Sunday 16 February 2014

इन कुम्हलाए-बिलाए फ़िल्मकारों का किया क्या जाए?

क्या व्यावसायिक फ़िल्मों की चकरघिन्नी सचमुच इतनी तोड़क होती है कि एक सिरे से सारे के सारे नए और युवा फ़िल्मकारों की प्रतिभा और दृष्टि दूसरी तीसरी फ़िल्म आते-आते कुंद बना जाती है। इस अस्सी के दशक में यों कई एक फ़िल्मकार हिंदी फ़िल्मों की चौखट में पांव रख गए। पर इस चौखट में आए जो कुछ पांव अपने निशान दे पाए उन में प्रकाश झा, केतन मेहता, सईद मिर्ज़ा, शेखर कपूर, विनोद पाण्डेय, सुधीर मिश्रा, रमेश शर्मा, अशोक आहूजा और एन चंद्रा का नाम पहली नज़र में सूझता है। पर इन का जो जायजा लें तो लगता है कि इन फ़िल्मकारों का एक तो ग्राफ इतना बढ़िया नहीं है। दूसरे यह सभी झंडा गाड़ तो आए हैं पर अपने आगे की फ़िल्मों में बुरी तरह बिखरते दिखते हैं।
विनोद पांडेय जो ‘एक बार फिर’ की मीठी याद इस दशक की शुरुआत में दर्शकों के दिलो दिमाग में बो गए थे-अब इस दशक के उतार में ‘‘एक नया रिश्ता’’ के मार्फ़त उसे शूल दे गए हैं। लंदन से बंबई तक की उन की यात्रा (फ़ार्मूले के अर्थ में) इतनी जल्दी पूरी हो जाएगी यह वह भी नहीं पहले जानते रहे होंगे।

‘एक बार फिर’ विनोद पांडेय ने बनाई ज़रूर हिंदी में थी और एक बार हलके से लखनऊ को भी सहेज लिया था। पर हिंदुस्तानी पात्रों से ले कर शूटिंग लोकेशंस तक सभी समुंदर पार के ही चुने थे। तो भी एक ताज़ा हवा की मानिंद आई थी ‘एक बार फिर’। और दीप्ति नवल, सईद जाफ़री तथा सुरेश ओबेराय जैसे सशक्त और सहज कलाकारों को हिंदी फ़िल्मों से वास्ता दिला गई थी। गीत, कहानी, निर्देशन, अभिनय सब ही को तब दाद मिली थी। दीप्ति नवल के कुछ ‘बोल्ड’ कहे जाने वाले दृश्यों ने खिड़की तोड़ भीड़ भी खींची थी। तब ‘एक बार फिर’ का कलेवर और तेवर ही नया-नया सा था। इस लिए भी भली लगी यह फ़िल्म। फिर विनोद पांडेय ने ‘ये नज़दीकियां’ बनाई। यह फ़िल्म भी एक बार फिर की तरह टूटते-छीजते दांपत्य की कहानी कहने आई थी पर थोड़े से सर्द ढंग से। शायद शबाना आज़मी जैसा मजबूत खंभा न होता तो ‘ये नज़दीकियां’ में ही विनोद पांडेय ढह गए होते। पर मार्क जुबेर, परवीन बाबी, सुधीर पांडे और शबाना आज़मी के साथ विनोद पांडेय एक बार फिर की तरह खुद भी इस फ़िल्म में एक किरदार के साथ नत्थी हो गए थे। तो भी उन्हों ने अभिनय बुरा नहीं किया था। ‘ये नज़दीकियां’ अपने तमाम ‘बोल्डपने’ के बावजूद ‘एक बार फिर’ की तरह का कोई असर नहीं छोड़ सकी। उतनी गरम भी साबित नहीं हुई। पर पिटी भी नहीं। बीच में रही। गीत भी ‘‘एक बार फिर’’ की तरह गुनगुने नहीं बन पड़े। पर निर्देशन और अभिनय का जादू पूरे शबाब पर था। ख़ास कर उन-उन फ्रेमों में जिन में शबाना आज़मी थी। बल्कि कहूं कि फ़िल्म का सेकेंड हाफ शबाना के ही लिए  था। वैसे तो फ़िल्म के अंतिम दृश्य में मार्क जुबेर के गले में हाथों का हार डाल भीगे नयनों से नाच पड़ती हैं वह कि दृश्य तो दृश्य आंखें भी वहीं ‘‘फ्रीज’’ हो जाती हैं। और चाय में चीनी की तरह विनोद पांडेय का भी अभिनय शबाना से कहीं उन्नीस नहीं था। ये नजदीकियां फ़िल्मी गणित के हिसाब से भले ही न कामयाब मानी गई हो, पर विनोद पांडेय नाकाम साबित नहीं हुए थे।
फिर विनोद पांडेय दिखे टी.वी. पर ‘एयर होस्टेस’ ले कर। इस में किट्टू गिडवानी के साथ वह फिर अभिनय के लिए भी नत्थी थे। पर अभिनय यहां भी नहीं खटका उन का। सीरियल भले सिरे से सिड़ी साबित हुआ। पर विनोद पांडेय की संवेदनशीलता पर सवाल फिर भी नहीं उठा। न ही उन की पकड़ का जादू जद्दोजहद बना। इज्जत पानी से ‘एयर होस्टेस’ तो निकाल ले गए विनोद पांडेय पर उन के गढ़े मीनार की ईटें तब ज़रूर खिसकती गईं। और अब ‘‘एक नया रिश्ता’’ क्या आई है। विनोद पांडेय को सिरे से तमाशा बना गई है।
‘एक नया रिश्ता’ में विनोद पांडेय की न तो वह पकड़ है न जादू। और गरमाई तो बिलकुल ही नहीं। इतना बसिया गए हैं विनोद पांडेय इस फ़िल्म में कि साफ कहूं, उबकाई आती है। किराए की कोख जैसे उत्तेजक विषय पर फिल्में अभी बनी ही नहीं हैं हिंदी में। विनोद पांडेय चाहे होते तो इसे एक यादगार फ़िल्म के रूप में गढ़ गए होते और फिर रेखा जैसी समर्थ अभिनेतत्री का साथ संयोग मिला था उन्हें। पर नहीं वह तो रेखा का भी बेड़ा गर्क कर गए हैं- एक् नया रिश्ता में। इस फ़िल्म के एक-एक फ्रेम में ढहते दिखते हैं विनोद पांडेय। ‘एक बार फिर’ का वह सुरमई आसमान रचने वाला फ़िल्मकार ही एक नया रिश्ता में गुदड़ी गीला कर रहा है- विश्वास करने को एकाएक जी नहीं करता। पर सच्चाई यही है कि विनोद पांडेय ने ‘एक नया रिश्ता’ में जितना धो सकते थे अपने को धो लिया है। धो लिया है अपना वह सुरमई आकाश। इतनी बढ़िया कहानी जिस में कि विस्तार और बारीकी की बेहतर गुंजाइश थी और कि जिसे जीने को रेखा जैसी बेतकल्लुफ और पाए की कलाकार थी और थे राजकिरण। पर तीनों का नाश कर विनोद पांडेय की दृष्टि इतनी उथली-छिछली क्यों हो गई? काश कि फ़िल्म महेश भट्ट सरीखे निर्देशक के हाथ पड़ी होती।
‘प्यासी जवानी’ मार्का जैसी तीसरे, चौथे दर्जे की फ़िल्मों की पटरी पर आने की विवशता विनोद पांडेय की अपनी गढ़ी हुई है कि व्यावसायिक फ़िल्मों के दोराहे पर वह भटक गए हैं?  यह एक सवाल है। पर सवाल यह भी है कि एक नया रिश्ता तक आते-आते व्यावसायिकता की अंधी गली इतनी भयावह कैसे हो गई। एयर होस्टेस को छोड़ भी दें तो क्या एक बार फिर और ये नजदीकियां के सामने भी तो व्यावसायिकता की अंधी गली मुंह बाए खड़ी रही होगी। बल्कि कहीं ज़्यादा भयावह रूप में। ‘एक नया रिश्ता’ तक तो आते-आते विनादे पांडेय को एक आधार भूमि भी मिली हुई थी। पर इस बनी बनाई ज़मीन का इतना छिछला इस्तेमाल कि पूरी फ़िल्म में ‘कालगर्लों’ के साथ की बेहूदगी और बाज़ारूपने का विस्तार ही साध पाए विनोद पांडेय। उनकी संवेदना की ज़रा भी थाह लेने की कोशिश की होती उन्हों ने तो इतना लचर न हुए होते। न इतना वेग ही आता, न ये उथलापन आता, ‘एक नया रिश्ता’ में। अव्वल तो बाप की संपत्ति हथियाने के लिए बच्चे की ज़रूरत ख़ातिर शादी करने के बजाए किराए की कोख तलाशने वाले दृश्य ही बड़े चाटू और चालू ढंग से फिल्माए गए हैं। दूसरे वे तमाम लटके-झटके भी विनोद पांडेय के यहां आ धमके हैं जो किसी भी फ़ार्मूला फ़िल्म में अकल ताक पर रख सने-तने रहते हैं। पर विनोद पांडेय की दृष्टि और संवेदना की थाह तब और थरथरा जाती है, जब रेखा, राजकिरण से अचानक कह बैठती हैं, ‘सौदा मंजूर है- अभी कमरा बुक कर लीजिए !’ और वह एक ही बार की बुकिंग में लीजिए मां भी बनने को हो आती हैं। यह सब कुछ इतने यांत्रिक, शुष्क और हड़बड़ी में फिल्माया गया है कि सिर दर्द हो जाता है। फिर तो वही लटके-झटके, रेखा राजकिरण पर और राजकिरण रेखा पर तमके। थोड़े उतर-चढ़ाव के बाद फ़िल्म का तो फ़ार्मूले के हिसाब से सुखद अंत होता है। पर विनोद पांडेय के इस दुखद अंत पर खींझ आती है। और तरस भी कि इस विवादास्पद विषय पर बढ़िया फ़िल्म का तमगा तो दूर चर्चा भी ठीक-ठाक नहीं हो सकती।
गुलज़ार के पट्ट शिष्य एन.चंद्रा भी अंकुश ले कर दो बरस पहले चौखट में पांव डाल एक मीठा-सा एहसास जगा गए थे। ‘प्रतिघात’ से तो वह डंका ही बजा गए बतर्ज गोविंद निहलानी के ‘अर्द्धसत्य’ के। पर अपनी ताज़ी फ़िल्म ‘तेजाब’ में एन. चंद्रा वह एन.एन. चंद्रा नहीं रह गए हैं, जो उष्मा अंकुश और जो ताव तेवर वह प्रतिघात में दिखा गए थे सब का सब तेजाब में होम कर गए हैं वह।


चवन्नियां गानों और कुछ फ्रेमों के फेर में तेजाब खिड़की तोड़ भीड़ भले खींच रही हो पर एन. चंद्रा निर्देशित इस फ़िल्म में कई बार सिर धुन लेना पड़ता है। फ़िल्म कभी गति पकड़ती है तो कभी फ़ार्मूला पकड़ गति गोल कर लेती है। इस घालमेल में घमंजा इतना है कि फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि यह किसी चंद्रा की फ़िल्म है कि किसी देसाई, मेहरा या चोपड़ा की। किरण कुमार वाले सारे दृश्यबंध तो सिरे से चाटते ही हैं। लेकिन जब एन.सी.सी. की ड्रेस पहने विजेता कप लिए अनिल कपूर पुलिस इंस्पेक्टर-बने सुरेश ओबेराय से बार-बार आदेश मांगते हैं और उधर उन के मां बाप पर बैंक में लुटेरों की संगीन सवार है और वह इसे देख रहे हैं (मां, बाप तभी मार भी दिए जाते हैं) तो तबीयत तंग हो जाती है कि एन. चंद्रा का ‘एप्रोच’ और दृष्टि भी इतनी तंग कैसे हो गई भला?
ठीक है कि आप स्टंट में माहिर हैं। पर आप में देसाई, चोपड़ा और मेहरा बनने की ललक काहे जाग रही है भाई? तब जब, अपने प्रतिघात में अपने चंद्रा होने का डंका बजवा, कितनों का सिंहासन डुबा, दिल दहला दिया। प्रतिघात और अंकुश में भी कुछ-एक फ्रेम दिमाग ताक पर रख कर साधे गए थे पर वे सिर से नहीं गुज़रे थे। जैसे कि तेजाब के ढेरों दुश्यबंध सिर से गुज़र जाते हैं।
‘होली’ और ‘मिर्च मासाला’ से माने जाने वाले केतन मेहता भी ‘हीरो हीरालाल’ में आ कर अइसा भहराए हैं कि इस की कल्पना तक न थी। हीरो हीरालाल में जो-जो बवाल काटा है केतन मेहता ने चलिए कला और प्रयोग के नाम पर थोड़ा झेला। बंबइया फ़िल्मों में निर्देशकों का दिमाग फिर भी ताक पर होता है पर अपने केतन मेहता का हीरो हीरालाल में दिमाग सातवें आसमान पर है। फ़िल्म में कोई कपोल कल्पित शहर या देश नहीं है। हिंदुस्तान के ही हैदराबाद और बंबई हैं। पर देश के क़ानून करम से तो जैसे वास्ता ही नहीं है केतन मेहता को। उन के हीरो हीरालाल के मरने के खेल के टिकट खुले-आम बंबई शहर में बिक रहे हैं। पर बात-बात में अनशनकारियों तक को अस्पताल पहुंचा देने वाली और आत्महत्या को अपराध मानने वाली पुलिस को यह अपराध नहीं लगता। उल्टे वह इस इंतज़ाम में लगी दीखती है। है न प्रयोग और कला के नाम पर दिमाग सातवें आसमान पर।

इस सब का हासिल यह हुआ है कि नसीरुद्दीन शाह जैसा सहज और सघन अनुभूति वाला अभिनेता ‘हीरो हीरालाल’ में असहज और कठपुतली मार्का मरहम मलकर रह गया है। शायद इसी कारण इस फ़िल्म की धज्जियाँ उड़ गईं और केतन मेहता की भी। यह फ़िल्म फिर भी चर्चा का मसाला बनी हुई है तो सिर्फ़ इस पर कि शशि कपूर की बेटी संजना कपूर बजरिए हीरो हीरालाल के अभिनय बाजार में परिवार की लीक तोड़ कूद गई। और शशि कपूर को संतोष करना चाहिए कि उन की यह बिगड़ैल लाड़ली उन के लाड़कों से अभिनय के मामले में अपेक्षतया बहुत बेहतर है।
‘‘हिप हिप हुर्रे’’ से होनहार और ‘‘दामुल’’ से बलवान बने प्रकाश झा की ‘परिणति’ फ़िल्म तो अच्छी थी। पर उन की ‘परिणति’ भी बिगड़ती दिखती है। क्यों कि दामुल की सामर्थ्य और ‘हिप-हिप हुर्र’ की ताज़गी, गति सारा कुछ ‘परिणति’ में पनिया गया है। ठीक है कि कहानी की मांग थी अपने उस को ‘‘जस्ट’’ किया। पर आप की ‘‘स्प्रिट’’ यहां क्यों गुम हो गई। और जब सब कुछ कहानी पर ही मुनस्सर है तो आप निर्देशक किस खेत के हैं? फिर रही सही कसर ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ में कोड़ दी।

ऊपरी तौर पर तो मुंगेरी लाल के हसीन सपने कामयाब सीरियल माना गया पर प्रकाश झा की निर्देशकीय क्षमता से आंका जाए तो पहले दर्जे का घटिया सीरियल साबित हुआ यह। शुरू की दो चार कड़ियों को छोड़ कर जिन्हें पंडित मनोहर श्याम जोशी ने लिखा था। बल्कि ‘ये जो है ज़िंदगी’ के भी स्तर को भी नहीं छू पाया प्रकाश झा का मुंगेरी लाल के हसीन सपने। लोग इस से फिर भी बंधे-जुड़े रहे और मुंगेरी लाल मुहावरा बन गया तो प्रकाश झा के निर्देशकीय जादू से नहीं। न ही रघुवीर यादव के एकरस नीरस अभिनय सें वह तो मुंगेरी लाल के अटपटे सपनों का तिलिस्म का ताना बाना और ससुर बने ज़माई बाबू जमाई बाबू कह-कह कर लखना डकैत के पीछे बात ही बात में ‘बन बन’ फालो करने वाले प्यारे मोहन सहाय की बेलाग और बिहारी स्टाइल वाली संवाद संप्रेषणीयता और कामिया मलहोत्रा की कामोत्तेजक उपस्थिति थी जो लोग मजबूर थे मुंगेरी लाल के हसीन सपनों को झेलने के लिए तैयार हो गए। प्रकाश झा की दृष्टि या निर्देशकीय प्रतिभा नहीं जो वह ‘हिप-हिप हुर्रे’ और दामुल में दाग गए थे।

‘मोहन जोशी हाज़िर हो’ से तहलका मचा देने वाले सईद मिर्ज़ा भी इधर बड़े पर्दे के बजाए छोटे पर्दे पर ही ‘नुक्कड़’, ‘मनोरंजन’ और ‘इंतज़ार’ के ज़रिए खूब धूम मचाए रहे। न सिर्फ़ धूम मचाई सईद मिर्जा ने बल्कि अपनी ‘स्प्रिट’ भी बनाए रखी। ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ या अरविंद देसाई की अजीब दास्तान’ जैसी प्रतीकात्मक फ़िल्मों की नीरसता और प्रतीकों से भी छुट्टी पाने में कामयाब रहे सईद मिर्ज़ा। पर सीरियलबाज़ी के नुस्खे के वह शिकार ज़रूर हुए। पर ज़्यादा नुकसान देकर नहीं।
वैसे आधार शिला से ख्याति पाए अशोक आहूजा की नवीनतम फ़िल्म ‘वसुंधरा’ बावजूद अपनी सीमाओं में कैद होने तथा संदेशात्मक हो कर भी उस की जकड़न से दूर रह कर चुगली खाती है कि ठीक मौका न मिल पाने के बावजूद अशोक आहूजा चूके नहीं हैं। न ही उनकी दृष्टि धुंधलाई है। इसी तरह ‘न्यू दिल्ली टाइम्स’ से धाक जमा गए रमेश शर्मा की भी आग ठंडी नहीं हुई है। उन के टी.वी. सीरियल कसौटी ने काफी उम्मीदें जगाई
हैं सुधीर मिश्रा की ‘ये वो मंजिल तो नहीं’ भी उम्मीदें जगाती हैं जैसे कभी विनोद पांडेय, प्रकाश झा, केतन मेहता और एन चंद्रा जगा गए थे।

शेखर कपूर की खूबसूरत फ़िल्म ‘मासूम’ का जिक्र भी ज़रूरी जान पड़ता है। पर इस का क्यों करें कि इस के बाद शेखर कपूर विज्ञापनों की वादी में सीरियलों में तो खूब छलके हैं। पर उन का फ़िल्मकार? लगता है कहीं बिला गया है और देखिए इस हिसाब किताब में सवाल फिर
भी छूट गया है कि इन कुम्हलाए बिलाए फ़िल्मकारों का किया गया जाए?
[ 1989 में लिखा गया लेख]

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