जयप्रकाश शाही अब इस दुनिया में नहीं हैं, पर तब वह टूट कर कहते थे कि यार, अगर कथकली या भरतनाट्यम भी किए होते तो दस-बीस साल में देश में नाम कमा लिए होते : प्रिय पायल जी, भड़ास4मीडिया पर आपकी दोनों चिट्ठियां पढीं। अच्छा है कि बेवकूफियों से आप का जल्दी मोहभंग हो गया। तालिबानी चाशनी में पगी ड्रेस वाली बात भी पढ़ी। ऐसी बातों से घबराइएगा नहीं। रही बात पत्रकारिता की तो आज की पत्रकारिता में कुछ नहीं धरा है। जो भी कुछ है, अब वह सिर्फ़ और सिर्फ़ भडुओं के लिए है। अब उन्हीं के लिए रह गई है पत्रकारिता। अब तो कोई गिरहकट भी अखबार या चैनल चला दे रहा है और एक से एक मेधावी, एक से एक जीनियस वहां पानी भर रहे हैं। एक मास्टर भी बेहतर है आज के किसी पत्रकार से। नौकरी के लिहाज़ से।
कब किस की नौकरी चली जाए, कोई नहीं जानता। हर कोई अपनी-अपनी बचाने में लगा है। इसी यातना में जी रहा है। सुविधाओं और ज़रूरतों ने आदमी को कायर और नपुंसक बना दिया है। पत्रकारिता के ग्लैमर का अजगर बडे़-बडे़ प्रतिभावानों को डंस चुका है। किस्से एक नहीं, अनेक हैं।
एक हैं डा. चमनलाल। आज कल संभवत: पंजाब कि पटियाला यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। हिंदी के आलोचक भी हैं। अनुवाद के लिए भी जाने जाते हैं। पहले मुंबई और तब की बंबई में एक बैंक में हिंदी अधिकारी थे। दिल्ली से जनसत्ता अखबार जब शुरू हुआ 1983 में तब वह भी लालायित हुए पत्रकार बनने के लिए। बडी चिट्ठियां लिखीं उन्हों ने प्रभाष जोशी जी को कि आप के साथ काम करना चाहता हूं। एक बार जोशी जी ने उन्हें जवाब में लिख दिया कि आइए बात करते हैं। चमनलाल इस चिट्ठी को ही आफ़र लेटर मान कर सर पर पांव रख कर दिल्ली आ गए। जोशी जी ने अपनी रवायत के मुताबिक उनका टेस्ट लिया। टेस्ट के बाद उन्हें बताया कि आप तो हमारे अखबार के लायक नहीं हैं। अब चमनलाल के पैर के नीचे की ज़मीन खिसक गई। बोले कि मैं तो बैंक की नौकरी से इस्तीफ़ा दे आया हूं। जोशी जी फिर भी नहीं पिघले। बोले, आप इस अखबार में चल ही नहीं सकते। बहुत हाय-तौबा और हाथ पैर-जोड़ने पर जोशी जी ने उन्हें अप्रेंटिश रख लिया और कहा कि जल्दी ही कहीं और नौकरी ढूंढ लीजिएगा। बैंक की नौकरी में चमनलाल ढाई हज़ार रुपए से अधिक पाते थे। जनसत्ता में छ सौ रुपए पर काम करने लगे। बस उन्होंने आत्महत्या भर नहीं किया, बाकी सब करम हो गए उनके। उन दिनों को देख कर, उनकी यातना को देख कर डर लगता था। आखिर बाल-बच्चेदार आदमी थे। पढे़-लिखे थे। अपने को संभाल ले गए। जल्दी ही पंजाब यूनिवर्सिटी की वांट निकली। अप्लाई किया। खुशकिस्मत थे, नौकरी पा गए। हिंदी के लेक्चरर हो गए। पर सभी तो चमनलाल की तरह खुशकिस्मत नहीं होते न! जाने कितने चमनलाल पत्रकारिता की अनारकली बना कर दीवारों में चुन दिए गए पर अपने सलीम को, अपनी पत्रकारिता के सलीम को, अपनी पत्रकारिता की अनारकली को नहीं पाए तो नहीं पाए। कभी पत्रकारिता के द्रोणाचार्यों ने उनके अंगूठे काट लिए तो कभी शकुनियों ने उन्हें नंगा करवा दिया अपने दुर्योधनों, दुशासनों से। पत्रकारिता के भडुवों के बुलडोजरों ने तो जैसे संहार ही कर दिया। तो बिचारी पायलों की आवाज़ को कौन सुनेगा भला? पहले देखता था कि किसी सरकारी दफ़्तर का कोई बाबू, कोई दारोगा या कोई और, रिश्वतखोरी या किसी और ज़ुर्म में नौकरी से हाथ धो बैठता था तो आकर पत्रकार बन जाता था। फिर धीरे-धीरे पत्रकारों का बाप बन जाता था।
पर अब?
अब देखता हूं कि कोई कई कत्ल, कई अपहरण कर पैसे कमा कर बिल्डर बन जाता है, शराब माफ़िया बन जाता है, मंत्री-मुख्यमंत्री बन जाता है, और जब ज़्यादा अघा जाता है तो एक अखबार, एक चैनल भी खोल लेता है। और एक से एक मेधावी, एक से एक प्रतिभाशाली उनके चाकर बन जाते हैं, भडुवे बन जाते हैं। उनके पैर छूने लग जाते हैं। हमारा एक नया समाज रच जाते हैं। हमें समझाने लायक, हमें डिक्टेट करने लायक बन जाते हैं। बाज़ार की धुरी और समाज की धड़कन बनने बनाने के पितामह बन जाते हैं।
साहिर लुधियानवी के शब्दों में इन हालातों का रोना रोने का मन करता है :
बात निकली तो हर एक बात पर रोना आया
कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया
यहीं शकील बदायूंनी भी याद आ रहे हैं:
पायल के गमों का इल्म नहीं, झंकार की बातें करते हैं
तो पायल जी, अपने इन नादान दोस्तों की बातों को बहुत दिल पर लेने की ज़रूरत नहीं है। एक पुरानी कहावत है कि एक हाथी कई कुत्तों को काम दे देता है। उसी तर्ज़ पर निश्चिंत हो जाइए और जानिए कि कोई पूंजीपति, कोई प्रबंधन आपको कुछ भी कहलवा-सुनवा सकता है क्योंकि उसके हाथ में बाज़ार है, बाज़ार की ताकत है। सो रास्ता बदल लेने में ही भलाई है क्योंकि अब कोई किसी को बचाने वाला नहीं है, बिखरने से बचा कर सहेजने-संवारने वाला नहीं है। अभी आप माता-पिता की छाया में हैं, समय है। समय रहते नींद टूट जाए तो अच्छा है। हम जैसे लोगों की नींद टूटी तो बहुत देर हो चुकी थी। प्रोड्क्ट की आंधी में बह-बिला गए। बाकी जो बचा भडुए-दलाल गड़प गए। आप बच सकें तो बचिए।
लखनऊ में एक पत्रकार थे, जयप्रकाश शाही। जीनियस थे। पत्रकारिता में उनके साथ ही हम भी बडे़ हुए थे। एक समय लखनऊ की रिपोर्टिंग उनके बिना अधूरी कही जाती थी। पर सिस्टम ने बाद में उन्हें भी बिगाड़ दिया। क्या से क्या बना दिया। एक अखबार में वह ब्यूरो चीफ़ थे। कहते हुए तकलीफ़ होती है कि बाद में उसी अखबार में वह लखनऊ में भी नहीं, एक ज़िले में स्ट्रिंगर बनने को भी अभिशप्त हुए और बाद के दिनों में अपनी ही टीम के जूनियरों का मातहत होने को भी वह मज़बूर किए गए। अब वह नहीं हैं इस दुनिया में पर तब वह टूट कर कहते थे कि यार अगर कथकली या भरतनाट्यम भी किए होते तो दस-बीस साल में देश में नाम कमा लिए होते। हमारे सामने ही एसडीएम देखते देखते कलक्टर हो गया, चीफ़ सेक्रेट्री भी हो गया, सीओ आज एसपी बन गया, डीआजीआई आज डीजीपी हो गया, फलनवा गिरहकटी करते-करते मिनिस्टर बन गया और हम देखिए ब्यूरो चीफ़ से स्ट्रिंगर हो गए। और बताऊं पायल जी कि आज आलोक मेहता, मधुसुदन आनंद, रामकृपाल सिंह, कमर वहीद नकवी वगैरह को ज़्यादातर लोग जानते हैं। पर उन्हीं के बैच के लोग और उनसे सीनियर लोग और भी हैं। उसी टाइम्स आफ़ इंडिया ट्रेनी स्कीम के जो आज भी मामूली वेतन पर काम कर रहे हैं।
क्यों?
क्योंकि वह बाज़ार को साधने में पारंगत नहीं हुए। एथिक्स और अपने काम के बल पर वह आगे बढ़ना चाहते थे। कुछ दिन बढे़ भी। पर कहा न कि प्रोडक्ट की आंधी आ गई। भडुओं का बुलडोज़र आ गया। वगैरह-वगैरह। तो वह लोग इसके मलबे में दब गए। बताना ज़रा क्या ज़्यादा तकलीफ़देह है कि लखनऊ में एक अखबार ऐसा भी है जहां लोग बीस साल पहले पांच सात हज़ार रुपए की नौकरी करते थे बडे़ ठाट से। और आज भी, बीस साल बाद भी वहीं नौकरी कर रहे हैं पांच हज़ार रुपए की, बहुत डर-डर कर, बंधुओं जैसी कि कहीं कल को निकाल न दिए जाएं?
और मैं जानता हूं कि देश में ऐसे और भी बहुतेरे अखबार हैं। हमारी दिल्ली में भी। अब इसके बाद भी कुछ कहना बाकी रह गया हो तो बताइएगा, और भी कह दूंगा। पर कहानी खत्म नहीं होगी।
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