दयानंद पांडेय
जैसे कोई एक मुट्ठी आकाश चाहे। जैसे कोई छोटा सा सुख चाहे। जैसे कोई ठोकर खा कर खड़े होने और संभलने की कोशिश करे। वीना सिंह की कहानियां पढ़ते हुए यही आस जगती है। यही उम्मीद बंधती है। टूटते हुए आस को विश्वास मिलता है। मरते हुए व्यक्ति को जैसे सांस मिलती है। वीना सिंह की कहानियों की बुनावट और कथ्य भले अलग-अलग हों पर कहानियों का सारा सार और स्वर यही है। घर-परिवार में टूटती-जुड़ती स्त्रियों की कथा में लिपटी वीना की कहानियों में घर-परिवार के ही संत्रास हैं। घुटन और घाव हैं। घाव हरे होते हैं तो सूखते भी हैं। वीना सिंह की कहानियों में दांपत्य जैसे सर्वदा तलवार की धार पर रहता है। पर वह कहते हैं न कि बाल-बाल बचे। तो वीना की कहानियों में भी दांपत्य जैसे-तैसे बाल-बाल बच जाता है। बर्थ डे पार्टी , आख़िर क्यूं ? ऐसी ही कहानियां हैं। मिलन की एक आस की शिफत भी यही है। बस अंदाज़ अलग है। एक झूठी भविष्यवाणी की इबारत भी इसी दांपत्य की दस्तक को बांचती है। ज्योतिष के नाम पर पंडित दयानंद का पाखंड भी यह कहानी प्याज की तरह तार-तार करती है। वह एक बदनाम औरत कहानी की प्रेमा और कल्लू का दांपत्य भले बेमेल हो , टूटता भी है और वह श्याम के साथ भी जुड़ती है पर प्रेमा के लोक कल्याण के काम उस की बदनाम औरत की छवि को खंडित करते हैं लेकिन यह खंडित छवि अनायास नहीं , सायास गढ़ी हुई मिलती है।
वीना सिंह की कई कहानियां नायिका की छवि को उज्ज्वल बनाने में सायास गढ़ी हुई दिखती हैं। कहानियों को पॉजिटिव एंड तक पहुंचाने की यह ज़िद भी लेकिन देखने लायक़ है। जस की तस धर दीन्ही चदरिया की कायल नहीं हैं वीना सिंह की कहानियां। वीना अपनी कहानियों और कहानियों की स्त्री पात्रों को धो-पोंछ कर साफ़-सुथरे ढंग से परोसने की कायल हैं। वीना सिंह की कहानियों के स्त्री विमर्श का यह अलग अंदाज़ है। यह ज़रुर है कि वीना सिंह के स्त्री विमर्श के इस अंदाज़ में पुरुष चरित्रों के प्रति दुराग्रह या नफ़रत की नागफनी नहीं उगती। और उस ने वापसी का इरादा बदल दिया कहानी की सरला और सावन का मिलन कहानी की एक नई खिड़की खोल देता है। आख़िर वह कहां ग़लत थी कहानी में कांता के भटकाव को भी ऐसे धो-पोंछ देती हैं वीना सिंह कि जैसे कांता स्त्री नहीं कोई छोटा बच्चा हो और उस को नहला-धुला कर उस के माथे पर काला टीका लगा रही हों। स्त्री विमर्श का यह निराला अंदाज़ है , वीना की कहानियों में।
वीना सिंह की ज़्यादातर कहानियों के शीर्षक बड़े-बड़े हैं। एक रात का पति , एक रात ख़ुद के साथ। गोया कहानी नहीं , लेख के शीर्षक हों। ममत्व , विश्वासघात , प्रायश्चित जैसे शीर्षक भी हैं। ससुराल में उस की पहली परीक्षा में है तो सास , ननद और नई बहू की जानी-पहचानी खिचड़ी पर खिचड़ी से दाल-चावल अलग-अलग करने की बिसात लिए। वीना की कहानियों में यही खिचड़ी से दाल-चावल अलग करने की जद्दोजहद चहुं ओर है। शायद इसी लिए वीना सिंह के इस संग्रह की कहानियों की शायद एक लक्ष्मण रेखा बिना खींचे हुए खिंची हुई है। इन कहानियों की सरहद ही है घर , परिवार और स्त्री। घर, परिवार की स्त्री कभी यह सरहद नहीं लांघती। एक रात खुद के साथ जैसी छोटी कहानी भी यही उम्मीद जताती ही क्या बताती भी है कि स्त्री ही घर को बनाती बिगाड़ती है। वीना सिंह की इन कहानियों में उम्मीद की यही चाशनी कहानी को सबल बनाती है और अबला को सबला भी। जैसे कोई जुलाहा करघे पर कपड़ा बुनता है , वीना सिंह अपनी कहानियों में एक स्त्री बुनती हैं , घर को बनाने के लिए। इस कहानी संग्रह के लिए वीना सिंह को अशेष बधाई और शुभकामना !
[ वीना सिंह के कहानी संग्रह अब और नहीं की भूमिका ]
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