Friday 21 February 2014

अपमान समारोह, समीक्षा के अपमान की नदी और लफ़्फ़ाज़ों की साहित्यिक संसद

कुछ फ़ेसबुकिया नोट्स

लेखक कई तरह के होते हैं। पर मैं यहां सिर्फ़ तीन तरह के लेखकों से आप को परिचित करवा रहा हूं। एक हैं जो कुछ सार्थक लिखते हैं। पर यह सफलता के बाज़ार से गुम हैं। लेकिन पाठकों में लोकप्रिय हैं। एक हैं जो लफ़्फ़ाज़ी झोंकते हुए लिखते हैं। पाठकों आदि की बात करने वालों को यह प्रतिक्रियावादी कह कर खारिज कर देते हैं। एक और हैं जो लफ़्फ़ाज़ी ही हांकते हैं, लफ़्फ़ाज़ी ही खाते हैं, लफ़्फ़ाज़ी ही पीते हैं। सब कुछ मौखिक। सिर्फ़ मौखिक। विषय कोई भी हो, वह एक ही विषय पर बोलते हैं, हर जगह, हर स्थिति में एक ही बात। और लेखन के बाज़ार में इन्हीं की चांदी है। वाम, जनवाद, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्षता, दलित, मुस्लिम, फ़ेस्टिवल, कार्निवाल, फ़ोटो, अखबार, बयान आदि-आदि सब इन के ही हैं। सारे विमर्श और वगैरह-वगैरह इन के ही हैं। आप भी इन को सैल्यूट कीजिए। आखिर प्रबंधन का ज़माना है। वह सब कुछ प्रबंध करने में माहिर हैं। सो प्रबंध कर लेते हैं। ऐसे तीनों तरह के लेखक हर शहर, हर प्रांत और हर भाषा में उपस्थित हैं। सो मित्रो, इस टिप्पणी को कृपया एक व्यक्ति, किसी एक शहर से, किसी एक प्रांत, किसी एक भाषा से जोड़ कर ही न पढ़ें-देखें। सो भाषण बिहारियों की जय हो ! हां, देखिए कि यहीं जाने क्यों धूमिल की एक कविता याद आ गई है :

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।


तो क्या अब साहित्य का मंजर भी संसद के मंजर में तब्दील हो गया है? यहां भी कोई रोटी से खेलता रहेगा और लोग चुप रहेंगे?


लेखक का अपमान समारोह
किसी पुस्तक का लोकार्पण समारोह अब चाहे किसी मेले में हो या कहीं अलग से हो लेखक के महत्वोन्माद की बीमारी में तब्दील है। ठीक वैसे ही जैसे किसी किताब का छपना सरकारी खरीद की बगलगीर है कि जागीर है कि कुछ और चाहे जो कह लीजिए। किताब तो कोई पढ़ता ही नहीं। सब लोग पुस्तक लोकार्पण समारोह में ऐसे आते हैं गोया बाराती हों। और बिचारा लेखक किसी लड़की के पिता की तरह घिघियाता, मुसकुराता सब बारातियों की मिजाजपुर्सी में लगा रहता है। बस किसी तरह बड़े-बडे़ नाम आ जाएं, फ़ोटोग्राफ़ी हो जाए, यही धुन सब को लगी रहती है। पुस्तक लोकार्पण समारोह जैसे लेखक का अपमान समारोह बन जाता है। वैसे भी लेखक-प्रकाशक और पाठक का रिश्ता अब धत्त तेरे की हो गया है। हिंदी जगत का वर्तमान परिदृश्य बतर्ज मृणाल पांडेय, ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ पर टिक गया है।

समीक्षा भी अब अपमान की नदी
किसी पुस्तक का लोकार्पण समारोह तो उस किताब के लेखक का अपमान समारोह हो ही गया है, किसी किताब की कहीं समीक्षा छपवाना भी किसी स्वाभिमानी लेखक के लिए अपमान की नदी से गुज़रना ही हो गया है अब। क्यों कि किताब की समीक्षा छापने के लिए तथा्कथित संपादकों और आलोचकों ने या तो प्रकाशकों की गुलामी स्वीकार कर ली है या गिरोह बना लिया है। और जो इस से इतर कोई लेखक इस बारे में गलती से भी उन से बात कर ले तो संपादकों या उन के सहयोगियों का जो सामंती चेहरा सामने आता है वह किसी भी खुद्दार आदमी के लिए डूब मरने के लिए काफी होता है। लेकिन यह लेखक नाम के ज़्यादातर प्राणी अपमान की इस बैतरणी को पार करना ही अपना लक्ष्य मान बैठते हैं। और यह बात हर छोटे-बड़े लेखक और संपादक के साथ अनिवार्य तत्व बन चुका है। हिंदी जगत का लेखन, प्रकाशन, लोकार्पण और समीक्षा के हालात इसी अपमानजनक दौर के साक्षी हैं।


  

8 comments:

  1. सुंदर प्रस्तुति

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  2. इस गंभीर स्थिति पर बहुत अच्छा लिखा है l

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  3. सही कहा है भैया आपने।

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  4. अचानक इतने निराश क्यों ?

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  5. अचानक इतने निराश क्यों ?

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  6. एकाएक इतने निराश क्यों ?

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