Wednesday 12 February 2014

पारिवारिक जीवन की बारीकियों पर नज़र

 [शन्नो अग्रवाल कोई पेशेवर आलोचक नहीं हैं । बल्कि एक दुर्लभ पाठिका हैं । कोई आलोचकीय चश्मा या किसी आलोचकीय शब्दावली, शिल्प और व्यंजना या किसी आलोचकीय पाठ से बहुत दूर उन की निश्छल टिप्पणियां पाठक और लेखक के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाती हैं । शन्नो जी इस या उस खेमे से जुडी हुई भी नहीं हैं । यू के में रहती हैं, गृहिणी हैं और सरोकारनामा पर यह और ऐसी बाक़ी रचनाएं पढ़ कर अपनी भावुक और बेबाक टिप्पणियां अविकल भाव से लिख भेजती हैं । ]

शन्नो अग्रवाल

पारिवारिक जीवन में गुंथी इन ग्यारह समकालीन कहानियों में लेखक दयानंद पांडेय जी ने गांव व शहर दोनों के परिवेश को बड़ी कुशलता से उभारा है l दोनों परिवेशों पर आप का विस्तृत अनुभव आप के लेखन पर समान नियंत्रण रखता है और इसे समर्थ बनाता है l पारिवारिक जीवन में सांस लेती हुई इन कहानियों की परिधि में इंसान के जीवन के हर पहलू व उसकी समस्त भावनाओं की झलक मिलती है l आप के लेखन में गांव व शहर दोनों के बदलते हुए परिवेश, सामाजिक व पारिवारिक समस्याओं का उल्लेख बड़ी सहजता से हुआ है l 'साहित्य समाज का दर्पण है' और दयानंद जी की ये पारिवारिक कहानियां इस बात का प्रमाण हैं कि इंसान जिस परिवेश में रहता है उस में होने वाली गतिविधियों से पूर्णतया अछूता नही रह सकता l यथार्थ की ज़मीन पर उगी ये कहानियां अतीत और वर्तमान का ऐसा संगम हैं जो हमें कभी विचलित करती हैं, कभी संवेदनशील बनाती हैं और कभी आक्रोश से भर देती हैं l


इस कहानी में सामाजिक तथ्यों पर आधारित एक विधवा के जीवन को दिखाया गया है l जिसे पढ़ कर अन्य विधवाओं के जीवन की झलक मिलती है l इस समाज में पति के बिना एक विधवा का जीवन कितना दूभर हो जाता है और अकेले रहना कितना मुश्किल होता है ये हम सभी जानते हैं l गांव या कस्बे में रहने वाली विधवा अपना जीवन रिश्तेदारों के यहां रहते हुए कैसे काटती है ये कहानी उस का अच्छा उदाहरण है l वो कितनी ही परेशानियों को चुपचाप सह लेती है और लोग समझते रहते हैं कि बड़ी उम्र की किसी विधवा का उन के बीच दबदबा है l इस कहानी में बड़की दी की ससुराल व मायके के लोगों में इज्ज़त है और यदि कोई परेशानी होती है तो शायद छुपा जाती हैं l किसी संयुक्त परिवार में सिर्फ़ गांवों और कस्बों में ही किसी मजबूर विधवा को लोग उस के रिश्तेदार रख पाते हैं वरना कौन किस की परवाह करता है l लेकिन बड़की दी को उन का हर रिश्तेदार अपने पास रखना चाहता है यहां तक कि उन के भाई का बेटा भी l लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है उन्हें साथ रखने का राज़ भी खुल जाता है कि उन सब की आंखें  बड़की दी की सेवा-टहल पर और ससुराल वालों की ज़मीन जायदाद पर हैं l लेकिन ये भी सर्वव्यापक सत्य है कि कितना ही कोई किसी विधवा को अपने घर में रख कर आश्रय दे लेकिन अगर उस विधवा की कोई संतान है तो वह उसे ही अपना पैसा व ज़मीन जायदाद सौंपना चाहेगी, अपने जीते जी या मरने के बाद l और यही यहां बड़की दी कर रही हैं l बेटा नहीं है उन का तो क्या हुआ, बेटी तो है l हर किसी के कहने के वावजूद कि कोई बेटी के यहाँ का पानी भी नहीं पीता बड़की दी को बुढ़ापे में अपनी बेटी के यहां रहने में ही सुख महसूस होता है l समय के साथ दुनिया कहां से कहां आ गई साथ में बड़की दी के विचार भी बदल गए लेकिन उन के रिश्तेदारों को उन के बेटी के साथ रहने में आपत्ति है l मुंह से नहीं कहते तो क्या हुआ इस के पीछे उन की संपत्ति ही तो है जिसे लोग उन्हें अपने पास रख कर हथिया लेना चाहते हैं l

सिर्फ़ अन्नू की बहू ही समझती है कि बेटी के यहां ना रहने वाली बातें सब ढकोसला हैं l बेटी व बेटा में कैसा फ़र्क? इसी लिए कहती है,’'आखिर वह अपनी बेटी के पास ही तो गई हैं l बेटी के पास ना जाएं तो किस के पास जाएं? रही बात ज़मीन जायदाद की तो वह भी अगर बेटी को लिख दिया तो क्या बुरा कर दिया? कौन सा आसमान फट पड़ा l किसे अपने बच्चों से मोह नही होता l’' उधर बड़की दी की छोटी बहन के कोई संतान नहीं है तो ये सुन कर उन्हें अपनी चिंता होने लगती है कि उन के बुढ़ापे में कौन सहारा बनेगा l लेकिन वह अपने मन को समझा लेती हैं कि पति और वह एक दूसरे का सहारा बनेंगे l सारांश में कहा जाए तो ये जीवन बड़ा कठिन है l जिन के बच्चे हैं तो उन के बड़े होने पर कई बार माता-पिता के प्रति उन के विचार बदल जाते हैं तो ये समस्या l और बच्चे नहीं हैं तो लोगों को अपने बुढ़ापे में किसी के सहारा ना होने की समस्या l सभी रिश्ते-नाते स्वार्थ के होते हैं l इस कहानी में दयानंद जी जीवन की वास्तविकता का सच्चा रूप दिखाने में सफल हुए हैं l

आज के तेज़ी से बदलते हुए आधुनिक परिवेश में बेटी व बेटों के विचार व उन की ज़िंदगी में बदलाव का सत्य दयानंद जी की इस कहानी में साफ जाहिर होता है l आप की सूक्ष्म दृष्टि ने एक आधुनिक और महत्वाकांक्षी लड़की के जीवन की कई समस्याओं को इस कहानी में पिरोया है l अब मां-बाप की ख्वाहिशें कोई अर्थ नहीं रखतीं l उन्हें अपने बच्चों की हां में हां मिलाते हुए चलना पड़ता है l बच्चे अपने जीवन साथी स्वयं चुनते हैं और आजकल के ट्रेंड में शादी करते हुए जीवन साथी एक दूसरे में कई बार कम्पैटिबिलिटी ढूंढते हैं l सुमि ऐसी बेटियों की मिसाल है जहां मां-बाप तो उन की शादी की चिंता में घुले जाते हैं पर बेटियां अपनी क्लास में टाप करते हुए इतनी महत्वाकांक्षी हो जाती हैं कि वह ज़िंदगी में और आगे निकल जाना चाहती हैं l सुमि को जब तक अपना लक्ष्य नहीं मिल जाता अपनी पढ़ाई जारी रखती है l एक तरफ तो समाज बदल रहा है और दूसरी तरफ कुछ दकियानूसी लोग हैं जिन्हें चैन नहीं जो उस के माता-पिता को सुमि की शादी के लिए कोंचते रहते हैं कि जवान बेटी की शादी अब हो जानी चाहिए वरना उस की शादी की उम्र निकल जाएगी l लेकिन अब बच्चे शादी की उम्र जैसी बातों पर ध्यान नहीं देते ये भी इस कहानी से जाहिर होता है l सुमि को इस संघर्ष में अपने घर वालों और समाज की बातों की तरफ से बहरा या कहो चिकना घड़ा बन जाना पड़ता है l कौन क्या कहता है उसे इस की परवाह नहीं l उसे बस अपने पिता की तरफ से मनोबल मिलता रहे यही काफी है उस के लिए l इस कहानी के परिवेश में एक बात और गौर करने वाली है कि यदि मां-बाप बच्चों की शादी तय करते हैं तो यदि लड़की क्वालिफिकेशन में लड़के के मन माफिक ना हुई तो रिश्ते को ठुकरा देते हैं चाहें लड़की टापर ही क्यों ना हो l यहां भी गौर करना पड़ता है कि इतना सब बदलने पर भी ये पुरुष प्रधान समाज है जहां लड़का ही अधिकतर रिश्ते ठुकराता है l और दूसरी तरफ विदेशों में जा कर बसे वो बेटे हैं जो जाति-धर्म की सीमाएं तोड़ कर जिस लड़की पर दिल आ गया उस से शादी करना चाहते हैं l और समझदार माता-पिता अपने बच्चों से कहीं रिश्ता ना टूट जाए इस डर से उन की हर बात को खुशी या नाखुशी से मानते रहते हैं l सुमि अपने माता-पिता की टिपिकल सोच, कि उस की शादी हो जानी चाहिए, को चैलेंज देती हुई उन्हें समझाती है वह अपनी पढ़ाई जारी रखती है l उसे अपने परिवार से हौसला व स्पेस चाहिए l उधर लड़की अपना भविष्य संभालने में लगी है और इधर पिता को समाज की कड़वी बातें सुननी पड़ती हैं l पर अंत में सुमि जिस मंज़िल को हासिल करती है उस से उस के माता-पिता को गर्व होता है भले ही वो औरों के लिए ईर्ष्या का कारण बन जाती है l सुमि जैसी बेटियां समाज की अन्य बेटियों के लिए मिसाल व अपने भाई-बहन के लिए प्रेरणा बनती हैं l वो कहते हैं न कि 'अंत भला तो सब भला l'

अपनी कन्या के लिए वर ढूंढते हुए कई बार उस का परिवार लड़के के बारे में अधिक पूछताछ नहीं करता, खास तौर से जहां दहेज की मांग ना रखी गई हो l यदि लड़का ठीक हुआ तो लोग लड़की की अच्छी तकदीर कहते हैं वरना दोष उस के मां-बाप पर आ जाता है कि उन्हों ने लड़के के बारे में जांच-पड़ताल क्यों नहीं की ढंग से l लड़के की तरफ से धोखा लड़की की ज़िंदगी तबाह कर देता है l दयानंद जी ने इस कहानी में ऐसी धोखेबाजी व इस से संबंधित मामले का कोर्ट-कचेहरी तक भी पहुंचने का बड़ी कुशलता से चित्रण किया है l इस में एक ब्याहता लड़की पति के पहले से शादी-शुदा होते हुए भी उस से तलाक नहीं चाहती और उस का पति पुरुष होने के नाते अपनी ऐंठ दिखाता है और लड़की को तिरस्कृत करता है l इस कहानी में लड़की उन लड़कियों की तरह है जो पति की पहली पत्नी होते हुए भी अपने पति के संग गुज़र करने को तैयार रहती हैं l पर जब पति उसे किसी तरह अपनाने को तैयार नहीं होता तो बड़ी बेबस हो जाती है l पुरुषों के इस समाज में पुरुष जो भी सही या गलत निश्चय करते हैं उस के आगे औरत को सर झुका देना पड़ता है l कुछ पुरुष औरत को कूड़े की तरह समझते हैं l इस लड़की के पति ने पहले अपनी पहली पत्नी को जाहिल समझते हुए उसे रास्ते से हटाने की सोची और इस लड़की से अपने बारे में सचाई बताये बिना शादी कर ली l और बाद में पता नहीं उस पर क्या फितूर चढ़ा कि पहली पत्नी और बच्चे के संग ही रहने के लिए इस लड़की से नफ़रत करने लगा l पुरुष औरत को युगों से छलता आया है, कभी दहेज के लिए तो कभी उस पर बिना बात के लांछन लगा कर l औरत के संग कैसी-कैसी चालें खेली जाती हैं l औरत ना हो गई जैसे बिना दाम के खरीदा हुआ माल l जब जी चाहा पसंद किया और जब जी चाहा किसी और औरत के लिए उसे तंग कर के छोड़ने के बहाने ढूंढ लेते हैं l और लड़की अपनी तकदीर को रोती रह जाती है l औरत की अच्छी या बुरी शादी-शुदा ज़िंदगी पति की मानसिकता पर निर्भर होती है l और तभी लोग कहते हैं कि शादी एक जुआ है l जिस की बेटी ऐसी परिस्थिति में फंसती है उस का पिता ही इस दर्द को समझ सकता है l समाज की इस बुराई को दयानंद जी ने इस कहानी में आवाज़ दी है जहां एक बेटी और उस के पिता का हृदय चीत्कार करता है l

वो कहते हैं ना कि चाहे सारी दुनिया बदल जाए पर कुछ लोग अपने आदर्शों पर हमेशा अडिग रहते हैं l  उन के मिजाज नहीं बदलते।  ऐसे ही हैं इस कहानी के पात्र, सूर्यनाथ जी l पारिवारिक व सामाजिक समस्याओं में उलझे इन सज्जन की आर्थिक असमर्थता उन के मानसिक तनाव का असली कारण है पर सच्चाई और ईमान की लीक पर चलते हुए वो कम में ही गुज़ारा करना ठीक समझते हैं l ये उन के जीवन की सचाई है l जिस का तनाव सहते हुए वह समय की दौड़ में पछाड़ खाते रहते हैं l अपने जमाने की बातें, चीज़ों के सस्ते दाम आदि सोचते हुए वह इस नए परिवेश को झेल पाने में असमर्थ महसूस करते हैं l घर की गाड़ी खींचते हुए ज़िंदगी की सचाइयों को झेलते हुए हर दिन तिल-तिल मरते रहते हैं l पर किसी से ना अपनी चिंताएं कहते हैं और ना ही कहीं बेईमानी या भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाते हैं l अपने आदर्शों को सीने से चिपकाए हुए जीना ही उन की ज़िंदगी का मकसद है l घर की गाड़ी खींचते हुए रिश्तेदारी की सामाजिक ज़रूरतों को भी निभाना पड़ता है l इन सब के बीच पिस कर अपनी सामर्थ्य से अधिक खर्च करने की विकट परिस्थिति में एक पुरुष लोगों के ताने व व्यंग्य सहता है, और बच्चों के भविष्य व उन के सपनों के लिए अधिक ना कर पाने पर टूटता रहता है l आर्थिक परिस्थितियों की विषमता झेलते हुए सूर्यनाथ जी के रूप में अनेक पुरुषों की तसवीर को दयानंद जी ने इस कहानी में बखूबी खींचा है l  
जीवन में इंसान का रुतबा भी उस के लिए समाज में एक खास जगह बनाता है l और कभी-कभी यही रुतबा समाज में इतना ऊंचा होता है कि यदि समय कभी पलटा खाए तो भी उस रुतबे की चमक कुछ न कुछ बनी ही रहती है l जैसा कि इस कहानी के नायक बाऊ साहब के रुतबे से पता चलता है,'‘खद्दर की कलफ लगी धोती और कुर्ता भले ही उन से बिसर कर उनकी अकड़ के इजाफे को धूमिल करते थे पर लुजलुजे टेरीकाट के कुर्ते में भी उनकी मूंछों की कड़क पहले ही जैसी थी l'' बाबू गोधन सिंह को घुड़सवारी का इतना शौक था कि ना केवल उस के करतब दिखाते थे लोगों को बल्कि शादी-ब्याह में अगुवानी भी करने लगे l और अगुवानी के शौक का क्या कहना कि स्वयं की दूसरी शादी में भी अगुवानी करने की सोचने लगे थे l जब किसी वस्तु से लगाव होता है तो उसे खोते हुए बड़ा दुख होता है वही हाल था बाऊ साहब का घोड़ों से बिछड़ने की बात को ले कर l इतना लगाव कि भविष्य में बढ़ते हुए खर्चों से उन्हें कुछ खेत आदि व कुछ घोड़े भी बेचने पड़े l पर घोड़े बेचते हुए उन्हें अपार दुख होता था l घोड़ों के दाना-पानी के खर्चे भी होते हैं इस पर बात उठाने पर छोटी बबुआइन को उन का चांटा भी खाना पड़ा l ‘घोड़े और घुड़सवारी जैसे उन की साँस थे।’  दुनिया चाहे ताना दे, समझाए या हंसे पर कुछ लोगों के शौक वैसे ही रहते हैं l नई चीज़ों से उन्हें लगाव नहीं हो पाता l यहाँ भी ’घोड़े वाले बाऊ साहब’ ने मोटर साइकिल आदि का जायका लिया पर माफिक नहीं आया l बैलगाड़ी मजबूरी में खींचनी पड़ी पर ‘बैलगाड़ी वाले बाऊ साहब’ कहलाना पसंद नहीं था l इस कहानी में एक और पहलू इस समाज की दकियानूसी बातों से जुड़ा है जिस में भूत-प्रेत का साया व किसी मंशा के पूरी ना होने पर लोग साधू-संन्यासियों की शरण लेते हैं l संतान के लिए तरसने वाले आस्तिक इंसान उम्मीद में कहां-कहां जाते हैं और क्या-क्या नहीं करते इस का अच्छा उल्लेख किया है दयानंद जी ने अपनी इस कहानी में l प्रमाण हैं ऐसे धूर्त और पापी लोग जो किसी की संतान प्राप्ति के लिए पूजा करते हुए उसी स्त्री को अपने संभोग का निशाना बना बैठते हैं l बाबू गोधन सिंह को भी बच्चों की उतनी ही ललक थी जितनी घोड़ों के लिए l अगर वारिस पैदा करने का औरत पर इतना प्रेशर हो कि उसे पति की ज़िंदगी में बनी रहने के लिेए आखिर में अपने पति को धोखा देना पड़े और किसी और से गर्भवती होना पड़े तो ये कहानी इस का सबूत है l लेकिन ये भेद जिस दिन खुलता है उस दिन बाप पर पहाड़ टूट पड़ता है l गोधन जी का पुराना रुतबा होने से समाज पीठ पीछे ही खुसफुस करता है l सवाल उठता है कि संतान न होने से हमेशा औरत ही क्यों अपने को हीन समझने लगती है? पति को भी तो अपने में कमी होने का अहसास होना चाहिए l कभी उस में भी दोष हो सकता है l दयानंद जी के लेखन कौशल  ने इस कहानी से पुरुषों की आंखें खोलने की कोशिश की है l पुरुष अपने में कभी कोई कमी नहीं देखते और उन का ये अहम ही किसी दिन उन्हें ले डूबता है l फिर ऐसे लोग अपनी बची-खुची इज्ज़त ना गंवा बैठें इस लिए खिसिया कर कुछ न कुछ बात बनाते ही हैं l तो यहां इस कहानी में भी गोधन सिंह उर्फ ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ अपनी सफाई में कहते हैं,'‘घोड़े की भी लगाम हमारे हाथ में रहती थी, अब बैलगाड़ी की लगाम अपने हाथ है l'' कह कर ठठ्ठा लगाते कहते,'‘बैलगाडी हो, घोड़ा हो, बीवी हो या कुछ और सही, लगाम अपने हाथ में होनी चाहिए l तभी ड्राइव करने का मजा है l'' ‘रस्सी जल गई पर ऐंठ ना गई’ ऐसा ही हुआ घोड़े वाले बाऊ साहब के साथ l पैसे से खोखले हो गए और संतान को ले कर लोगों के ताने सह कर भी मूंछों की सामंती अकड़ नहीं गई l

धर्म के नाम पर किसी निर्दोष इंसान के साथ कितना अधर्म हो जाता है ये कहानी इस का उदाहरण है l भारत का बंटवारा होने के बाद केवल पाकिस्तान में रहने वाले मुस्लिमों को ही नहीं बल्कि भारत के मुस्लिम को भी नफरत व शक की निगाह का सामना करना पड़ा l उच्च शिक्षा प्राप्त अच्छी नौकरी पेशे वाले मुस्लिम पर भी शक की सूली लटकती रहती है l जिहाद के नाम पर आतंक फैलाने वाले मुस्लिम लोगों से तमाम मुस्लिम बदनाम हो गए l एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है वाली बात हो गई l और जो भारतीय-मुस्लिम पाकिस्तान पहुंच कर बसते हैं वहां उन्हें मुस्लिम होने के वावजूद शक की निगाहों से देखा जाता है, क्यों कि वह भारत से आया है l ऐसा इंसान न घर का रहा न घाट का l और फिर बिहारी व बंगाली मुस्लिम का भेदभाव l मुस्लिम होना जैसे एक गुनाह हो गया l उसे कहीं चैन नहीं l इस कहानी के पात्र अब्दुल मन्नान भी पाकिस्तान में शक की निगाह से देखे गए लेकिन ससुराल वालों की वजह से चैन की बंशी बजाते रहे l फिर वहां भी मंजर बदल गया और खून खराबा की नौबत आ गई तो भाग कर वापस भारत आना पड़ा पर यहां तो उन्हें पाकिस्तानी जासूस समझ लिया गया l मुस्लिम लोगों ने भी उन से बात करना बंद कर दिया l सभी ने उन पर शक करना शुरू कर दिया l ना नौकरी, ना इज्ज़त और ना चैन l ये सब सहन न हो पाया तो मय परिवार खुदकुशी करने की सोची किंतु उन्हें बर्बाद करने वालों को ये भी गवारा ना हुआ l दूसरी तरफ एक और मुस्लिम शफ़ी साहब हैं जिन पर किसी की हत्या का आरोप लगता है व हिंदू लड़की को फंसा कर बीबी बनाने के कारण चुनाव नहीं जीत पाते l फिर भी उन की काबिलियत, शोहरत व इज्ज़त में कमी नहीं आती l उन की ही इनायत और तिकड़मबाजी से मन्नान मियां की घूरे जैसी ज़िंदगी में फिर से बहार आ जाती है l पर शफ़ी के अहसानों तले डूबे हुए बहार देर तक नहीं रही l एक बार पाकिस्तान हो आए मुस्लिम की हालत उस कुत्ते जैसी हो जाती है जिसे शक की लाठी से लोग बार-बार खदेड़ते हैं l ये इस कहानी के द्वारा साफ पता चलता है l शफ़ी ने लोगों में अपनी इमेज को शफ़्फ़ाक रखते हुए मन्नान मियां पर एक तरफ तो इनायत की दूसरी तरफ उन के लिये कब्र भी खोद दी l इस कहानी में एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को धोखा देता है l किसी को चारा फेंक कर फंसाना, क्या इसे ही कहते हैं भाई-चारा? एक मछली है और दूसरा मगरमच्छ l धोखा मिलने पर मन्नान एक तरफ शफ़ी के अहसानों का बखान करते हैं तो दूसरी तरफ आवेश में आ कर शफ़ी की बखिया उधेड़ने लगते हैं l न जाने क्या-क्या कह जाते हैं,''आप लोग नहीं जानते शफ़ी साहब को l नहीं जानते कि वह भीतर से और क्या-क्या हैं l बहुत से राज हैं इस सीने में, मत खुलवाइए l'' एक ही धर्म में शिया और सुन्नी का फर्क, कभी बिहारी और बंगाली भाषा का टकराव l धर्म के अंदर धर्म l अब मामला हुआ गर्म l खैर, सालों बाद न जाने कितनी तकलीफें सह कर और न जाने कितने पापड़ बेल कर मन्नान की अपने वतन लौटने की मन्नत पूरी होती है l सालों चलती हुई कानूनी कार्यवाही अपना रंग लाती है और उन के वतन-प्रेम की तपस्या सफल होती है l ये एक ऐसे मुसलमान की कहानी है जो सच्चा वतन प्रेमी है जो देश से खदेड़ने के बाद इतनी तकलीफें सहने के वावजूद वापस अपने मुल्क भारत में ही रहना चाहता है l धर्म और राजनीति दो चीज़ें हमेशा से देश व समाज में अशांति का कारण बने रहे हैं l और दयानंद जी ने अपनी इस कहानी में इन समस्याओं का चित्रण बड़ी कुशलता से किया है l

अकसर देखा गया है कि जब बेटा बड़ा होने लगता है फिर भी उसे अपने पिता की हर बात माननी पड़ती है l तो बाप-बेटे के बीच बिचारों में टकराव होने से मनमुटाव हो जाता है l और उन के बीच दूरियां बढ़ने लगती हैं l समय के साथ ये खाई कभी इतनी बढ़ जाती है कि इसे पाटना मुश्किल हो जाता है l पिता का अहम अपनी कमियां देखना नहीं चाहता l इस बात से घर में किसी को खुशी नहीं मिलती l बाप-बेटे दोनों के ही मन रोते रहते हैं l  इस लिए कभी बाप या कभी बेटा अपनी तरफ से ये दीवार हटाने की कोशिश करते हैं l दयानंद जी ने इस कहानी में एक बेटे के 'संवाद' से उन तमाम बेटों के मन की बात कहनी चाही है जिन के पिता अपने हठ के कारण अपने व बच्चों के बीच दूरियां बना लेते हैं l बेटा जानता है कि वो जो कुछ कहना चाहता है उसे पिता के सामने कहने में कठिनाई होगी और पिता को भी अपने विरुद्ध इन सब बातों को सुनने पर तकलीफ होगी l

'संवाद' में इसी विकट परिस्थिति को दर्शाया गया है l मां तो जन्म देती है किंतु घर में अगर पिता का हर बात पर कंट्रोल होता है और अपनी बात के आगे किसी की बात नहीं चलने देता और बच्चों को उस की बातों का विरोध करने पर भी मानना पड़ता है तो बच्चों के मन में आक्रोश पलने लगता है l बच्चे डरे व सहमे-सहमे रहते हैं l उन्हें कोई बात कहने का मौका नहीं दिया जाता l हर बात में पिता के थोपे निश्चय से उन का आत्म विश्वास भी मरने लगता है l मन में सालों की भरी कुढ़न को बेटा अपने बाप को चिट्ठियों में लिखता है पर कभी पोस्ट करने की हिम्मत नहीं कर पाता l इस कहानी के पात्र को, जो किसी ऐसे ही बेरहम बाप का बेटा है, अपनी लिखी एक पुरानी चिठ्ठी मिल जाती है जिस में भरी हुई कुढ़न व आक्रोश को कल्पना में अपने पिता को सुनाता है l कुछ भी हो पर ऐसे बच्चों के मन आपस के टूटे संबंधों को जोड़ना चाहते हैं और वो ये भी चाहते हैं कि उन के पिता अपनी कमियां व गलतियां स्वीकार करें जिन के कारण वो अपने बच्चों को दूर हो जाने देते हैं l इस कहानी के बेटे के मन में भावनाओं की बाढ़ सी आ रही है l उस का भी यही कहना है,''बीच की ये दीवार हटाई नहीं जा सकती क्या? जहां तक मैं समझ पाया हूं, अकसर हम दोनों के बीच कुछ स्थितियों के अलावा आप का 'सैद्धांतिक' हठी आग्रह जो कहीं मुझे जड़ भी जान पड़ता है, और मेरा 'व्यक्तिगत सच' बार-बार टकराते रहे हैं l टकरा कर ओछे साबित होते रहे हैं, लोगों की नज़र में, अपनी नज़र में भी l'' बाप के तानाशाही वर्ताव पर उस की ये शिकायत व व्यंग्य भरी चिट्ठी दुनिया के तमाम बेटों के मन का दर्द कह जाती है जिसे वो कभी अपने बाप के मुंह पर कहने की हिम्मत नहीं कर पाते,''मैं यह खूब जानता हूँ...आप बातों को सुन कर भी नहीं सुन पाते l चीज़ों को बहुत गहरे जानने के बाद भी नहीं जान पाते l वैसे लोग तो आप के तेज़ दिमाग और पारखी नज़र की बड़ी तारीफ़ करते हैं l मैं पूछता हूं कि हमारे लिए आप का ये तेज़ दिमाग क्यों सड़ जाता है? यह पारखी नज़र कहां धंस जाती है? क्यों...? खैर, छोड़िए भी l अब तो पानी सिर से इतना गुज़र चुका है कि....! चाहें तो आप इसे कमीनेपन के विशेषण से भी जोड़ कर देख सकते हैं l यह भी देखिए, बल्कि ज़रा गौर से देखिए कि यह विशेषण किस के साथ ठीक-ठीक जुड़ पाता है l'' दयानंद जी ने परिवार का एक ऐसा मुद्दा इस कहानी में दिखाया है जहां बाप के हठ से घर में तनाव रहता है l 'संवाद' में कितने बेटों के मन की घुटन चिट्ठी के संवाद में घुली है l लेखक ने इस कहानी में उन पिताओं की आंखें खोलने की कोशिश की है जो अपने 'थोथे आदर्शों' के कारण अपने बच्चों की 'मूक वेदना' नहीं सुनते और उन्हें खो देते हैं l
जब कोई औरत अपने ही घर में पुरुषों से छली जाती है तो वह हर किसी से सचेत हो जाती है, उस का व्यवहार सब के प्रति शक भरा हो जाता है l  उसे लगता है कि लोग उस का बुरा चाहते हैं l लोगों के लिए वह पागल और सनकी लगने लगती है l दयानंद जी की इस कहानी में विभा नाम की नायिका का व्यवहार भी ऐसा ही है जो उसे सब की निगाहों में बुरा बना देता है l  अपने बेटे को गाली देती है तो लोगों को अजीब लगता है कि एक  मां उस तरह की गाली अपने बेटे को कैसे दे सकती है l कोई भी उस की इस मानसिकता के पीछे छुपा राज़ नहीं समझ पाता l 'जाके पांव ना फटी विवाई वो क्या जाने पीर पराई' वाली बात l और ये राज जब वह किसी से फ़ोन पर बात करती है तब खुलता है l बच्चे अपना मतलब निकाल कर मां को दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देते हैं l जैसा विभा कहती है,''उसे पी.एम. के साथ फ़ारेन विजिट पर जाना था l'' वह बोलती जा रही थी, ''तो पी.एम. के साथ जाने का जुगाड़, पासपोर्ट, वीजा सब मेरे कंधे पर बैठ कर करवाना था l मेरे कांटेक्ट और इन्फ्लुएंस को कैश करना था l'' वह बोलीं, ''तो कुछ दिनों के लिए मैं मम्मी जी बन गई थी और काम खत्म होते ही कुतिया, साली हरामजादी हो गई l'' कह कर वो रोने लगीं,'' बताओ कि मैं साली कुतिया हरामजादी हूँ कि मां हूं उस की l'' दयानंद जी की इस मार्मिक कहानी ने समाज में उभरती एक ऐसी गंभीर पारिवारिक समस्या का रूप प्रस्तुत किया है जिस में बच्चों के मन में मां के प्रति प्यार नहीं बल्कि उस का सब कुछ हड़प करने का लालच रहता है l आज-कल बेटा-बहू मां को अपने पास रख कर उस की सेवा करना तो दूर उस की वो हालत कर डालते हैं कि हर मां का दिल कांप उठे l इस कहानी की मां विभा कितनी ही बार अपने बेटे के अत्याचार का शिकार होती है l पति के बिना एक शिक्षित औरत जो आर्थिक रूप से समर्थ है अपने बेटे के द्वारा ठगी जाती है l मां अपने बच्चों के आगे झुकती है, मातृत्व निछावर करती है, ज़रूरत पड़ने पर उन के काम आती है पर उस के बदले में प्यार, आदर व भावनात्मक सुरक्षा ना पाने पर उस का जीवन बिखर जाता है, उस का अस्तित्व मिटने लगता है l आखिरकार इंसान अपने मन के दुख किसी से तो बांटता है और एक औरत किसी औरत से ही अपने मन की व्यथा कहती है l पर दयानंद जी की इस कहानी में कुंदन नाम के एक मित्र से विभा अपने मन की सारी पीड़ा उंडेलती है l लेकिन दुख कोई नहीं बांटता l हर तरफ से लाचार नारी को खुद के हौसलों पर जीना होता है l जीवन का रास्ता अकेले ही तय करने के लिए अपने को तैयार करना पड़ता है l विभा के प्रति मन संवेदनशीलता से भर उठता है l कहानी में विभा के जीवन की असलियत पढ़ कर मन चीत्कार करने लगता है:
नारी तेरे जीवन में भरी है इतनी पीर
आंचल में कांटे भरे और आंखों में नीर l

दुनिया में किस्म-किस्म के लोग होते हैं ये इस कहानी से जाहिर है l परिवार में कोई बच्चा बचपन से ही विचित्र हरकतें करता पाया जाता है तो सब लोग सोचते हैं कि बाद में बदल जाएगा l किंतु कुछ ऐसे केस होते हैं जो बदलते नहीं बल्कि उन के लक्षण बीमारी की तरह और गंभीर होते रहते हैं l दयानंद जी की इस कहानी में रामअवतार बाबू भी एक ऐसा ही नमूना हैं l बचपन से खामोश रहने वाले इस इंसान को इंसानों से नहीं बल्कि जानवरों और पेड़-पौधों से लगाव हो जाता है l घर वाले सोचते रह जाते हैं कि उन के ये लक्षण गायब हो जाएंगे l किंतु रामअवतार बाबू तो ऊपर से ही ऐसे बन कर आए थे l अड़ियल किस्म के आदमी थे इस लिए उन पर किसी के समझाने-बुझाने का असर नहीं होता था l उन्हों ने शादी भी नहीं की l अपनी अजीब आदतों और हरकतों से उन्हों ने अपने लिए एक ऐसी दुनिया बना ली जिस में इंसान से अधिक उन के लिये पशु-पक्षी व जानवरों का महत्व था l उन्हें उन सब से इतना मोह था कि वह अधेड़ उम्र तक कुंवारे ही रहे l और जब शादी की तो उन्हें अपनी पत्नी से लगाव ही नहीं हो पाया l घर में वह अनचाहे फर्नीचर की तरह पड़ी रही l उन की ही शर्तों पर जीती रही l पता नहीं क्यों इस तरह के पागल लोग किसी औरत से शादी कर के उसे गले में अनचाही ढोल की तरह बांध लेते हैं l उस औरत का जीवन बेकार कर देते हैं l जिसे वो सर्वस्व समझ कर आती है उस के लिए वह कोई मायने ही नहीं रखती l पत्नी से ज्यादा कुत्ते-बिल्लियों को प्यार मिलता है l रामअवतार बाबू को पत्नी के भले-बुरे की कोई फिक्र नहीं हुई l वह मरे या जिए उन पर कोई असर नहीं l उस के बीमार होने पर भी कोई चिंता नहीं l आखिर में वह मर ही गई l इधर उसे शादी की यातना से मुक्ति मिली उधर रामअवतार बाबू लोगों के बीच कुछ टेसुआ बहा कर सामाजिक फ़ारमैलिटी पूरी करके निश्चिंत हो कर अपना पहले वाला जीवन गुज़ारने लगे l यहां तक कि श्राद्ध के अगले ही दिन पत्नी की बरसी भी निपटा दी l कई लोग उन की पीठ पीछे उन्हें पगलू भी कहते थे l उन का बुढ़ापा सामाजिक सेवा और पशु-पक्षियों में फिर गुज़रने लगा जैसे कुछ असाधारण हुआ ही न हो l  इस कहानी में दयानंद जी का इशारा ऐसे लोनर टाइप लोगों पर है जो अपनी रोजी-रोटी कमाते हुए जीवन को अकेले ही गुजारने में शांति महसूस करते हैं l कुछ शौक आदि पाल लेते हैं पर शादी उन्हें रास नहीं आती l रामअवतार बाबू का शौक और दिलचस्पी पशु-पक्षियों में थी l वह कुछ लोगों से संपर्क रखते हुए अपना जीवन खामोशी से गुज़ारते रहे l

इस कहानी में दयानंद जी ने आफिस के एक चपरासी के माध्यम से अनपढ़ लोगों की सोच-समझ का अच्छा-ख़ासा नक्शा खींचा है l ऐसे लोग अज्ञानतावश अपने व अपने परिवार का भला-बुरा सोचने के लिये दूसरों पर निर्भर रहते हैं l इस में कन्हईलाल नाम का एक अनपढ़ चपरासी अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने में आफिस के लोगों पर निर्भर रहता है l किंतु अपनी मूढ़ता से न केवल अपने बच्चों की शिक्षा का आरक्षण करने में असफल होता है बल्कि अपनी पत्नी की बीमारी के प्रति भी गैर ज़िम्मेवार साबित होता है l नतीज़ा ये कि उस की पत्नी की असमय मौत हो जाती है l और उसे खोने के बाद पश्चाताप में खुद को उस का हत्यारा समझने लगता है l
इस कहानी में दयानंद जी ने गांव के परिवेश का चित्रण करते हुए बिन बरसात फसलों के मर जाने पर ग्रामवासियों की कंगाली की दशा व उन के अंधविश्वास के बारे में बहुत अच्छी तरह वर्णन किया है l गांव में किसान का भविष्य फसलों पर निर्भर रहता है l और जब फसलें नहीं पनपतीं तो लोग इंद्र देवता का कोप दूर करने को न जाने किन-किन अंधविश्वासी तरीकों को अपनाते हैं l गांव की विपदा और लोगों की दयनीय दशा के बीच सांय-सांय करती हवा और सूखे खेतों के बीच लेखक के शब्द चयन से अनजाने में काव्य की बौछार हो जाती है l इस से कहानी की रोचकता और बढ़ जाती है,''सावन-भादों का महीना और आकाश को घेरे ढेर सारे बादल l काले, भूरे, उनीले और तहीले बादलों को देख कर बरसात की उम्मीद बंधती है l लेकिन बेरहम पछुआ हवा बादलों को बटोर अपने डैनों पर चढ़ा कर उड़ा ले जाती है और रह जाता है बादलों से वीरान आग उगलता ये आसमान....छिटपुट बादलों में कैद सूरज वैसे ही चमकने लगता है जैसे बैसाख और जेठ में दहकता था l धान, कोदो, सांवा, टागुन और मक्का की फसलें झुलस कर नेस्तनाबूद हो चुकी हैं l नदियां सिमट कर अपने दोनों कगारों के बीच दफन हैं l क्या ताल, क्या पोखर और क्या पोखरी....सब का पेट खाली हो चुका है l सारे मेड़ और चकरोड...बैसाख-जेठ जैसे आग की तरह तपते हैं l'' कहानी के विवरण में कुछ काव्यात्मक शब्दों से विपदा में लिपटी कहानी भी खूबसूरत लगने लगती है l एक तरफ गांव की दशा पर मन संवेदनशील हो उठता है, और दूसरी तरफ पाठक उस की मिट्टी की खुशबू व खेतों की लहक में उलझता जाता है l मार्मिक सीन सुंदर, सहज भाषा शैली से निखर जाते हैं l गाँव के परिवेश में लोगों की सरलता उन की तरफ खींचती हैं l किंतु लोग उस परिवेश को छोड़ कर शहर की तरफ भागने की सोचते हैं l वो ये नहीं सोचते कि शहर में भी रोजी-रोटी का बंदोबस्त आसानी से नहीं होता l दूर के ढोल सुहावने होते हैं, ये बाद में समझ आता है l पाठक भी अचानक कल्पना के आसमान से वापस तपती धरती पर आ गिरता है, जहां दो वक्त के खाने का जुगाड़ व खेतों की फसल की देख-रेख के लिए किसान को परिवार की औरतों के गहने भी बेच देने पड़ते हैं l फिर भी उन के सारे सपनों और उम्मीदों पर आग लग जाती है l लेकिन इन उम्मीदों की राख पर भी कभी-कभी किसान की आशा मेड़ की सूखी दूब की तरह हरियाने लगती है l

ज़िंदगी की वास्तविकता का हर पहलू दयानंद जी की इन ग्यारह कहानियों में देखने को मिला l हर कहानी कहीं न कहीं दुनिया में किसी के जीवन से जुड़ी सी लगती हैं l समस्याओं को झेलते हुए भी आप की कहानी के पात्रों में हौसला व जिजीविषा है l  हर कहानी के आरंभ व उस के समापन में एक नवीनता है l आप के लेखन में एक खास सादगी है जिसे पढ़ने के बाद पाठक का मन खुद व खुद दूसरी कहानी पढ़ने को लालायित रहता है l जीवन का यथार्थ रोजमर्रा की सहज भाषा में पाठक को आकर्षित करता है l इन कहानियों में पारिवारिक समस्याओं का कोई भी पहलू आप की नज़र से नहीं बचा l आप ने जीवन की बारीकियों पर नज़र रखते हुए हर कहानी में पात्रों के जरिए तमाम पारिवारिक मुद्दों पर सशक्त अभिव्यक्ति की है l पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे हम वहाँ अदृश्य रूप में उन पात्रों के बीच मौजूद हैं, उन के साथ उन पलों को जी रहे हैं, उन का सुख-दुख महसूस कर रहे हैं l ‘बड़की दी का यक्ष प्रश्न’ में एक विधवा मां की ममता उसे अपनी बेटी के पास खींच कर ले जाती है l और हम भी उन के जीवन की वारदातों में उलझ जाते हैं l ‘सुमि का स्पेस’ में एक बेटी की आकांक्षाएं व उस की ज़िद के आगे माता-पिता का झुकना साबित करता है कि बच्चे जिस तरह खुश रहें उसी में उन की खुशी होनी चाहिए l यही समय की मांग है l ‘संगम के शहर की लड़की’ कहानी समाज को लड़की की शादी के मामले में सतर्कता से काम लेने की सीख देती है l शादी के पहले लड़के के बारे में बिना जांच-पड़ताल किए कितनी लड़कियों का जीवन उजड़ जाता है l ‘सूर्यनाथ की मौत में’ आर्थिक तंगी कैसे एक इंसान को अंदर से मार देती है ये इस कहानी को पढ़ कर ही अंदाज़ा होता है l ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ में इंसान का रुतबा होते हुए भी संतान की तीव्र इच्छा जीवन में कैसी उथल-पुथल मचा देती है और फिर उस का परिणाम भुगतना कैसा लगता है l इस कहानी को पढ़ कर हर पुरुष को सीख मिलनी चाहिए l 'मन्ना जल्दी आना' में मन्नान में ऐसे देश प्रेमियों की झलक मिलती है जो जाति-धर्म के नाम पर झूठे इल्जाम और मुसीबतें सहते हुए वहां से खदेड़़ने के बाद भी वापस अपने वतन आना चाहते हैं l अपने वतन की मिट्टी से ही चिपके रहना चाहते हैं, उसी में उन की जान बसती है, उसी मिट्टी में दम तोड़ना चाहते हैं l कितने पापड़ बेलने के बाद मन्नान की फिर अपने वतन भारत में वापसी होती है l मुस्लिम भी हिंदुस्तान की मिट्टी में पैदा होने से उसी के वफ़ादार हैं l लेकिन लोग उन्हें समझ नहीं पाते l 'संवाद' में एक बेटे की अपने बाप के थोथे आदर्शों को झेलने के बारे में लिखी चिट्ठी पाठक के मन को हिला देती है l चिट्ठी के हर शब्द में दुनिया के तमाम बेटों के मन का दर्द भरा हुआ है l बाप-बेटा दोनों के स्वाभिमान ने एक दूसरे के संबंधों में दूरियां खींच दी हैं l लेकिन मन की सारी पीड़ा जो बेटा अपने बाप से कह नहीं सकता वो सब चिट्ठी में उकेरी हैं l 'भूचाल' में आप ने ऐसी पारिवारिक समस्या को प्रस्तुत किया है जो आज का सच है l मां के लिए बच्चों की भावनाएं बदल जाती हैं किंतु मां का अखंड प्यार बड़ी मुश्किल से हिलता है l पर यथार्थ ये भी है कि अपनी ही संतान जब अपमान करने की हद से गुज़र जाती है तब मां के जीवन में जैसे भूचाल सा आ जाता है l उस का सारा अस्तित्व हिल जाता है l और तब संतान के लिए भी मां के मुंह से गुस्से में कुछ अनाप-शनाप निकल जाता है l और 'रामअवतार बाबू' कहानी में ऐसे लोगों की झलक है जो अपने परिवार से बिलकुल मेल नहीं खाते और बचपन से ही उन के व्यवहार में विचित्रता रहती है l उन्हें अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी से अधिक मिलना-जुलना पसंद नहीं होता व अपने जीवन में किसी साथी के अभाव को अन्य शौकों से पूरा कर के ही मगन रहते हैं l 'कन्हईलाल' कहानी में अनपढ़ लोगों की अज्ञानता का एक चपरासी पात्र द्वारा दिखाने का अच्छा प्रयास हुआ है l 'मेड़ की दूब' में बिन बरसात फसलों का मर जाना और ग्रामवासियों की कंगाली की हालत का अच्छा ब्यौरा है l लेकिन किसान अपनी आशाओं को मरने नहीं देता वो मेड़ की दूब की तरह फिर हरियाने लगती हैं l दयानंद पांडेय जी की ये कहानियां सही मायने में ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ की कसौटी पर खरी उतरती हैं l

आप के लेखन की 'प्रतिबद्धता' से इन कहानियों में समाज की तमाम समस्याओं व लोगों की पीड़ा को स्वर मिला है l इस प्रतिभाशाली लेखन पर आपको बहुत बधाई व भविष्य के लिए शुभकामनाएं l

[ जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित ग्यारह पारिवारिक कहानियां की भूमिका] 

-शन्नो अग्रवाल
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1 comment:

  1. आभार l मुझे बहुत ही खुशी हो रही है l आपके कहानी संग्रह के लिये शुभकानायें l

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