मणिरत्नम की ‘बांबे’ दरअसल प्यार और दंगे का कंट्रास्ट भरा कोलाज है। सेल्यूलाइड के परदे पर कैमरे से रची एक कविता है। प्यार की पुलक और अकुलाहट में पगी कविता। पर दंगों की नस ने बांबे में बसे प्यार को, प्यार की पुकार को खा लिया है। चहुं ओर बांबे और उस के दंगों के ब्यौरों की चर्चा है। बवाल है। एक चर्चा और है ‘हिंदू’ लड़के और मुस्लिम लड़की की। उस के बुर्के की। चर्चा अगर नहीं है तो उन दोनों के प्यार की। उन के प्यार के तड़प की। मणिरत्म की निर्देशकीय क्षमता की भी नहीं।
मणिरत्नम ने जब रोज़ा बनाई थी तो उस पर भी बवाल मचा था। पर सिर्फ़ कश्मीर में। रोज़ा आतंकवादियों की नस छूती थी, सो आतंकवादियों ने कश्मीर में रोजा पर ‘पाबंदी’ लगा दी थी। लेकिन कश्मीर में रोज़ा फिर भी घर-घर देखी गई। ‘बांबे’ में मणिरत्नम ने दंगाइयों की नस छू क्या ली है- उस का ब्यौरा भर परोस दिया है- ज़रा ज़रा सा ‘प्रामाणिक’ बनाते हुए। सो दंगाई मानसिकता वालों को ‘बांबे’ चुभ गई है। और दंगे के ब्यौरों को देख कर नए दंगे की शुरुआत हो गई है। इस दंगी दंगा में प्यार की पेंग बिला गई है। तो इस में मणिरत्नम का क्या कसूर?
मणिरत्नम ने तो कैमरे की आंख से प्यार के छोटे-छोटे ब्यौरे परोसे हैं। जैसे कि एक दृश्य हैः मनीषा कोइराला को देखने की चाव में अरविंद स्वामी नदी किनारे अफनाए हुए टहल रहे हैं। मनीषा दिखती है पर साथ ही कैमरा बाढ़ में उफनाई नदी पर पसर जाता है। ज़ाहिर है कि मणिरत्नम नदी में आई बाढ़ नहीं, बल्कि बाढ़ के बहाने मनीषा कोइराला के दिल और देह में आई बाढ़ का रूपक रचते हैं। ऐसे ही ‘कहना है क्या’ गीत में मनीषा कोइराला के रह-रह छुपने और नृत्य के बीच तनाव तथा अरविंद स्वामी द्वारा बड़ी बेकली से उन्हें हेरने में हास्य का मिला-जुला कोलाज रच कर मणिरत्नम एक सिनेमाई सहजता बोते हैं। और बांबे में यह सहजता जाने अनजाने कई दृश्यों में उपस्थित है। ‘कुचि कुचि रकमा’ जैसे काल्पनिक गीत में भी यह सहजता अनायास ही तिरती दिखती है।
मिलने के जब सारे उपाय बेमानी हो जाते हैं तब बुरका ओढ़ कर अरविंद स्वामी उसे नाव में मिलते हैं, दबोचते हैं, तो इस असहज रूप में भी सहजता उपजती है और इस सहजता से भी हंसी फूटती है। लाल बस्ते के फेर में दूसरी लड़की से इश्क का राज खोल बैठना, साइकिल से पीछा करना और अचानक ठिठक कर लड़की का नाम पूछना जैसे दृश्य बहुत आम हैं। और फ़िल्मों के जाने-पहचाने दृश्य हैं। पर ‘बांबे’ में मणिरत्नम इन आम दृश्यों में भी एक लय भरते हैं। ठीक वैसे ही जैसे सुहागरात वाले दृश्य में बाहर नृत्य-गीत है और भीतर मनीषा कोइराला की शोखी बिलकुल खिलंदड़ी करती हुई। कभी उस गीत की लय को एक लय करते हुए, तो कभी संकोच बिसूरते हुए।
दरअसल इस फ़िल्म की जान मणिरत्नम का निर्देशन तो है ही, पर उस से भी कहीं ज़्यादा मनीषा कोइराला का अभिनय है। बांबे में उन के अभिनय के ढेरों शेड हैं। प्यार की अकुलाहट, उस की शोखी, औरत होने की विवशता, सांप्रदायिक तनाव और बच्चों के लिए बिलबिलाती भागती मां का रूप, दंगों की देहरी पर बार-बार होम होते जाने की आह। यह सब कुछ वह ऐसे ‘पन’ से जीती हैं कि उन के अभिनय में जादुई निखार समा जाता है। ‘1942 ए लव स्टोरी’ में उन्हों ने ‘सौदागर’ की उछल-कूद और बचकाने अभिनय को तज अभिनय का एक नया शऊर सीखा था। ‘बांबे’ में उन्हों ने ‘1942 ए लव स्टोरी’ को मीलों पीछे छोड़ अभिनय का एक नया शिखर छू कर कई अभिनेत्रियों को चौंका सा दिया है। ‘बांबे’ के मार्फ़त इस बरस अगर मनीषा कोइराला सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री होने का ढेरों पुरस्कार बटोर ले जाएं तो कोई हैरत किसी को नहीं होगी। ख़ास कर वह दृश्य जब दंगों के बाद उन के माता-पिता बंबई उन की खोज ख़बर लेने आते हैं। दरवाज़ा खोल उन्हें देख ‘अम्मा’ कह कर धप से जो वह वहीं बैठ जाती हैं तो इस एक बैठने में ही वह एक साथ खुशी, उलाहना, बिछोह, दुख जैसी ढेर सारी चीजे़ं एक साथ ही उकेर अभिनय का एक नया एकांत परोस जाती है। यहां वह सचमुच मनीषा कोइराला नहीं, शैला बानो को जीती हैं। हालां कि हैदराबादी हिंदी बोलते समय कभी-कभार वह शबाना आज़मी के अभिनय की गंध देती हैं पर जल्दी ही उसे बिसार भी देती हैं तो यह भला लगता है। ठीक वैसे ही जैसे पूरी फ़िल्म में तो वह बुरका, पल्लू किए फिरती हैं पर कुचि कुचि रकमा गीत में अनायास ही वह अपनी देह की मांसलता भी फुदक-फुदक कर परोस, देह गंध भी दे जाती है।
कोर्ट मैरिज के बाद जब ‘हनीमून’ का समय आता है तो उन के कमरे में मकान मालिक के मेहमान के बच्चे रहने लगते हैं तो उस लुका-छिपी में उपजे ‘प्रेम प्रसंगों’ की बाढ़ भी देखते बनती है। ख़ास कर जब गांव से आई चिट्ठी के नतीजे़ में उपजे तनाव के तार जब बच्चों के मार्फ़त छू जाते हैं तो हास्य भी घुमड़ता है। जब अरविंद स्वामी बच्चों के मार्फ़त पुछवाते हैं कि ‘क्या मज़हब बदल दूं?’ बच्चों के इस ‘रिले डायलाग’ में तनाव टूट जाता है जब एक बच्चा खुसफुसाने के बजाय ज़ोर से चिल्ला पड़ता है, ‘आई लव यू बोलने को बोला।’
दंगा बांबे की हालां कि ख़ासियत नहीं है पर बवाल इसी को ले कर ज़्यादा है। तब जब कि बांबे से ज़्यादा रमेश शर्मा की न्यू डेलही टाइम्स में कहीं ज़्यादा ‘दंगा’ था। हां, दंगे की भयवहता और उस से उपजा नरक बांबे में है। पर भरपूर नहीं। कुछ दृश्यों में तो ‘डक्यूमेंट्री’ की सी गंध मिलती है। हां, पर दंगे के नतीज़े ज़रूर ‘अलग-अलग’ से हैं जिन पर ख़ासी चरचा हो चुकी है। ‘ठाकरे’ और ‘बुखारी’ की ‘छवियों’ से ले कर ‘हिंदू’ ‘मुस्लिम’ एप्रोच तक पर। पर अगर चरचा नहीं हुई है तो दंगों से उपजी त्रासदी और तार-तार होती, धूल में मिल जाती ज़िंदगी की। ज़िंदगी और उस के जद्दोजहद की। ठीक वैसे ही जैसे मणिरत्नम ‘बांबे’ में पुत्र के व्यामोह में बंबई आ गए पिता-पुत्र संवादों और उन की अनुभूतिजन्य संवेदनाओं को गूंथ कर आंखें तो भिगोते हैं, मनीषा कोइराला को धप से दरवाजे़ पर बिठा देते हैं, दंगे में बिला गए बच्चों पर सारी संवेदना, कामना और कसक कई फुटेज में बिछा देते हैं पर इसी दंगे में नायक-नायिका के पिता और मां की मौत के नाम पर आंसू तो दूर, दो भींगे शब्द भी नहीं सुलगा पाते। तो यह खटकता है। ठीक वैसे ही जैसे फ़िल्म के कुछ हिस्सों का ‘राष्ट्रीय एकीकरण’ में समा जाना। ठीक वैसे ही जैसे ख़राब डबिंग के चलते कुछ अच्छे संवादों का ‘डूब’ जाना।
मिली ख़बरों के मुताबिक़ ‘बांबे’ ढेरों जगहों पर सुपर-डुपर हो रही है। तो इस का यह मतलब हरगिज नहीं है कि बांबे कोई बड़ी ‘क्लासिक’ फ़िल्म शाहकार नहीं होती। तो बांबे शाहकार नहीं है। हां, बांबे में ताज़गी है, टटकापन और शरूर की एक लय है, इससे इनकार नहीं है। ख़ास कर फ़र्स्ट हाफ़। बात फिर दुहरा दूं कि बांबे दरअसल प्यार और दंगे का एक कंट्रास्ट भरा कोलाज है। जो लोगों को ‘क्लिक’ कर गया है। बस!
[ 1995 में लिखी गई समीक्षा]
मणिरत्नम ने जब रोज़ा बनाई थी तो उस पर भी बवाल मचा था। पर सिर्फ़ कश्मीर में। रोज़ा आतंकवादियों की नस छूती थी, सो आतंकवादियों ने कश्मीर में रोजा पर ‘पाबंदी’ लगा दी थी। लेकिन कश्मीर में रोज़ा फिर भी घर-घर देखी गई। ‘बांबे’ में मणिरत्नम ने दंगाइयों की नस छू क्या ली है- उस का ब्यौरा भर परोस दिया है- ज़रा ज़रा सा ‘प्रामाणिक’ बनाते हुए। सो दंगाई मानसिकता वालों को ‘बांबे’ चुभ गई है। और दंगे के ब्यौरों को देख कर नए दंगे की शुरुआत हो गई है। इस दंगी दंगा में प्यार की पेंग बिला गई है। तो इस में मणिरत्नम का क्या कसूर?
मणिरत्नम ने तो कैमरे की आंख से प्यार के छोटे-छोटे ब्यौरे परोसे हैं। जैसे कि एक दृश्य हैः मनीषा कोइराला को देखने की चाव में अरविंद स्वामी नदी किनारे अफनाए हुए टहल रहे हैं। मनीषा दिखती है पर साथ ही कैमरा बाढ़ में उफनाई नदी पर पसर जाता है। ज़ाहिर है कि मणिरत्नम नदी में आई बाढ़ नहीं, बल्कि बाढ़ के बहाने मनीषा कोइराला के दिल और देह में आई बाढ़ का रूपक रचते हैं। ऐसे ही ‘कहना है क्या’ गीत में मनीषा कोइराला के रह-रह छुपने और नृत्य के बीच तनाव तथा अरविंद स्वामी द्वारा बड़ी बेकली से उन्हें हेरने में हास्य का मिला-जुला कोलाज रच कर मणिरत्नम एक सिनेमाई सहजता बोते हैं। और बांबे में यह सहजता जाने अनजाने कई दृश्यों में उपस्थित है। ‘कुचि कुचि रकमा’ जैसे काल्पनिक गीत में भी यह सहजता अनायास ही तिरती दिखती है।
मिलने के जब सारे उपाय बेमानी हो जाते हैं तब बुरका ओढ़ कर अरविंद स्वामी उसे नाव में मिलते हैं, दबोचते हैं, तो इस असहज रूप में भी सहजता उपजती है और इस सहजता से भी हंसी फूटती है। लाल बस्ते के फेर में दूसरी लड़की से इश्क का राज खोल बैठना, साइकिल से पीछा करना और अचानक ठिठक कर लड़की का नाम पूछना जैसे दृश्य बहुत आम हैं। और फ़िल्मों के जाने-पहचाने दृश्य हैं। पर ‘बांबे’ में मणिरत्नम इन आम दृश्यों में भी एक लय भरते हैं। ठीक वैसे ही जैसे सुहागरात वाले दृश्य में बाहर नृत्य-गीत है और भीतर मनीषा कोइराला की शोखी बिलकुल खिलंदड़ी करती हुई। कभी उस गीत की लय को एक लय करते हुए, तो कभी संकोच बिसूरते हुए।
दरअसल इस फ़िल्म की जान मणिरत्नम का निर्देशन तो है ही, पर उस से भी कहीं ज़्यादा मनीषा कोइराला का अभिनय है। बांबे में उन के अभिनय के ढेरों शेड हैं। प्यार की अकुलाहट, उस की शोखी, औरत होने की विवशता, सांप्रदायिक तनाव और बच्चों के लिए बिलबिलाती भागती मां का रूप, दंगों की देहरी पर बार-बार होम होते जाने की आह। यह सब कुछ वह ऐसे ‘पन’ से जीती हैं कि उन के अभिनय में जादुई निखार समा जाता है। ‘1942 ए लव स्टोरी’ में उन्हों ने ‘सौदागर’ की उछल-कूद और बचकाने अभिनय को तज अभिनय का एक नया शऊर सीखा था। ‘बांबे’ में उन्हों ने ‘1942 ए लव स्टोरी’ को मीलों पीछे छोड़ अभिनय का एक नया शिखर छू कर कई अभिनेत्रियों को चौंका सा दिया है। ‘बांबे’ के मार्फ़त इस बरस अगर मनीषा कोइराला सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री होने का ढेरों पुरस्कार बटोर ले जाएं तो कोई हैरत किसी को नहीं होगी। ख़ास कर वह दृश्य जब दंगों के बाद उन के माता-पिता बंबई उन की खोज ख़बर लेने आते हैं। दरवाज़ा खोल उन्हें देख ‘अम्मा’ कह कर धप से जो वह वहीं बैठ जाती हैं तो इस एक बैठने में ही वह एक साथ खुशी, उलाहना, बिछोह, दुख जैसी ढेर सारी चीजे़ं एक साथ ही उकेर अभिनय का एक नया एकांत परोस जाती है। यहां वह सचमुच मनीषा कोइराला नहीं, शैला बानो को जीती हैं। हालां कि हैदराबादी हिंदी बोलते समय कभी-कभार वह शबाना आज़मी के अभिनय की गंध देती हैं पर जल्दी ही उसे बिसार भी देती हैं तो यह भला लगता है। ठीक वैसे ही जैसे पूरी फ़िल्म में तो वह बुरका, पल्लू किए फिरती हैं पर कुचि कुचि रकमा गीत में अनायास ही वह अपनी देह की मांसलता भी फुदक-फुदक कर परोस, देह गंध भी दे जाती है।
कोर्ट मैरिज के बाद जब ‘हनीमून’ का समय आता है तो उन के कमरे में मकान मालिक के मेहमान के बच्चे रहने लगते हैं तो उस लुका-छिपी में उपजे ‘प्रेम प्रसंगों’ की बाढ़ भी देखते बनती है। ख़ास कर जब गांव से आई चिट्ठी के नतीजे़ में उपजे तनाव के तार जब बच्चों के मार्फ़त छू जाते हैं तो हास्य भी घुमड़ता है। जब अरविंद स्वामी बच्चों के मार्फ़त पुछवाते हैं कि ‘क्या मज़हब बदल दूं?’ बच्चों के इस ‘रिले डायलाग’ में तनाव टूट जाता है जब एक बच्चा खुसफुसाने के बजाय ज़ोर से चिल्ला पड़ता है, ‘आई लव यू बोलने को बोला।’
दंगा बांबे की हालां कि ख़ासियत नहीं है पर बवाल इसी को ले कर ज़्यादा है। तब जब कि बांबे से ज़्यादा रमेश शर्मा की न्यू डेलही टाइम्स में कहीं ज़्यादा ‘दंगा’ था। हां, दंगे की भयवहता और उस से उपजा नरक बांबे में है। पर भरपूर नहीं। कुछ दृश्यों में तो ‘डक्यूमेंट्री’ की सी गंध मिलती है। हां, पर दंगे के नतीज़े ज़रूर ‘अलग-अलग’ से हैं जिन पर ख़ासी चरचा हो चुकी है। ‘ठाकरे’ और ‘बुखारी’ की ‘छवियों’ से ले कर ‘हिंदू’ ‘मुस्लिम’ एप्रोच तक पर। पर अगर चरचा नहीं हुई है तो दंगों से उपजी त्रासदी और तार-तार होती, धूल में मिल जाती ज़िंदगी की। ज़िंदगी और उस के जद्दोजहद की। ठीक वैसे ही जैसे मणिरत्नम ‘बांबे’ में पुत्र के व्यामोह में बंबई आ गए पिता-पुत्र संवादों और उन की अनुभूतिजन्य संवेदनाओं को गूंथ कर आंखें तो भिगोते हैं, मनीषा कोइराला को धप से दरवाजे़ पर बिठा देते हैं, दंगे में बिला गए बच्चों पर सारी संवेदना, कामना और कसक कई फुटेज में बिछा देते हैं पर इसी दंगे में नायक-नायिका के पिता और मां की मौत के नाम पर आंसू तो दूर, दो भींगे शब्द भी नहीं सुलगा पाते। तो यह खटकता है। ठीक वैसे ही जैसे फ़िल्म के कुछ हिस्सों का ‘राष्ट्रीय एकीकरण’ में समा जाना। ठीक वैसे ही जैसे ख़राब डबिंग के चलते कुछ अच्छे संवादों का ‘डूब’ जाना।
मिली ख़बरों के मुताबिक़ ‘बांबे’ ढेरों जगहों पर सुपर-डुपर हो रही है। तो इस का यह मतलब हरगिज नहीं है कि बांबे कोई बड़ी ‘क्लासिक’ फ़िल्म शाहकार नहीं होती। तो बांबे शाहकार नहीं है। हां, बांबे में ताज़गी है, टटकापन और शरूर की एक लय है, इससे इनकार नहीं है। ख़ास कर फ़र्स्ट हाफ़। बात फिर दुहरा दूं कि बांबे दरअसल प्यार और दंगे का एक कंट्रास्ट भरा कोलाज है। जो लोगों को ‘क्लिक’ कर गया है। बस!
[ 1995 में लिखी गई समीक्षा]
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