Friday, 27 January 2012

'उनका हर ऐब भी जमाने को हुनर लगता है'


बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी : अभी किन्हीं सज्जन की पतिव्रता टाइप टिप्पणी पढ़ी। जो मुझे भाषा की मर्यादा समझाने में लथ-पथ हैं। गोस्वामी तुलसीदास जीवित नहीं हैं अभी। अगर होते तो ऐसे पतिव्रता टाइप टिप्पणीबाज उन्हें ही हजारों सलाह देते कि 'मरे हुए रावण को राक्षस क्यों लिख रहे हैं? अरे, आप तो सीता का हरण भी मत लिखिए। यह सब नहीं लिखना चाहिए। समाज पर बहुत गलत असर पड़ेगा, वगैरह-वगैरह।' बता दूं कि मैंने कभी जागरण में नौकरी नहीं की। लेकिन क्या जरूरी है कि अमेरिका की दादागिरी को जानने के लिए अमेरिका में जा कर रहा भी जाए? या उसका शिकार होकर ही उसकी दादागिरी को बताया जा सकता है? मैं यहां कुछ छोटे-छोटे उदाहरण देकर इन सती-सावित्री टाइप, पतिव्रता टाइप टिप्पणीबाजों को आइना दिखाना चाहता हूं। लखनऊ में एक जमाने में बहुत ही प्रतिष्ठित अखबार हुआ करता था- स्वतंत्र भारत। उसके एक यशस्वी संपादक थे अशोक जी। उनको एक बार मर्यादा की बड़ी पड़ी तो उन्होंने एक फरमान जारी किया कि जिस भी किसी का नाम अखबार में लिखा जाए, सभी के नाम के आगे 'श्री' जरूर लिखा जाए।
सबको सम्मान दिया जाए। संपादकीय सहयोगियों ने ऐसे ही लिखना शुरू किया। सम्मान देना शुरू किया। जैसे, 'श्री कालू राम पाकेटमारी में पकड़े गए', 'श्री अब्दुल अंसारी हत्या में गिरफ्तार हुए', 'श्री राम चरण जी बलात्कार में गिरफ्तार कर जेल भेजे गए', 'श्री गंगाराम छेड़खानी में धरे गए', वगैरह-वगैरह। यह सब देखकर संपादक जी का गुस्सा सहयोगियों पर उतरना स्वाभाविक था। बोले- 'यह क्या हो रहा है कि अपराधियों को भी 'श्री' लिखा जा रहा है? उनको सम्मान दिया जा रहा है?' सहयोगियों ने उन्हें बताया कि यह तो आपका ही आदेश है। लिखित है। संपादक जी झुंझला गए और अपना वह आदेश तुरंत निरस्त कर दिया।
दूसरा उदाहरण। खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखा है कि जब वह हिंदुस्तान टाइम्स में संपादक होकर गए तो केके बिड़ला से कहा कि अखबार में सरप्लस स्टाफ बहुत है और यहां मुस्लिम कोई नहीं है। कुछ मुस्लिम रखने होंगे और सरप्लस स्टाफ को हटाना होगा। तो केके बिड़ला ने खुशवंत सिंह से दो टूक कहा कि स्टाफ आपको जितने और रखने हों, जैसे रखने हों, रख लीजिए, पर निकाला कोई नहीं जाएगा।
पर जनाब अपने नरेंद्र मोहन जी? स्टाफ रखने ही नहीं देते थे, ताकि निकालने वगैरह की झंझट ही ना हो। जो रखे भी जाते, उनमें ज्यादातर वाउचर पेमेंट पर होते। श्रम कानूनों की अखबारों में अब तो हर जगह धज्जियां उड़ाई जाती हैं पर अपने आदरणीय नरेंद्र मोहन जी ने यह सब तीन दशक पहले ही शुरू कर दिया था। श्रम कानून जैसे उनका जरखरीद गुलाम था। उनकी इस अदा की हवा कइयों ने कुछ एक बार निकाली भी। जैसे गोरखपुर में सुरेंद्र दुबे ने। वह वहां प्रभारी थे। अखबार लांच किया था। अखबार को जमाया था। पर अपमान की जब पराकाष्ठा हो गई तो वह सिर उठाने लगे। मर्दानगी दिखाने लगे। उन्हें चलता कर दिया गया। पर जाते-जाते उन्होंने एक काम किया। कुछ लोगों को नियुक्ति पत्र थमा गए। इनमें कई वकील थे। इन सबों ने मुकदमें में रगड़ दिया। हारकर जागरण प्रबंधन को सबसे समझौता करना पड़ा।
ऐसा ही राम दरश त्रिपाठी ने भी भवन के एक मामले में किया। रसगुल्ला घुमा दिया। इनके गुंडों की फौज खड़ी ताकती रह गई। यह मामला कुछ इस प्रकार था। गोरखपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी ने आज और जागरण अखबारों को लड़ाने के लिए एक ही बिल्डिंग एलाट कर दी। आज को पहले से एलाट था। बाद में जागरण को भी कर दिया। जागरण ने उस पर कब्जा ले लिया। बाद में आज वाले हाईकोर्ट गए। हाईकोर्ट के एक आदेश का हवाला देते हुए तत्कालीन यूनिट हेड राम दरश त्रिपाठी ने बिल्डिंग पर आज को लिखित में कब्जा दे दिया और अपनी पूरी टीम सहित जागरण से इस्तीफा दे दिया। खुद समेत सभी को आज का हिस्सा बना लिया। विनोद शुक्ला और उनकी टीम के गुंडे आकर हाथ मलते रह गए। नरेंद्र मोहन तिलमिला कर रह गए। ये लोग कुछ कर नहीं पाए। राम दरश त्रिपाठी ने यह तब किया जब कि वे खुद कोई तीन दशक से जागरण परिवार के कानूनी सलाहकार के तौर पर जुड़े रहे थे।
लखनऊ में राजेश विद्रोही थे। उन्होंने भी जागरण में कुछ दिनों गुजारे थे। बहुत अच्छी गजलें लिखते थे। पर काम में कभी कोई गल्ती होती और जो कोई टोकता तो वह इस्तीफा लेकर खड़े हो जाते। बहुत मान-मनौव्वल पर मानते। आजिज आकर एक बार सहयोगियों ने यह समस्या उठाई विनोद शुक्ला के सामने। उन्होंने कहा कि अब जब कभी ऐसी बात हो तो हमें बताना। जल्दी ही वह मौका आ गया। राजेश विद्रोही ने इस्तीफा दिया तो लोगों ने विनोद शुक्ला को बताया। वह अपने कमरे से बाहर आए। हाथ जोड़कर कहा कि भैया विद्रोही, इस्तीफा वापस ले लो। विद्रोही और अड़ गए। विद्रोही का विद्रोह और प्रखर हो गया। बोले, नहीं भैया, अब तो इस्तीफा दे दिया है। भैया ने फिर हाथ जोड़ा और कहा कि यार, इस्तीफा वापस ले लो नहीं तो हमारी नौकरी चली जाएगी। विद्रोही और भड़के- नहीं, नहीं, इस्तीफा दे दिया है अब तो। और विनोद शुक्ला फिर बोले, मेरी नौकरी चली जाएगी। सहयोगियों ने पूछा कि भैया, विद्रोही के इस्तीफे से आपकी नौकरी कैसे चली जाएगी? भैया बोले- अरे, इस साले को अप्वाइंटमेंट लेटर तो दिया नहीं है और यह फिर भी इस्तीफा दे रहा है। ले लूंगा तो नौकरी नहीं चली जाएगी? फिर उन्होंने अपनी रवायत के मुताबिक विद्रोही से कहा कि उधर मुंह करो। विद्रोही ज्यों पीछे की तरफ मुड़े, विनोद शुक्ला ने उनकी पिछाड़ी पर कस कर लात मारी और कहा- फिर यहां दिखाई मत देना। अब ना ही विनोद शुक्ला हैं इस दुनिया में, ना ही राजेश विद्रोही।
तो अब भी कुछ कहना शेष हो तो बताएं ये पतिव्रता टिप्पणीबाज? उनके लिए अंजुम रहबर के दो शेर खर्च करने का मन हो रहा है-
इल्जाम आइने पर लगाना फिजूल है,
सच मान लीजिए चेहरे पर धूल है।
हां, फिर भी लोग हैं कि चारण गान में लगे ही रहते हैं तो यह उनका कुसूर नहीं है। अंजुम रहबर का ही दूसरा शेर सुनिए-
जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,
उनका हर ऐब भी जमाने को हुनर लगता है।
एक किस्सा और-
बात बहुत पुरानी है। एक समय, जनसत्ता के जमाने में, इस किस्से को राजीव शुक्ला ही बड़े मन और पन से रस ले लेकर सुनाते थे। दिल्ली में जागरण के एक संवाददाता थे। किसी बात पर निकाल दिए गए। उन दिनों टेलीग्राफिक अथारिटी से खबरें भेजने का चलन था। संवाददाता के पास वह टेलीग्राफिक अथारिटी पड़ी रह गई। एक दिन उन्होंने देर रात इसका दुरुपयोग करते हुए हिंदी के प्रसिद्ध कवि सोहन लाल द्विवेदी के निधन की एक डिटेल खबर बनाकर भेज दी। और गजब ये कि जागरण, कानपुर ने लीड बनाकर छाप भी दिया। कानपुर में आकाशवाणी के तब जो संवाददाता थे, वह और आगे की चीज थे। तड़के ही उन्होंने जागरण देखा तो आव देखा ना ताव, झट से खबर दिल्ली रवाना कर दी। अब आकाशवाणी के मार्फत पूरा देश जान गया सुबह-सुबह छह बजे कि सोहनलाल द्विवेदी नहीं रहे। जल्दी ही राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री वगैरह के शोक संदेश का तांता लग गया। गजब यह कि सोहनलाल द्विवेदी उस दिन कानपुर में ही थे। वह हैरान-परेशान। तब उन्हें राष्ट्र कवि कहा जाता था। वह जीवित थे और देश में उनके लिए शोक की लहर दौड़ रही थी। अजब था। वह जागरण पर धरना देकर बैठ गए, जैसा कि राजीव शुक्ला बताते थे। बाद में आकाशवाणी ने उस खबर पर अफसोस जताया।
खैर, किस्से तो ऐसे बहुत हैं, बहुतों के।
मित्रों, कुल मिलाकर बताना यही चाहता हूं कि आप किसी को सम्मान देकर ही उससे उसका बेस्ट ले सकते हैं। अपमानित करके नहीं। आदमी काम तो करेगा, नौकरी तो करेगा, अपना बेस्ट चाह कर भी नहीं दे सकेगा अपमानित होकर।
ऐसे में दोस्तों, फिर राजेश विद्रोही जैसे लोग याद आते हैं। राजेश विद्रोही के ही एक शेर पर बात खत्म करने को मन कर रहा है-
बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी,
खुद खबर है पर दूसरों की लिखता है।
और क्या कहूं अपने नादान दोस्तों से?

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