूट क्या है पथरीला इलाका है। जहां आज भी खेती भगवान भरोसे होती है। पानी का साधन आज भी नहीं है कि खेतों की सिचाई हो सके। ज़मींदारों का आतंक इतना कि घर से बेटी-बहन कब उठा ले जाएं और फिर कभी वापस न दें। पिता का नाम चाहे किसी आदिवासी का हो, संतान तो वह किसी ज़मींदार का ही होता। और यह आदिवासी औरतें बेचारी दो जून भोजन के बदले अपने पति के पास लौटने को तैयार नहीं होती थीं। दो जून भोजन के बदले वह देह और परिश्रम बेच देती थीं। मैं खुद गया हूं चित्रकूट और पूरा इलाका घूमा हूं। लौट कर एक रिपोर्ट लिखी थी जो अखबार में एक पूरे पेज में छपी थी- अवैध संबंधों की आग में दहकता पाठा। ऐसे ही अत्याचारों से ददुआ जैसे लोग पैदा होते थे। बाद के दिनों में तो खैर ददुआ खुद एक बड़ा आतंक बन चला था। कि लोगों का जीना रहना दूभर हो गया। एक तरह से ददुआ और ददुआ जैसे लोगों का शासन चलता था वहां। सरकार और प्रशासन वहां नाम भर के थे। एक आईएएस अफ़सर हैं। आज कल एक ज़िले में ज़िलाधिकारी हैं। एक समय चित्रकूट इलाके में एसडीएम थे। एक मंदिर का कार्यक्रम था। एसडीएम मुख्य अतिथि थे। मय फ़ोर्स के वह वहां मौजूद थे कि तभी ददुआ आया। मंदिर में पूजा अर्चना की और लौटते समय एसडीएम के भी पैर छू कर दक्षिणा स्वरुप उन्हें पैसे भी दिए। वह चुपचाप खडे़ रहे। मिली दक्षिणा उन्हों ने तुरंत मंदिर को दान दे दी। लेकिन उसे अरेस्ट नहीं कर पाए। जब कि उस पर तमाम मुकदमे थे, वारंट था। मैं ने उन से पूछा कि अरेस्ट क्यों नहीं किया? तो वह बोले, ' फ़ोर्स मेरे साथ बहुत कम थी। और सारी जनता उस का जयकारा लगा रही थी, उस के साथ थी। क्या करता मैं भला?
ऐसे में नाना जी देशमुख चित्रकूट पहुंचे थे। और चित्रकूट का नक्शा बदल दिया। रहा होगा कभी चित्रकूट राम के वनगमन का पहला पड़ाव, रहे होंगे कभी तुलसीदास भी। लिखा होगा कि चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़, तुलसीदास चंदन घिसैं तिलक देत रघुवीर। लेकिन अब जो नाना जी देशमुख चित्रकूट पर विकास, रोजगार और शांति का चंदन लगा गए हैं, ना वह किसी कांग्रेसी, किसी जनसंघी, किसी भाजपाई, किसी आरएसएस या कम्युनिस्ट या किसी फ़ासिस्ट के वश का है नहीं जो उसे मिटा दे। क्यों कि चित्रकूट की सभी शिराओं में नाना जी ने जो शिक्षा, रोजगार, विकास और शांति का पाठ लिखा है न, वह मिटने वाला है नहीं। नाना जी जब जीवित थे तब उन से मिलने चित्रकूट कौन नहीं पहुंचता था? उन के काम से, उन की सेवा से प्रभावित सभी लोग पहुंचते थे। दलों की दूरियां वहां टूट जाती थीं। प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर, नारायणदत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव जैसे राजनीतिज्ञ जब तब पहुंचते ही रहते थे उन से मिलने। और सिर्फ़ मिलते ही नहीं, गुहार भी करते थे कि नाना जी उन के क्षेत्र में भी चल कर कुछ ऐसा ही काम करें? तो क्या यह चंद्रशेखर, यह नारायणदत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव आरएसएस के एजेंट थे? या कि हैं? फ़ोटो तो दिग्विजय सिंह की भी नाना जी देशमुख के साथ देखी गई है। लेकिन कभी खुर्राट राजनेता रहे दिग्विजय अब घाघ और बेशर्म नेता हो चले हैं। और दिक्कत यह कि जब नाना की बात चली अन्ना के नाम के साथ तो चंद्रशेखर तो अब नहीं हैं होते तो मैं जानता हूं कि वह बेबाकी से नाना जी देशमुख के पक्ष में खडे़ दीखते। कि कम से कम उन को तो ऐसा मत कहिए। दुर्भाग्य से मुलायम आदि राजनीतिज्ञों में अभी वह उदारता नहीं आ सकी है। और इन राजनीतिज्ञों में जो कभी कभार उदारता दीखती है पर उस उदारता के नीचे जो क्रूरता छुपी होती है वह कौन देख पाता है भला? और जो देखता भी है तो उस का बयान भी कौन कर पाता है भला? पर अभी इस के व्यौरे में जा पाने का शायद समय नहीं आया है।
खैर, नाना जी देशमुख के पास तब जाने वालों में सिर्फ़ राजनीतिज्ञ ही नहीं तमाम उद्योगपति और पत्रकार आदि भी थे। उन्हों ने काम ही ऐसा किया है। ढेर सारे संस्थान तो खोले ही हैं चित्रकूट में उन्हों ने पर इन सब में भी एक और गज़ब काम किया है नाना जी ने। टाटा की मदद से एक आयुर्वेद शोध संस्थान खोला है। जो अपने आप में अदभुत है। दुनिया मे अपने किस्म का अकेला। तमाम किस्म की जडी बूटियों सहित आयुर्वेद की तमाम ज़रुरी चीज़ें भी वहीं संरक्षित की हैं। काफी बडे़ इलाके में फैले इस आयुर्वेदिक संस्थान में सौ से अधिक नस्ल की तो सिर्फ़ देशी गाय हैं। पूरी एक गऊशाला है। देख कर आंखें चुंधिया जाती हैं। और मजा यह कि यह और ऐसे तमाम कामों के लिए लोग जो अकसर पैसे का रोना रोते रहते हैं, नाना जी को कभी यह सब नहीं करना पड़ा। मैं उन से १९९६ में चित्रकूट मे मिला था। तब एक लंबा इंटरव्यू भी किया था। बहुत सारी बातें हुई थीं। मैं ने उन से पूछा कि इन कामों के लिए कभी पैसे की कमी नहीं पडती? वह छूटते ही बोले कभी नहीं। उन्हों ने बताया कि वह कभी किसी से पैसा मांगने भी नहीं जाते। जिस को देना होता है वह खुद चल कर चित्रकूट आता है। कई बार लोगों को पैसा वापस करना पड़ जाता है। मैं अपने पास काम से अधिक पैसा नहीं रखता। वापस कर देता हूं। तमाम उद्योगपति मेरे पास आते हैं पैसा ले कर। लेकिन मैं योजना खुद बनाता हूं। किसी की बनाई योजना पर काम नहीं करता। योजना में जितना पैसा लगना होता है बता देता हूं। लोग दे देते हैं। काम शुरू हो जाता है। काम समय से हो जाता है। मैं यहां कोई व्यवसाय तो कर नहीं रहा कि बहुत पैसा चाहिए हो।
मैं ने उन से पूछा कि आप को नहीं लगता कि अगर आप सत्ता में भी होते या सक्रिय राजनीति में ही सही तो और ज़्यादा बेहतर काम करते? नाना जी बोले, बिलकुल नहीं। सत्ता या राजनीति में रह कर कुछ नहीं किया जा सकता। और जो करेंगे भी तो दाग ज़रुर लगेगा। फिर वह बताने लगे कि हमारा समाज वनवासी राम की पूजा करता है, राजा राम की नहीं। राजा राम ने तो कई सारे फ़ैसले इधर-उधर के किए। अप्रिय फ़ैसले किए। पर वनवासी राम ने नहीं। वनवासी राम ने समाज का कल्याण किया। राक्षस मारे। इसी लिए मैं सत्ता से, राजनीति से अलग हो गया। मैं ने चित्रकूट को चुना समाज सेवा के लिए। कि राम का वनवास यहीं से शुरु हुआ। मेरी यहां ज़रुरत थी। मैं भी वनवासी हो गया। उन्हों ने तमाम योजनाएं बताईं। और कहा कि समय नहीं है अब मेरे पास, नहीं तो और भी बहुत काम करता। उन्हों ने तमाम राजनीतिज्ञों का ज़िक्र किया और बताया कि वह लोग चाहते हैं कि उन के क्षेत्र में भी जा कर काम करूं। तो मैं ने पूछा, कि क्यों नहीं जाते? तो वह बोले वृद्ध हो गया हूं। काम करने की क्षमता जितनी है, उतनी ही करूंगा। और मैं काम शुरू कर के चला आऊं और कोई गड़बड़ करे मुझे बर्दाशत नहीं। यह समाज सेवा है, कोई उद्योग नहीं, व्यवसाय नहीं। कि पांव पसारता जाऊं। पैसा कमाता जाऊं। उन दिनों वह थोड़ा ऊंचा सुनते थे। ठीक से चलना फिरना भी मुश्किल था। पर मैं ने देखा कि जब भोजन का समय हुआ तब वह सब के साथ फ़र्श पर बैठ कर ही खाने बैठे। और खा कर अपनी थाली खुद उठाई और जा कर धोई और रख दी। सब ने यही किया।
मैं ने उन से बात ही बात में पूछा कि आप को नहीं लगता कि अगर आप ने विवाह किया होता तो जीवन और बेहतर हुआ होता। उन्हों ने नि:संकोच बताया कि हां मुझे भी अब लगता है कि यह गलती हुई। अगर विवाह किया होता तो ज़रुर अच्छा हुआ होता। शायद काम करने की ऊर्जा और होती। पर क्या करें विवाह करने की जब उम्र थी तब यह सब सोचने का अवकाश नहीं मिला। पर अब यह बात खलती है। यही बात एक बार अटल बिहारी वाजपेयी से भी मैं ने पूछी थी तो वह ज़रा टालमटोल पर आ गए। और अंतत: बोले कि अब जब नहीं किया तो क्या कहें। फिर कहने लगे जब समय था विवाह का तब देश सामने था, अब भी है। अब क्या कहूं? फिर वह कहने लगे यह तो वह लड्डू है जो खाय वो भी पछताय, जो न खाए वह भी पछताए। और हंसने लगे। लता मंगेशकर से जब एक बार यही सवाल पूछा तब वह पहले तो वह टाल गईं पर बाद में बोलीं कि समय कहां मिला जो अपने विवाह के बारे में सोचती। फिर उमर निकल गई। पर हां उन्हों ने यह ज़रूर कहा कि इस के लिए उन के मन में कोई पछतावा नहीं है। पर नाना जी को था। नाना जी देशमुख से मेरी आखिरी मुलाकात फिर दिल्ली में हुई वर्ष दो हज़ार में। जेपी की जन्म शताब्दी की तैयारियां थीं। लोग अलग-अलग मना रहे थे। नाना इस से नाखुश थे। गांधी शांति प्रतिष्ठान के लोगों ने भी तैयारी की थी और रोष जताया था कि नाना जी को भी इस की चिंता नहीं है। नाना को मैं ने यह बात बताई तो वह क्षुब्ध हो गए। बोले जेपी के लिए मुझे किसी का सर्टिफ़िकेट नहीं चाहिए। उन के लिए लाठियां मैं ने खाई हैं, उन के काम को आगे मैंने बढ़ाया है, मैं इसी से संतुष्ट हूं। मुझे जे पी के लिए जो करना होगा कर लूंगा। उन्हों ने किया भी। पर आज उन्हीं जेपी के लोग नाना के साथ अन्ना की फ़ोटो पर कांग्रेसियों के सुर में सुर मिला रहे हैं। कोई एक भी राजनीतिज्ञ या पत्रकार नाना के निष्कलंक जीवन और उन के सामाजिक काम की चर्चा नहीं कर रहा। कुछ लोग या तो बोल रहे हैं या कुछ लोग चुप्पी साध गए हैं। गोया नाना कोई पेशेवर चोर रहे हों और अन्ना ने उन के साथ फ़ोटो खिंचवा कर कोई बहुत बडा गुनाह कर दिया हो।
अन्ना हजारे, कांग्रेस और लोकपाल की इस बहस में है कोई नाना जी देशमुख के सामाजिक सरोकारों की चमक का बखान करने वाला? सच तो यह है कि अगर नाना जी देशमुख जैसे दस लोग भी देश में समाजसेवी हो जाएं तो तय मानिए देश की दशा सुधर जाएगी। समाज बदल जाएगा। अभी तो लोग फ़िल्म, क्रिकेट और राजनीति और धर्म के लोगों को ही सेलीब्रेटी माने बैठे हैं। यह यों ही नहीं है की आज की पीढ़ी नहीं जानती नाना जी देशमुख को। नहीं जानती बाबा आम्टे को, सुंदरलाल बहुगुणा या बाबा राघव दास जैसे लोगों को। सोचिए कि एक समय था कि लोग कहीं भी जा कर काम कर लेते थे। अब तो महाराष्ट्र में जा कर बिहार या उत्तर प्रदेश के लोग पीटे जा रहे हैं। लेकिन एक समय था कि महाराष्ट्र के लोग उत्तर प्रदेश में आ कर एक से एक अनूठे काम किए। बाबा राघव दास एक समय पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांधी कहे जाते थे। लेकिन कितने लोग जानते हैं कि वह पूर्वी उत्तर प्रदेश में महाराष्ट्र से आए थे। नाना जी देशमुख भी महाराष्ट्र से ही उत्तर प्रदेश में आए। मधुकर दीघे महाराष्ट्र से ही गोरखपुर आए थे। समाज सेवा के लिए। मज़दूरों के लिए काम करते करते वह राजनीति में आए। लोहिया के साथ काम करने लगे। जेपी मूवमेंट में जेल गए। १९७७ में उत्तर प्रदेश की जनता सरकार में वह वित्त मंत्री बने। मेघालय के राज्यपाल भी हुए। बाद में समाजवादी पार्टी में आ गए। छोडिए हनुमान प्रसाद पोद्दार तो गोरखपुर बंगाल से आए थे। गांधी के आंदोलन में कूद गए। गीता प्रेस जैसी संस्था दे दी। पर कितने लोग यह जानते हैं।
हां सनी लियोन, वीना मलिक, शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर आदि को ज़रुर जानते हैं। और सोचिए कि हमारी संसदीय राजनीति भी कहां चली गई है? उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक संसदीय कार्य मंत्री रहे बेनी प्रसद वर्मा का अंदाज़ तो देखिए। वह अन्ना को कहते हैं कि बुड्ढ़ा यूपी में आ कर देख ले। फिर वह कहते हैं कि वह सेना का भगोड़ा है। दिग्विजय सिंह तो दस बरस मुख्यमंत्री रहे हैं मध्य प्रदेश के लेकिन उन की भाषा और अंदाज़ भी देखिए न। लालू तो अपने अहंकार के कुएं में कूद कर लोकपाल को फ़ांसी घर बता ही चुके हैं। मनीष तिवारी अन्ना को किस तरह संबोधित कर चुके हैं हम सब जानते हैं। तो क्या यही सेलीब्रेटी हैं हमारे? नाना जी देशमुख जैसे लोग चोर हैं? यह कौन सा समाज और राजनीति हम देख रहे हैं? लोकपाल और अन्ना की बहस में नाना जी देशमुख जैसे फकीरों का असली चेहरा भी देखना क्या ज़रुरी नहीं है? सच मानिए बहुत ज़रुरी है।
आपका यह लेख अद्भुत है. नमन.
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