Saturday, 8 February 2014

जीवन में प्रेम की पवित्रता

दयानंद पांडेय 

मेरी एक दोस्त हैं।  युवा हैं और कविताएं लिखती हैं। एक दिन पूछने लगीं कि लेखक या कवि जो भी लिखते हैं क्या वही लिखते हैं जो उन के साथ घटित होता है? मैं ने उन्हें बताया कि बिलकुल नहीं। वह पूछने लगीं कि तो क्या ज़्यादातर  लिखना कल्पना में ही होता है? मैं ने कहा कि कल्पना भी कुछ होती है पर बिना सच के तो कुछ भी नहीं हो सकता। हां, यह ज़रुर हो सकता है कि वह सच किसी और का भी हो सकता है और लेखक या कवि लिख दे रहा हो। साझा अनुभव भी हो सकता है। लेकिन लेखक या कवि सिर्फ़ वही लिखे जो उस के साथ घट रहा हो, यह तो होता नहीं है। जो ऐसे कोई लिखेगा तो वह कितने दिन लिखेगा? और कितना लिखेगा। कल्पना में भी यथार्थ का पुट होता ही है। दूसरों का भी यथार्थ जुड़ता ही है। वह कहने लगीं कि नाम नहीं बताऊंगी पर एक  हैं जिन्हों ने आज कहा कि तुम सीधी-साधी लड़की हो इस लिए तुम्हें प्रेम कविताएं नहीं लिखनी चाहिए। और अगर लिखो भी तो उसे फ़ेसबुक पर मत लगाओ। इस से तुम्हें लोग गलत समझेंगे। तब से मन परेशान है। मैं हंसा यह सुन कर तो वह पूछने लगीं कि कहीं मैं गलत तो नहीं हूं? कोई कुछ कह देता है तो सोचना पड़ता है। कि कहीं मुझ से गलती तो नहीं हो रही?

' कौन हैं यह?' मैं ने पूछा।

' हैं एक महोदय ! मैं उन का बहुत लिहाज़ करती हूं।'

'उन् को और उन की बात को भूल जाइए। और मन करे तो उन्हें बता दीजिए कि अपने चश्मे का नंबर ठीक कर लें और कि अपने सोचने का नज़रिया बदलें। लिहाज़ और अदब से ही सही कहिए उन से। लेकिन कहिए ज़रुर। मैं ने उन्हें बताया कि लिखना-पढ़ना, खाना-पीना,पहनना-ओढ़ना अपने मन का ही ठीक होता है।'  मैं ने उन से कहा कि, ' प्रेम बड़ी पवित्र चीज़ होती है, उस को लिखना भी उतना ही पवित्र। तो किसी के कहने-सुनने की परवाह मत कीजिए और आप प्रेम कीजिए या कि प्रेम कविताएं लिखिए, यह आप की अपनी मर्जी है। कोई गलत नहीं समझेगा। आप बेधड़क लिखिए।' मैं ने उन्हें बताया कि,  'ममता कालिया की एक बहुत पुरानी और चर्चित कविता है,  'प्यार शब्द घिसटते-घिसटते अब चपटा हो गया है/ अब हमें सहवास चाहिए।' तो क्या यह लिख कर ममता कालिया बदनाम हो गईं? कभी अमृता प्रीतम को पढ़िए। प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा आदि बहुत सारी लेखिकाएं है जो प्रेम पर लिखती रही हैं। तो क्या यह सब लोग बदनाम हो गईं? महादेवी वर्मा हैं। प्रेम पर कई कविताएं हैं उन की तो क्या वह बदनाम हो गईं? मैं ने अपनी उस दोस्त को बताया कि फिर मैं तो आप को बहादुर समझता हूं। कहां दकियानूसी बातों के चक्कर में फंस गईं  हैं आप? मन की गांठ खोलिए और उड़ जाइए प्रेम में और प्रेम की कविताओं में। क्यों कि कविता लिखने और पढ़ने का सुख सब के जीवन में नहीं होता।'

सुन कर वह मेरी दोस्त खुश हो गईं।

होता ही ऐसा ही।

क्यों कि अकथ कहानी प्रेम की। तो कबीर यह भी कह गए हैं कि ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ! कबीर के जीवन में दरअसल प्रेम बहुत था। जिस को अद्वितीय प्रेम कह सकते हैं। उन की जिंदगी का ही एक वाकया है। कबीर का विवाह हुआ। पहली रात जब कबीर मिले पत्नी से तो पूछा कि क्या तुम किसी से प्रेम करती हो? पत्नी भी उन की ही तरह सहज और सरल थीं। दिल की साफ। सो बता दिया कि हां। कबीर ने पूछा कि कौन है वह। तो बताया पत्नी ने कि मायके में पड़ोस का एक लड़का है। कबीर बोले फिर चलो तुरंत तुम्हें मैं उस के पास ले चलता हूं और उसे सौंप देता हूं। पत्नी बोलीं, तुम्हारी मां नाराज हो जाएंगी। तो कबीर बोले, नहीं होंगी। और जो होंगी भी तो मैं उन्हें समझा लूंगा। पत्नी बोलीं, लेकिन बाहर तो बहुत बारिश हो रही है। भींज जाएंगे। कबीर ने कहा होने दो बारिश। भींज लेंगे। पत्नी बोलीं, बारिश बंद हो जाने दो, सुबह चले चलेंगे। कबीर बोले नहीं फिर तो लोग कहेंगे कि रात बिता कर आई है। सो अभी चलो ! पत्नी बोलीं, और अगर उस लड़के ने नहीं स्वीकार किया मुझे तो? कबीर बोले तो क्या हुआ, मैं तो हूं न ! तुम्हें वापस लौटा लाऊंगा। पत्नी बोलीं, अरे, इतना परेम तो वह लड़का भी मुझे नहीं करता। और कहा कि मुझे कहीं नहीं जाना, तुम्हारे साथ ही रहना है। कबीर और उन की पत्नी जैसा यह निश्छल प्रेम अब बिसरता जा रहा है।

यह अकथ कहानी अब विलुप्त होती दिखती है। आई लव यू का उद्वेग अब प्यार का नित नया व्याकरण, नित नया बिरवा रचता मिलता है। प्यार बिखरता जाता है। प्यार की यह नदी अब उस निश्छल वेग को अपने आगोश में कम ही लेती है। क्यों कि प्यार भी अब शर्तों और सुविधाओं पर निसार होने लगा है। गणित उस का गड़बड़ा गया है। प्यार की केमेस्ट्री में देह की फिजिक्स अब हिलोरें मारती है और उस पर हावी हो जाती है।

लेकिन बावजूद इस सब के प्यार का प्याला पीने वाले फिर भी कम नहीं हैं, असंख्य हैं, सर्वदा रहेंगे। क्यों  कि प्यार तो अमिट है। प्यार की इन्हीं अमिट भावनाओं को  बांचते हुए ही हमारा जीवन सार्थक होता है।  इस  की तासीर और व्यौरे अलग-अलग हैं ज़रूर लेकिन आंच और प्याला एक ही है। वह है प्यार।

हमारे जीवन में प्रेम ऐसे लिपटा मिलता है जैसे किसी लान में कोई गोल-मटोल अकेला खरगोश। जैसे कोई फुदकती गौरैया, जैसे कोई फुदकती गिलहरी। जीवन में परेम का यह अकेला खरगोश कैसे किसी की जिंदगी में एक अनिर्वचनीय सुख दे कर उसे कैसे तो उथल-पुथल में डाल देता है, तो भी यह किसी फुदकती गौरैया या गिलहरी की सी खुशी और चहक किसी भी प्रेम की जैसे अनिवार्यता बन गया है। प्रेम की पवित्रता फिर भी जीवन में शेष है। प्रेम की यह पवित्रता ही उसे दुनिया में सर्वोपरि बनाती है। कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर मौजू है यहां:

मैं तो चुपचाप तेरी याद मैं बैठा था
घर के लोग कहते हैं, सारा घर महकता था।


जीवन में प्रेम इसी पवित्रता के साथ सुवासित रहे। ऐसे ही चहकता, महकता और बहकता रहे। सात जन्मों के फेरे की तरह। तो क्या बात है !

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