Monday 17 February 2014

राजकपूर की गंगा कितनी मैली?

इधर कुछ अख़बारों में ‘राम तेरी गंगा मैली’ पर राजकपूर के लिए ढेरों चिट्ठियां छप रही हैं। इन चिट्ठियों में तल्खी इस बात पर झाड़ी गई है कि राजकपूर ने पहाड़ संस्कृति के साथ खेल किया है और कि नारी देह का अपमान तो वह अरसे से करते ही आ रहे हैं। लब्बोलुवाब यह कि राजकूपर की ऐसी की तैसी। बस, इन की तरहें अलग-अलग हैं।

एक दूसरी तरह की चिट्टी भी छपी है। इस चिट्ठी में कहा गया है कि हो न हो ‘राम तेरी गंगा मैली’ में राजनीतिज्ञों के चरित्र को चाक किया गया है, यह चिट्ठियां उन के ही इशारे पर हों। फिर भी बहस का यह दूसरा मुद्दा है। पहला मुद्दा यह है कि ‘राम तेरी गंगा मैली’ बनाम राजकपूर तेरी गंगा मैली में क्या सचमुच नारी देह का अपमान कहिए, अश्लीलता कहिए उभर सकी है या उभारी गई है? फ़िल्म देख कर ऐसा कहीं नहीं दीखता। अपनी समझ से अश्लीलता वहीं उभरती है जिन दृश्यों में आप उत्तेजित होते हों। मात्र देहयष्टि देख और दिखा देने भर से अश्लीलता नहीं झांकती। रही बात उरोज-दर्शन की तो मंदाकिनी से ज़्यादा सागर में डिंपल के देख आइए और कहीं ज़्यादा देर तक लेकिन सागर और सिप्पी के लिए इस बाबत किसी की चिट्ठी किसी अख़बार में नहीं देखने को मिली। जब कि सागर में अश्लीलता एक मायने में भरपूर नहीं तो कम भी नहीं है।
याद आता है पिछले दिनों ‘कमला’ पर भी चिट्ठियां तो नहीं, लेकिन कुछ टिप्पणियां इसी अर्थ में छपी थीं। जब तब अपनी दिल्ली में खा़स कर कुछ मलयालम फ़िल्मों के बाबत तो कुछ महिला संगठन प्रदर्शन वगैरह पर भी आमादा हुए दीखते हैं। लेकिन मुहिम के तौर पर नहीं, फैशन में। यह फैशन ही है कि फ़िल्मों को अश्लीलता के प्लेटफार्म पर धमाचौकड़ी करवा कर बनिए तिजोरी भरने में कामयाब हुए दीखते हैं। मैं ने आज तक यह नहीं पढ़ा या सुना कि किसी महिला संगठन ने फ़िल्मी अंग प्रदर्शन के विरोध में किसी अभिनेत्री के घर धरना दिया हो। मैं ने एक बार स्मिता पाटिल से बातचीत में ‘चक्र’ में किए गए उन के अभिनय की तारीफ़ के बाद पूछा था कि ‘चक्र’ में आप के नहाने के दृश्य को पोस्टरों पर इस तेज़ी से क्यों उभारा गया था कि फ़िल्म के बारे में पोस्टर का कंसेप्ट ही भिन्न हो गया था। स्मिता जी अपने को जागरूक औरत मानती हैं और अपनी सीमाओं में एक हद तक हैं भी का जवाब सुन कर सवाल के बेमकसद होने का माजरा समझ में आया।
स्मिता बोलीं, ‘चक्र’ में नहाने का जो दृश्य मैं ने दिया तो यह सोच कर कि उस भूमिका की वह ज़रूरत थी। एक फुटपाथी औरत की ज़िंदगी का हिस्सा था वह सड़क पर उस तरह ‘नहाना’ लेकिन आम दर्शकों ने जब उस फ़िल्म में उस दृश्य को देखा तो वह एक फुटपाथी औरत को नहाते हुए नहीं, स्मिता पाटिल जो एक अभिनेत्री है उस के नहाने को देखता और देखने जाता रहा। नहीं उसी दर्शक के आस-पास जाने कितनी अम्माएं रोज़ फुटपाथ पर उस से भी कहीं ज़्यादा खुलेपन और मजबूरी के साथ नहाती हैं। लोगों की भीड़ वहां क्यों नहीं इकट्ठी होती? रही बात पोस्टर पर भी उस दृश्य को विस्तार देने की तो यह फ़िल्मी धंधा पैसा बटोरने के लिए है। पोस्टर या और जो भी प्रचार सामग्री बनती है वितरकों की मर्जी पर, उन की मर्जी थी पोस्टर पर वही दृश्य हो। हमने हल्का सा प्रोटेस्ट भी इस इशू को ले कर किया लेकिन व्यावहारिकता के आगे मेरा विरोध सेकेंडों में छू हो गया। अलग बात है इस फ़िल्म ने पुरस्कार तो बटोर लिए पर चल फिर भी नहीं पाई। सतही टोटके भी बेकार गए तो इस लिए कि फ़िल्म समय से बहुत आगे थी।’ कहना था स्मिता पाटिल का। यों स्मिता ने और बहुतेरी फ़िल्मों में गरमागरम दृश्य दिए हैं। ‘आक्रोश’ हो या ‘नमक हलाल’। स्मिता का मानना है कि फ़िल्म की ज़रूरत को देखिए कहीं अश्लीलता नहीं है। क्यों कि इन दृश्यों को देखिए तो उत्तेजना नहीं उत्सुकता बनती है और मेरी कुछ फ़िल्मों में प्रसंगवश यह उत्सुकता खीझ में तब्दील होती जाती है।

राजकपूर तो ‘राम तेरी गंगा मैली’ का मैनिफेस्टो ही नदी और नारी पर अत्याचार का बताते हैं। फिर अगर वह गंगा में शैंपेन और मंदाकिनी के उरोजों का दो दृश्यों में दर्शन करवा देते हैं तो यह भी बतर्ज स्मिता फिल्म की ज़रूरत ही है! लोग बेवजह तिलमिला रहे हैं। अलग बात है राजकपूर ने ‘राम तेरी गंगा मैली’ बना कर ढेरों गालियां किसी बहाने से ही सही ओढ़ी हैं और अपनी बनाई गई फ़िल्मों में सब से गई गुज़री फ़िल्म भी इसे बना दिया है। यह फ़िल्म देख कर लगता ही नहीं कि इस फ़िल्म पर भी वही हाथ है जो ‘जागते रहो’, ‘मेरा नाम जोकर’ और ‘प्रेम रोग’ जैसी फ़िल्मों पर लगा रहा है। ‘राम तेरी गंगा मैली’ राजकपूर की फ़िल्मों में सब से सतही साबित हुई है तो इस का एक कारण यह भी समझ में आता है कि ख्वाजा़ अहमद अब्बास और शैलेंद्र जैसे लोगों का हाथ और साथ राज साब की इस फ़िल्म में नसीब नहीं हुआ।
बाक्स आफिस पर हिट होने, तकनीकी पक्ष के पुष्ट होने और अभिनय पक्ष भी बीस होने के बावजूद इस फ़िल्म का सब से बड़ा गैप है इस की फार्मूलेबाज़ी और किसी बेहतर बामकसद सोच का अभाव! जो कि राजकपूर की फ़िल्मों में अपनी रूमानियत के साथ सही, एक अनिवार्य अंग रहा है, इस फ़िल्म से सफाचट है।
बर्टेंड रसल लिखते हैं कि जब मैं छोटा था, विक्टोरियन ज़माना था। स्त्रियों के पैर भी दिखाई नहीं पड़ते थे। वे कपड़ा पहनती थीं जो ज़मीन पर घिसटता था और पैर नहीं दिखाई पड़ते थे। अगर किसी स्त्री का अंगूठा दीख जाता था तो आदमी आतुर हो कर अंगूठा देखने लगता था और काम वासना जग जाती थी। रसल लिखते हैं कि जब स्त्रियां करीब-करीब आधी नंगी घूम रही हैं और उन के पैर पूरी तरह दिखाई पड़ते हैं, लेकिन कोई असर नहीं होता है। ज़रा ध्यान दीजिए और याद कीजिए अपनी पुरानी हिंदी फ़िल्मों को जिन में मीना कुमारी, नरगिस, बैजयंती माला, मधुबाला का दौर झांकता है। और देखिए कि ब्लैक एंड व्हाइट के बावजूद देह पर कपड़े रख कर वह ज़्यादा ‘अपील’ करती थीं या देह से कपड़े इतर रख कैमरे के आगे झूमने वाली अपनी श्रीदेवी, रति, रंजीता, प्रेमा, ज़्यादा अपील करने में कामयाब हैं? ब्लू फ़िल्में देखने वाले बेहतर जानते हैं (किशोर मानसिकता और किशोर वय को अपवाद मान लें) कि चार से दस फ़िल्में देखने के बाद इच्छा भर जाती है इस तरह की फ़िल्में देखने की।
शायद यही कारण है कि दर्जनों फ़िल्मों में मैक्सी, साड़ी पहन कर भी रेखा ने एक से एक उत्तेजक दृश्य दिए हैं और लोगों को पागल बनाया है जब कि वही रेखा उत्सव में लगभग निर्वसन होने के बावजूद उस किस्म की उत्तेजना दर्शकों में नहीं भर पाईं क्यों कि कोशिश नहीं है उत्तेजित करने की उत्सव में। न ज़रूरत है। जब कि सिर से माथे तक ढकी रहने के बावजूद यह अन्य फिल्मों में अश्लीलता की हद बहुत दूर तक फांदती गई हैं।
सो सवाल अगर उठाया जाए तो फ़िल्मों में देह प्रदर्शन पर नहीं, देह के इस्तेमाल पर। आखिर हमें कारण खुद भी तलाशने चाहिए कि कल्पना अय्यर, प्रेमा नारायण और अन्य फिल्मी कैबरे नर्तकियों के नाम पर दर्शकों का हुजूम टिकट खिड़की पर नहीं जा पाता। जब कि इन की फ़िल्म में ज़रूरत नहीं होती। ज़रूरत होती है सिर्फ़ इन के कटि-प्रदेश की। लेकिन दर्शकों का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। मैं आज तक यह भी नहीं समझ पाया कि ‘बाबी’ में ऋषि के साथ डिंपल के मिलन के दृश्यों पर लोग क्यों लट्टू बने रहे? जब कि उन में कुछ नहीं था। अगर ठीक से ध्यान दीजिए तो आप पाएंगे कि ये अपनी शबाना, स्मिता और दीप्ति कुछेक दृश्यों में मात्र अपनी उपस्थिति भर से उत्तेजना से भर देती हैं बिना किसी आंगिक चेष्टा के। लेकिन उन का संपूर्ण अभिनय उत्तेजित करने वाला लगता है। निंदा की अंगुली अगर भाई लोगों को टिकानी ही है तो यहां क्यों नहीं टिकाते?
सवाल फिर भी छूटा रह जाता है कि फ़िल्मों से उत्तेजना बनाम अश्लीलता को क्या सफाचट हो लेना या कर देना कहां तक गौरतलब है? क्या अपने आसपास इन चीजों की उपस्थिति सहज ही नहीं है? तो फिर फ़िल्मों में इन चीजों की मौजूदगी आप को क्यों काट खाने दौड़ती है? बात राज कपूर की गंगा की हो रही थी। राज की गंगा पर आरोप यह भी है कि वह पहाड़ की संस्कृति के साथ खेल करती है। आरोप दिलचस्प है।
आलम आरा से मधुमती, आवारा, चोरी, उपकार, बलिदान, आदमी और इंसान, कश्मीर की कली से लगायत मौसम, दुश्मन, गोरा और काला, बॉबी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, लव स्टोरी और आदि-आदि फ़िल्मों में किसी की गति देख लीजिए। पृष्ठभूमि शहर की हो या गांव की, अमीर घर की हो या गरीब घर की। सब के साथ एक ट्रीटमेंट। कोई आरोप छोड़िए ज़रूरत और मनोरंजन की ढालों से छिजता छिलता आप के हवाले। कहानी फूलवती की पर फूलन ने मुकदमा ठोंका है। और एक दैनिक की स्तंभकार कहती हैं कि यह निर्देशक की स्टंटबाज़ी है। हम स्तंभकार की बात पर भरोसा नहीं कर पा रहे। फूलन ने मुकदमा मान हानि का ठोंका है और कहा है कि ट्रीटमेंट ठीक नहीं है। मेरा ख्याल है कि ट्रीटमेंट के सवाल पर अगर मुकदमा ठोंका जाए तो औसतन एक फ़िल्म पर 50 मुकदमे ठोंके जा सकते हैं और ऐसा अब तक बनी हिंदी में, सभी फ़िल्मों पर कमोवेश हो सकता है। यहां तक कि हाल में बनी पार, दामुल और अर्धसत्य जैसी फ़िल्में भी इस से बुरी नहीं हो सकतीं। जब कि इन की प्रामाणिकता के बड़े हौवे हैं।
सो राज साहब ने एक पहाड़िन नायिका को झरने पर ‘उस तरह’ नहला दिया और बाक्स आफिस का रिकार्ड जोड़ रहे हैं। और लोग हाय-तौबा कर रहे हैं। पहाड़ की संस्कृति का अपमान! घोर अपमान! लोगों को कौन बताए कि पहाड़ पर औरतें निर्वस्त्र भी नहाती हैं और अधिकांश मजबूरी में नहाती हैं न कि किसी निर्देशक के निर्देश पर कैमरे की आंख में। गनीमत कहिए कि राजकपूर और उन की टीम में फिल्म में भूमिका की ज़रूरत के नाम पर यह नहीं किया।
[ 1985 में लिखा गया लेख]

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