Friday 21 February 2014

लोक कवि अब गाते नहीं उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद की ई-बुक

- ओमप्रकाश सिंह

मशहूर हिंदी साहित्यकार दयानंद पाण्डेय के लिखल हिंदी उपन्यास  "लोक कवि अब गाते नहीं" भोजपुरी भाषा, ओकरा गायकी आ भोजपुरी समाज के क्षरण के कथे भर ना होके लोक भावना आ भारतीय समाज के चिंता के आइनो ह. गांव के निर्धन, अनपढ़ आ पिछड़ी जाति के एगो आदमी एक जून भोजन, एगो कुर्ता पायजामा पा जाए का ललक आ अनथक संघर्ष का बावजूद अपना लोक गायकी के कइसे बचा के राखऽता , ना सिर्फ लोक गायकी के बचा के राखऽता बलुक गायकी के माथो पर चहुँपत बा, ई उपन्यास एह ब्यौरा के बहुते बेकली से बांचऽता. साथ ही साथ माथ पर चहुँपला का बावजूद लोक गायक के गायकी कइसे अउर निखरला का बजाय बिखर जात बिया, बाजार का दलदल में दबत जात बिया, एही सचाई के ई उपन्यास बहुते बेलौस हो के भाखऽता, एकर गहन पड़ताल करऽता. लोक जीवन त एह उपन्यास के रीढ़ हइले ह.  आ कि जइसे उपन्यास के अंत में नई दिल्ली स्टेशन पर लीडर-ठेकेदार बबबन यादव के बेर-बेर कइल जाए वाला उद्घोष ‘लोक कवि जिंदाबाद!’ आ फेर छूटते पलट के लोक कवि के कान में फुसफुसा-फुसफुसा के बेर-बेर ई पूछल, ‘लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’ लोक कवि के कवनो भाला जस खोभऽता आ उनुका के तूड़ के राख देत बा. तबहियो ऊ निरुत्तर बाड़े. ऊ आदमी जे माथ पर बइठिओ के बिखरत जाए ला मजबूर हो गइल बा, अभिशप्त हो गइल बा, अपने रचल, गढ़ल बाजार के दलदल में दबा गइल बा. छटपटा रहल बा कवनो मछली का तरह आ पूछत बा, ‘लेकिन भोजपुरी कहां बिया?’ बतर्ज बब्बन यादव, ‘लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’ लोक गायकी पर निरंतर चलत ई जूते त ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ के शोक गीत ह! आ संघर्षो गीत !

पहिला बेर जब एह उपन्यास के पढ़ले रहीं तबहिए इ हमरा के कचोट के राख दिहले रहुवे आ हम लेखक से अनुमति लेके एकर भोजपुरी अनुवाद करे में लाग गइल रहीं. दुर्भाग्य से अनुवाद करे में बहुते अधिका समय लागल रहुवे आ अनेक पाठक एह उपन्यास के एकरा सामान्य प्रवाह में आनन्द ना ले पवलें. अब आजु ओही कमी के पूरा करत पूरा उपन्यास इबुक का रूप में पेश करत बानी. संजोग से आजु माईभासा दिवसो ह. अपना माईभासा के समर्पित करत बानी एह उपन्यास के. जवन भोजपुरी के अनेके समस्या पर एके संगे चोट करत बावे. आजुवे एह उपन्यास "लोक कवि अब गाते नहीं" के डाउनलोड क के इत्मीनान से पढ़ीं आ बताईं कि कइसन रहल ई प्रयास.

मूल हिंदी उपन्यास


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