अमरकांत जी इन दिनों फिर चर्चा में हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर। अभी कुछ समय पहले भी वह चर्चा में थे। इन्हीं हथियारों से उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने पर। पर यह पुरस्कार भी उन्हें देरी से मिला था। बहुत देरी से। यह ज्ञानपीठ पुरस्कार अब की श्रीलाल शुक्ल को भी दिया गया है। उन्हों ने तो साफ कहा है कि यह पुरस्कार पा कर उन्हें हर्ष तो हुआ है पर रोमांच नहीं।
स्पष्ट है कि श्रीलाल जी दूसरे शब्दों मे कह रहे हैं हैं कि उन्हें यह पुरस्कार बहुत देर से मिला है। यही बात उन्हों ने अभी बीते दिनों पद्म-विभूषण पाने पर भी कही थी। हालां कि श्रीलाल जी भाग्यशाली थे कि उन्हें रागदरबारी पर जवानी में ही साहित्य अकादमी मिल गया था। पर अमरकांत जी इस अर्थ में भाग्यशाली नहीं थे। उन्हें तो जवानी क्या बुढ़ौती में भी संघर्ष ही नसीब में मिला है। श्रीलाल जी ब्यूरोक्रेट थे, अच्छी खासी पेंशन भी पाते हैं। उन को रायल्टी भी ठीक-ठाक मिल जाती है। रागदरबारी उन का बेस्ट सेलर है। पुरस्कार भी कई मिल चुके हैं। हालां कि जब उन को व्यास सम्मान मिला था तब एक दिन उधर मिले कुछ पुरस्कारों को ले कर कहने लगे कि इतना पैसा तो आज तक रायल्टी में भी नहीं मिला। पर अमरकांत जी ठहरे खालिस पत्रकार। उन के पास कोई बेस्ट सेलर भी नहीं है। सो उन्हें अपने इलाज के लिए भी पैसों के लिए दूसरों का मुंह देखना पड़ता है। सरकारों से फ़रियाद करनी पड़ती है। और सरकारें नहीं पसीजतीं। एक धेला भी नहीं देतीं। सो ऐसे में उन्हें इस ज्ञानपीठ पुरस्कार में मिलने वाले पांच लाख रुपए की सचमुच बहुत दरकार थी। हालां कि अमरकांत जी का लिखना और मस्ती बावजूद तमाम अभाव के छूट्ती नहीं है।
कुछ समय पहले मैं इलाहाबाद गया था तो उन से भेंट की थी। मैं गोरखपुर का हूं जान कर वह भावुक हो गए। न सिर्फ़ भावुक हो गए बल्कि गोरखपुर की यादों में डूब गए। अचानक भोजपुरी गाने ललकार कर गाने लगे। बलिया से एक बार कैसे वह गोरखपुर बारात में आए थे, यह बताने लगे। यह भी कि बड़हलगंज में कैसे तो पूरी बस को नाव पर लादा गया था तब सरयू नदी पार करने के लिए। और एक से एक बातें। वह कुछ समय गोरखपुर में रह कर पढे़ भी हैं यह भी बताने लगे। फिर जब वह ज़्यादा खुल गए तो मैं ने उन्हें गोरखपुर में उन के एक मित्र की याद दिलाई जिन की बेटी से वह अपने बेटे अरुण वर्धन की शादी करने की बात चला चुके थे। उन मित्र को उन्हों ने खुद बेटे से शादी का प्रस्ताव दिया और कहा कि कोई लेन देन नहीं, और कोई अनाप शनाप खर्च नहीं। बारात को सिर्फ़ एक कप काफी पिला देना। बस!
तब के दिनों अमरकांत जी के इस हौसले की गोरखपुर में बड़ी चर्चा थी। लेकिन यह शादी नहीं हो सकी। मैं ने उन से धीरे से पूछा कि आखिर क्या बात हो गई कि वह शादी हुई नहीं? तो अमरकांत जी उदास हो गए। बोले, 'असल में बेटे को मंजूर नहीं था। वह असल में कहीं और इनवाल्व हो गया था तो बात खत्म करनी पड़ी।' यादों में वह जैसे खो से गए। कहने लगे कि, 'अब आप को बताऊं कि उस की शादी में क्या क्या नहीं देखना-भुगतना पड़ा मुझे! लड़की तक भगानी पड़ी। पुलिस, कचहरी तक हुई। मेरे खिलाफ़ रिपोर्ट तक हुई। असल में वह लोग ब्राह्मण थे। हम लोग कायस्थ। तो वह लोग तब मान नहीं रहे थे। लड़की तैयार थी, लड़का तैयार था तो यह सब अपने बेटे के लिए मुझे करना पड़ा। खैर कुछ समय लगा, यह सब रफ़ा-दफ़ा
होने में। बाद में सब ठीक हो गया। फिर वह अचानक अपने आज़ादी की लड़ाई के दिनों में लौट गए। और एक भोजपुरी गाना फिर गुनगुनाने लगे।
हालां कि पुरस्कारों की राजनीति कितनी नंगी है इस पर जितनी भी बात की जाए कम ही है। खास कर कथाकारों को ले कर बहुत राजनीति हुई है। अब देखिए न कि, कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी जैसे कथाकारों को साहित्य अकादमी एकदम निधन के पूर्व मिला। तब जब कि लीलाधर जगूडी, मंगलेश डबराल या वीरेन डंगवाल जैसे कवियों को इतनी जल्दी साहित्य अकादमी दे दिया गया कि लोग चौंक-चौंक गए। हर बार। यह सिर्फ़ और सिर्फ़ नामवर सिंह की राजनीति थी। कि कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी या अमरकांत जैसे कथाकारों को देर ही नहीं बहुत देर से यह सम्मान मिला। वह भी तब जब वह साहित्य अकादमी की ठेकेदारी से अलग हुए तब। यह तथ्य भी दिलचस्प है कि नामवर सिंह को साहित्य अकादमी पहले मिल गई और उन के आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को उन से दो साल बाद। वह भी आलोचना पर नहीं, उपन्यास पर। यह भी अद्भुत था कि एक समय आवारा मसीहा जब छप कर आया तो उस की धूम मच गई। लेकिन आवारा मसीहा के लेखक विष्णु प्रभाकर को साहित्य अकादमी नहीं दिया गया। तब मुद्राराक्षस ने अलग से एक समारोह आयोजित कर दिल्ली में ही विष्णु प्रभाकर को एक रुपए की राशि से उन्हें सम्मानित कर साहित्य अकादमी को अंगूठा दिखाया था। इस समारोह में देश भर से लेखक जुटे थे।
विष्णु जी को साहित्य अकादमी मिला बाद में पर उन की एक कमजोर कृति पर। पर मुद्राराक्षस को तो आज तक साहित्य अकादमी नहीं मिली। और इस के लिए वह बिना नाम लिए बाकायदा लिख कर श्रीलाल जी और उन के मित्रों पर संकेतों में ही सही लगातार इल्ज़ाम पर इल्ज़ाम लगाते रहे हैं। खुल्लमखुल्ला। इस को ले कर उन का अवसाद भी एक समय देखा जाता था। और तो छोडिए यशपाल जैसे लेखक भी राजनीति का शिकार हुए। उन के कालजयी उपन्यास झूठा सच पर साहित्य अकादमी नहीं दिया गया। इस लिए कि उस में नेहरु की आलोचना थी। महादेवी वर्मा दिनकर से पहले से लिख रही थीं और प्रतिष्ठित भी थीं पर दिनकर से दस साल बाद उन्हें साहित्य अकादमी मिला। इतना ही नहीं अज्ञेय जी को भी महादेवी से पहले साहित्य अकादमी मिला। अभी तो उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पिछली दफ़ा मिल गया, अशोक वाजपेयी के जोर से पर एक ज़माने तक वह भी इस को ले कर प्राकारांतर से कुपित ही रहते थे और जब -तब साहित्य अकादमी की राजनीति पर तलवार लिए खडे़ दीखते थे। कौन नहीं जानता कि मैत्रेयी पुष्पा साहित्य अकादमी पाने के लिए क्या-क्या यत्न कर गई हैं और अभी भी वह हारी नहीं हैं।
सोचिए कि कामतानाथ जैसा बड़ा लेखक अभी भी साहित्य अकादमी से कोसों दूर है। तो यह पुरस्कारों में राजनीति की एक नई खिड़की है। अब अलग बात है कि कालकथा जैसा कालजयी उपन्यास रचने के बावजूद कामतानाथ कभी पुरस्कारों की छुद्र दौड़ में उलझे नहीं। ऐसे ही एक नाम रामदरश मिश्र का भी है। वह भी बडे़ लेखक हैं। पर किसी खेमे के नहीं हैं सो वह न सिर्फ़ पुरस्कारों से बल्कि चर्चा तक में तिरस्कृत हैं। कोई गुट उन का नाम भी नहीं लेता। इलाहाबाद में रह रहे शेखर जोशी जैसे अप्रतिम कथाकार भी ऐसी ही राजनीति के शिकार हैं। ज्यां पाल सार्त्र ने तो एक समय नोबेल पुरस्कार ठुकरा दिया था और कहा था कि पुरस्कार और आलू के बोरे में कोई फ़र्क नहीं है। अब अलग बात है कि एक समय इलाहाबाद में उपेंद्रनाथ अश्क इस लिए बिखरे-बिखरे घूमते थे कि उन्हें नोबेल नहीं मिल रहा था। वास्तव में इलाहाबाद की राजनीति में वह आकंठ फंस चुके थे और उन्हें लगता था कि उन की रचनाओं का अगर अंगरेजी में ठीक से अनुवाद हुआ होता तो नोबेल उन से दूर नहीं था।
शहरों की राजनीति में फंस कर आदमी ऐसे ही हो जाता है। दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। लखनऊ में ही दो बडे़ कथाकार हैं। एक हरिचरण प्रकाश और दूसरे नवनीत मिश्र। पर लखनऊ में ही इन का नाम मठाधीश लोग भूल कर भी नहीं लेते। न किसी चर्चा में न किसी आयोजन में। अखबारों की टिप्पणियों तक से यह लोग खारिज हैं। रही बात मुद्रा राक्षस की तो एक मुहावरा याद आता है कि अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोडता। तो अपने मुद्रा जी अकेला चना हैं। और मज़ा यह कि इस मुहावरे को झुठलाते हुए वह भाड़ भी फोड़ते ही रहते हैं जब-तब। जिस को जो कहना हो कहता रहे, वह उस की परवाह हरगिज़ नहीं करते। वह बिखरते और बनते रहते हैं अपनी ही शर्तों पर। लेकिन एकला चलो रे की उन की धुन कभी कोई छुड़ा नहीं पाया उन से। कई बार इस फेर में वह अतियों के भी शिकार हो जाते हैं। पर इस सब से वह बेफिक्र अपने एकला चलो में व्यस्त हैं। इस पर सोचने की सचमुच ज़रुरत है कि उन्हें इस एकला चलो के हाल में पहुंचाने वाले कौन लोग हैं?
यह तो हुई कथाकारों की बात। एक कवि हैं बाबूलाल शर्मा प्रेम। क्या तो गीत हैं उन के पास। ' चांदनी को छू लिया है, हाय मैं ने क्या किया है!' जैसे एक से एक अप्रतिम गीत उन्हों ने लिखे हैं। और तो और रजनीश ने उन के कई गीतों पर बडे़ विस्तार से प्रवचन किए हैं। पर लोग उन्हें नहीं जानते। यह जो काकस है न लखनऊ से लगायत दिल्ली, बनारस और इलाहाबाद तक का किसी भले आदमी को खड़ा नहीं होने देता। अलग बात है कि काकस में शामिल लोगों के पास फ़तवे जोड-गांठ ज़्यादा हैं पर गांठ में रचनाएं क्षीण हैं। सो फतवेबाज़ी और सीनाजोरी में सारी कसरत बेकार जाएगी यह जानने में इन महारथियों को समय लगेगा। अब अलग बात है कि यह लोग एक से एक द्विजेंद्रनाथ मिश्र निर्गुण को भी पी गए हैं। पर बनारस के पानी और उन की रचनाओं की ताकत ने उन्हें पाठकों के बीच आज भी बनाए रखा है। ऐसे बहुतेरे रचनाकार हैं जो मठाधीशों की मठाधीशी को धूल चटाते हुए, पुरस्कारों को आलू का बोरा बताते हुए अपनी रचनाओं के दम पर पाठकों में अपनी जगह और जड़ें दोनों ही मज़बूत की हैं। नहीं खारिज करने को तो एक समय भैया लोगों ने प्रेमचंद और निराला को भी कर दिया था। तो क्या वह लोग खारिज हो गए? पता चला कि वह लोग तब के मठाधीश थे और देखिए न कि उन मठाधीशों के नाम अब हमें ही याद नहीं आ रहे। तो हम क्या करें? इन मठाधीशों की जय बोलें कि इन रचनाकारों की! अपने लिए यह आप ही तय कर लें तो बेहतर होगा। हम तो रचनाकारों की जय बोल रहे हैं। जय हो !
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