Sunday 16 February 2014

पाथेर पांचाली के 50 बरस की प्रासंगिकता

विश्व सिनेमा के फलक पर भारतीय सिनेमा को 
प्रतिष्ठित करने वाले सत्यजीत रे को शत्-शत् प्रणाम!



न सिर्फ़ भारतीय सिनेमा के लिए बल्कि विश्व सिनेमा के लिए पाथेर पांचाली के बहाने एक नया पथ खोजने वाले सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली ने अपने 50 बरस पूरे कर दुनिया भर को मथ दिया है, यह मामूली बात नहीं है। लोगों को 50 वर्ष, 75 वर्ष, 100 वर्ष मनाते तो हमने कई बार पाया है लेकिन कोई रचना, कोई कृति, कोई कला, कोई फ़िल्म भी अपनी पचासवीं सालगिरह बनाए और इस धूम-धाम से मनाए, निश्चय ही यह हम सब के लिए गौरव का सबब है। पाथेर पांचाली न सिर्फ़ सत्यजीत रे की लैंडमार्क फ़िल्म है, हमारे जीवन का एक शाश्वत सत्य भी है। आज़ादी के बाद पंडित नेहरू चाहते थे कि विश्व स्तर पर भारतीय कलाएं और फ़िल्में भी धाक जमाएं, कुरासोवा की यथार्थवादी फ़िल्में तब अपनी धाक जमा रही थीं। इसी बीच 1955 में जब पाथेर पांचाली आई तो भारत में नए सिनेमा आंदोलन का प्रस्थान बिंदु बन गई। हालां कि ऋत्विक घटक की फ़िल्म नागरिक जो कि यथार्थवादी फ़िल्म थी 1953 में ही बन गई थी पर तब रिलीज नहीं हो पाई और 1955 में पाथेर पांचाली रिलीज हो गई। सुनते हैं कि तब पाथेर पांचाली भारत में ठीक से रिलीज भी नहीं हो पाई थी, भारत में इसे ठीक से स्वीकार भी नहीं किया गया था। लेकिन जब विदेशों में पाथेर पांचाली का डंका चहुं ओर बजा तो भारत में भी इस की नोटिस ली गई। स्वर हालां कि फिर भी आलोचनात्मक ही था। नरगिस जैसी समर्थ अभिनेत्री ने भी इस फ़िल्म का विरोध करते हुए राज्य सभा में भाषण दिया और कहा कि सत्यजीत रे दुनिया में भारत की ग़रीबी को बेच रहे हैं। पता नहीं क्यों नरगिस पाथेर पांचाली में ग़रीबी की संवेदनात्मक बुनावट को, उस की त्रासदी को, और उस में गुथे हुए वृद्ध जीवन की उदासी को नहीं पढ़ पाईं।

पाथेर पांचाली दरअसल मानवीय संवेदना को ध्यान में रख कर बनाई गई अविस्मरणीय फ़िल्म है। पाथेर पांचाली भारतीय फ़िल्मों को एक नया मुहावरा भी देती है। भारतीय फ़िल्मों के इतिहास को अगर देखा जाए तो पहला आधार दादा साहेब फालके देते हैं, उस आधार को और मज़बूत करते हैं व्ही. शांताराम। विमल राय उसे गति देते हैं और फिर सत्यजीत रे उसे एक ज़मीन देते हैं। यथार्थ की ज़मीन। न सिर्फ़ ज़मीन देते हैं नए सिनेमा आंदोलन के वह प्रणेता भी मान लिए जाते हैं। बहुत कम फ़िल्म निर्देशक हुए हैं जिन की पहली फ़िल्म दुनिया भर में डंका बजा जाए। लेकिन सत्यजीत रे ऐसे ही एक निर्देशक हैं जिन की पहली फ़िल्म पाथेर पांचाली दुनिया भर में न सिर्फ़ डंका बजा गई, उस का डंका आज भी बज रहा है। भारतीय सिनेमा का आज भी मुहावरा है पाथेर पांचाली। मृणाल सेन, श्याम बेनेगल सरीखे फ़िल्मकार इस मुहावरे को आज भी पूरी ध्वनि, पूरी तन्मयता और पूरी ईमानदारी से निबाह रहे हैं।
गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के शांति निकेतन में पढ़ते हुए सत्यजीत रे ने राम किंकर वैद्य और नंदलाल बसु जैसे गुरुओं से चित्रकला की जो शिक्षा ली थी वह जीवन पर्यन्त उन के काम आई। सत्यजीत रे दरअसल अपनी फ़िल्मों में जीवन का एक चित्र ही रखते थे और उस के अनगिनत अनगढ़ चित्र बटोर कर उसे एक शऊर दे कर फ़िल्म का रूप दे देते थे। यही उन की ख़ासियत थी और उपलब्धि भी। जो कि दूसरे फ़िल्मकार नहीं कर पाते थे।


पाथेर पांचाली आखिर है क्या?
जो बंगला भाषी नहीं हैं वह शायद इस मर्म को नहीं जानते। पाथेर तो स्पष्ट ही है कि पथ यानी राह। लेकिन पांचाली? हिंदी समाज में पांचाली की स्वीकृति द्रौपदी के रूप में है लेकिन सत्यजीत रे के यहां यह पांचाली द्रौपदी नहीं है। दुर्गा पूजा के ठीक बाद पड़ने वाले बृहस्पतिवार को बंगाली समाज में लक्ष्मी पूजा की परंपरा है। लक्ष्मी पूजा के इस पाठ को ही पांचाली कहा जाता है। पाथेर पांचाली में नायक की मां बहुत ही वृद्ध हो गई है और अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में है। वह अपने बेटे हरि को संबोधित कर एक गीत गाते हुए कहती है कि हे हरि दिन बीत गया, संध्या आ गई अब तो हम को इस रास्ते से पार करो। दिन भी गया, शाम भी गई लेकिन सड़क पूरी दिख रही है। जीवन में मृत्यु की प्रतीक्षा कितने कष्ट की यात्रा होती है यह एक वृद्ध का दिल ही समझता है जो मृत्यु की प्रतीक्षा में दिन-रात एक किए रहता है। और यह यात्रा ख़त्म नहीं होती। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी, दूसरी से तीसरी पीढ़ी और आगे भी पीढ़ी दर पीढ़ी यह यात्रा चलती रहती है। अपराजित रहती है यह यात्रा। तो भारतीय संवेदना की इस मनोभूमि पर गढ़ी गई पाथेर पांचाली आज भी हमें प्रांसगिक लगती है तो यह सत्यजीत रे की निर्देशकीय क्षमता और विभूति बाबू की कथा का प्रताप है कुछ और नहीं। पाथेर पांचाली और इस के बाद की फ़िल्मों के बहाने सत्यजीत रे ने दुनिया भर में भारतीय सिनेमा का मस्तक न सिर्फ़ ऊंचा किया, बल्कि उसे एक नई दिशा मिली। अपूर संसार, चारू लता, गोपी गायन-बाघा गायन, सीमाबद्ध, आगंतुक, प्रतिद्वंद्वी, सोनार किला, जन अरण्यम्, शतरंज के खिलाड़ी, सदगति, जय बाबा फेलूनाथ, अपराजिता, तीन कन्या, देवी, महानगर, चिड़िया खाना, गणशत्रु, शाखा-प्रशाखा तथा आगंतुक जैसी उन की ढेरों फ़िल्में आज भी भारतीय जनमानस के मानस पटल पर छाई हुई हैं और विश्व सिनेमा में भारत का मस्तक गर्व से ऊंचा उठाए हुए हैं। दरअसल सत्यजीत रे जीते जी भी एक किंवदंती थे, आज भी किंवदंती हैं। और यह क्या आसान है कि भारत में पहली बार किसी एक व्यक्ति पर इनसाइक्लोपीडिया अगर तैयार किया जा रहा है, तो वह व्यक्ति है सत्यजीत रे!

[पाथेर पांचाली के पचास बरस पूरे होने पर लिखा गया लेख]

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