Tuesday, 7 January 2025

अब बाज़ार से है ज़िंदगी

दयानंद पांडेय 


तेज़ाब की तरह बरसती यह जीवन शैली

हम जब छोटे थे तब बहुत समय तक नहीं जान सके कि हमारे पिता कौन हैं। संयुक्त परिवार था तो सब कुछ संयुक्त था। ज़िम्मेदारियां भी संयुक्त थीं। पितामह को ले कर भी मुश्किल थी और नाना जी को ले कर भी। अम्मा , इया यानी दादी और नानी आदि को ले कर लेकिन कभी कोई मुश्किल नहीं थी। हां , चाची को बड़की माई कहते थे। पिता जी के बड़े भाई को उन के बच्चे बाबूजी कहते थे। हम भी बाबूजी कहते थे। बाबूजी की सभी बच्चे हमारे पिता को बबुआ कहते थे , हम भी बबुआ कहते थे। और तो और पितामह जिन को हम बाबा कहते थे , बाबूजी और बबुआ दोनों उन्हें चाचा कहते थे। और तो और नाना जी को हमारी अम्मा और सभी मामा और मौसी भइया कहते थे। बड़ा घालमेल था। यह संयुक्त परिवार की ख़ासियत कहिए , खूबी कहिए , कमज़ोरी कहिए या ताक़त कहिए , थी तो थी। हाई स्कूल में जब बोर्ड का फार्म भरना हुआ तब यह मुश्किल आसान हुई। हमारा कन्फ्यूजन देख कर स्कूल में पिता का खाना ख़ाली रखा गया। कहा गया कि कल घर में पूछ कर आना , तब लिखना। हमारा ही सिलसिला पूरे घर में था। बाबूजी , बबुआ के पिता को उन के बड़े भाई के बच्चे चाचा कहते थे तो यह लोग भी चाचा कहते थे। इसी तरह नाना के छोटे भाई लोग उन्हें भइया कहते थे तो अम्मा और मामा , मौसी लोग भी उन्हें भइया कहते थे। और तो और एक परिवार में हम ने देखा कि लोग अपनी मां को भौजी कहते थे। उन के बच्चे भी दादी नहीं भौजी ही कहते थे। तो यह संयुक्त परिवार की कैफ़ियत थी। हमारे यहां तो और सुनिए। हमारे पिता जी यानी बबुआ को भी हमारे बाबूजी ने पढ़ाया-लिखाया और हम को भी। और तो और एक अध्यापक भी मुझे ऐसे मिल गए जिन्हों ने मेरे पिता जी को पढ़ाया था और मुझे भी पढ़ाया। तो यह तब की तस्वीर थी। तब की पृथ्वी थी। घर में कभी कोई बीमार पड़ता था , कोई विपदा आती थी तो किसी एक के कंधे पर नहीं भार पड़ता था। कई बार तो यह पारिवारिक एकता देखते हुए विपदा भी घर का रास्ता मोड़ लेती थी। पता ही नहीं लगता था कि कोई विपदा आई भी थी कि आने वाली थी। किसी हारी - बीमारी में घर में भोजन बनाने के लिए किसी को बाहर से नहीं आना पड़ता था। पता ही नहीं चलता था घर के कामकाज में किसी अवरोध का। पर यह संयुक्त परिवार कई बार तनाव और सांघातिक तनाव भी रोपता था। ख़ास कर स्त्रियों के बीच। आहिस्ता - आहिस्ता संयुक्त परिवार सिरदर्द बन गए। ज़िम्मेदारियों का तंबू जिस के मत्थे मढ़ गया , मढ़ गया। निकम्मेपन का पहाड़ा जिस ने पढ़ लिया , पढ़ता ही गया। परिणाम सामने था। संयुक्त परिवारों में दरार पड़ने लगी। झगड़े बढ़ते गए। त्याग और बर्दाश्त से लोगों की कुट्टी होने लगी। संयुक्त परिवार आहिस्ता - आहिस्ता टूट गए। टूटते ही गए। अब एकल परिवार भी संकट में दीखते हैं। 

जब मेरा बेटा छोटा था तब उसे देहरादून के दून स्कूल में पढ़ाने के लिए सोचा। सारा जुगाड़ कर लिया था। उत्तराखंड नया - नया बना था। उत्तराखंड में राज्यपाल के सचिव एक आई एस अफसर थे। लखनऊ से गए थे। हमारे अच्छे दोस्त थे। उन्हों ने राज्यपाल कोटे से न सिर्फ़ नाम लिखवाने की गारंटी ले ली थी बल्कि फ़ार्म भी भेज दिया था। फार्म जिस दिन आया हम बहुत ख़ुश हुए। ड्राइंग रूम की मेज़ पर फ़ार्म रखा था। कि तभी एक मित्र आए। फ़ार्म देखा। वह भी ख़ुश हुए। कहने लगे कि फ़ार्म आ गया है तो आप नाम भी लिखवा ही लेंगे। मैं ने अपना जुगाड़ भी उन्हें ख़ुशी-ख़ुशी बता दिया। वह और ख़ुश हुए। थोड़ी देर बाद अचानक कहने लगे कि आप बेटे को दून स्कूल भेज ही क्यों रहे हैं ? क्या लखनऊ में अच्छे स्कूल नहीं हैं ? उन्हों ने एक बड़ी बात कही कि पहले के समय में लखनऊ जैसे शहरों में अच्छे स्कूल नहीं थे। तो लोग दून भेजते थे। कुछ बड़े लोग थे दिल्ली , मुंबई में जिन के पास समय नहीं था तो बच्चों को दून जैसे स्कूलों में भेजते थे। अब लखनऊ में अच्छे स्कूल बहुत हैं। दून भेजने की क्या ज़रूरत है ? फिर मित्र ने एक और बात कही कि वैसे भी इंटर की पढ़ाई के बाद बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे बड़े शहरों में चले जाते हैं। पढ़ाई के बाद नौकरी करने लगते हैं। तो बच्चों को वैसे भी मां - बाप से दूर हो जाना है। आप अभी से क्यों बेटे को दूर कर देना चाहते हैं। कुछ तो समय उस के साथ बिता लीजिए। नहीं फिर साथ रहने का अवसर मिले न मिले। 

मित्र की बात मेरी समझ में आ गई। बेटे को दून स्कूल नहीं भेजा। सचमुच कैरियर की आंधी ने बच्चों को भी अब माता - पिता से दूर कर दिया है। घर में साथ रहते भी हैं तो अजनबी की तरह। कभी मिलते हैं , कभी नहीं। बहुएं भी अब सास ससुर के साथ नहीं रहना चाहतीं। समस्याएं बड़ी जटिल होती जा रही हैं। एकल परिवार भी अब ख़तरे की घंटी बजा रहे हैं। 

हालां कि परिवार का हो चाहे ब्रह्मांड सूरज तो वैसा ही है लेकिन पृथ्वी बदल गई है। बहुत ज़्यादा बदल गई है। बदलती ही जा रही है। ठीक वैसे ही जीवन तो वैसा ही है पर शैली बदल गई है। बहुत ज़्यादा बदल गई है। बदलती ही जा रही है। तुलसीदास ने लिखा ही है :

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥

तो जीवन में , इस शरीर में कोई छठी चीज़ अलग से उपस्थित नहीं हुई है फिर भी जीवन शैली बीते बीस सालों में क्या अब तो पाता हूं हर साल कई बार बदलती जाती है। बल्कि सदियों - सदियों से क्षण - क्षण बदलती जाती है। इतना कि पहले ज़िंदगी से बाज़ार था , अब बाज़ार से ज़िंदगी है। आधुनिकता और तकनीक ने जीवन को बहुत फास्ट , बहुत व्यस्त पर बहुत निकम्मा और बहुत अकेला कर दिया है। इतना कि अब लगभग हर कोई तनहा है। बहुत तनहा। वह जो मीना कुमारी ने लिखा है न :

 चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा

दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा


बुझ गई आस छुप गया तारा

थरथराता रहा धुआँ तन्हा


ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं

जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा


तो जब जिस्म और जां तन्हा हो जाएं तो सोचिए कि आदमी और कितना तन्हा हो गया है। बताने की ज़रूरत नहीं है। संयुक्त परिवार में जीना एक समय त्रासदी बन कर , बोझ बन कर उपस्थित हुआ। तब जब कि भारतीय समाज की सब से बड़ी ताक़त था संयुक्त परिवार। पर संयुक्त परिवार का टूटना बहुत बड़ी दुर्घटना बन गई। जीवन शैली ही क्या राजनीति , समाज , सिनेमा , साहित्य सब कुछ बदल गया। पहले ज़्यादातर फ़ैशन बदलता था , अब आदमी ही बदल गया। आदमी की संवेदना , सिसकी और आंसू तक बदल गया है। आर्थिक उदारीकरण से उपजी आवारा पूंजी ने सारा कुछ तहस-नहस कर दिया है। कई बार सोचता हूं कि जीवन भी है कहीं जो जीवन शैली पर बात करूं। मुक्तिबोध याद आते हैं :

अब तक क्या किया,

जीवन क्या जिया,

ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम

मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम..."


कंप्यूटर , मोबाइल जैसे कम पड़ रहा था आदमी को अकेला कर उस की जीवन शैली में खोखलापन भरने के लिए कि अब ए आई भी उपस्थित हो गया है। एकल परिवार की तन्हाई ने जैसे उसे तोड़ दिया है। हमारे एक आई ए एस मित्र हैं। रिटायर हो गए हैं। शानदार बंगले में रहते हैं। नौकर - चाकर हैं। पर कुछ समय पहले बुढ़ापे की साथी जीवन संगिनी का निधन हो गया। एक बेटा है। अमरीका में कहीं सेटिल्ड है। जब कभी बेटे का फ़ोन आता तो हालचाल के बाद अपने अकेलेपन का गाना गाने लगते। एक बार बेटा आया और उन्हें अपने साथ अमरीका ले गया। अमरीका में बेटा , बाप से भी ज़्यादा शानदार ढंग से रहता है। पर अमरीका जाने के दस दिन बाद अचानक ही बेटे ने पिता को एक होटल में शिफ़्ट कर दिया। कहा कि , ' कुछ दिन यहां रहिए। हम आप से मिलने आते रहेंगे। फिर जल्दी ही घर ले चलेंगे। ' कोई पंद्रह दिन बीत गया। बेटा होटल आया ही नहीं। न कोई फ़ोन किया। पिता ने ख़ुद टिकट कटाया। होटल का बिल चुकता किया और लखनऊ वापस आ गए। महीने भर बाद बेटे का फ़ोन आया कि , ' पापा , जल्दी ही आप से मिलने आ रहा हूं। ' पापा ने कहा , ' मत आओ , मैं लखनऊ वापस आ गया हूं। ' वह बोले , ' तुम्हारे और बच्चों के साथ रहने गया था। होटल से अच्छा तो हमारा लखनऊ का घर है। इस लिए वापस चला आया। ' बेटे ने उन से सॉरी भी नहीं कहा। बोला , ' इट्स ओके ! '

ऐसे कई जीवन हैं जिन की शैली बेतरह बदल गई है। बदरंग हो गई है। शहरों में तो तमाम मंहगे-मंहगे वृद्धाश्रम हैं। लोग पचास - पचास हज़ार रुपए महीने दे कर वहां रह रहे हैं। गरीबों के लिए अनाथालय , यतीमख़ाने और रैन  बसेरे हैं। पर भारतीय गांवों का अजब आलम है। गांव के गांव वृद्धाश्रम में तब्दील हैं। बच्चे भौतिकता की अगवानी में शहर के हो कर रह गए हैं। वृद्ध शहर जाने को तैयार नहीं। शहर ? अरे छोटे शहरों में रहने वाले वृद्ध भी मुंबई , बैंगलौर , हैदराबाद , दिल्ली जाने को तैयार नहीं। क्या तो वह शहर जा कर , फ़्लैट में क़ैद हो कर , खुली हवा वाली अपनी जीवन शैली बदलने को तैयार नहीं। ग़नीमत है कि आधुनिकता की आंधी में मिले स्मार्ट फ़ोन और वाट्स अप की सुविधा ने रोज देखने और बतियाने की सुविधा दे दी है। आप दुनिया में कहीं भी हों , संबंधों में कितना भी बेगानापन क्यों न हो , गुफ़्तगू भी हो जाती है और दीदार भी। 

गोरखपुर में एक वकील साहब हैं। बहुत पैसा कमाया। डोनेशन दे कर बेटे को इंजीनियर बनवाया। जुगाड़ लगा कर नोएडा में नौकरी लगवाई। गाज़ियाबाद में एक नहीं , तीन घर ख़रीद कर बेटे को दे दिया। दो घर से बढ़िया किराया भी आता है। इस के पहले बेटियों की भी बढ़िया शादी कर दी बारी - बारी। सब सुखी और संपन्न हैं। पर वकील साहब को सब अब भूल गए हैं। बेटा , बेटी सभी। वकील साहब अब न बोल सकते हैं , न लिख सकते हैं। न अपने हाथ से खा सकते हैं। ख़ुद बाथरूम भी नहीं जा सकते। वृद्ध पत्नी अकेले सेवा करती रहती हैं। वीडियो काल पर बच्चे न बात करते हैं , न देखते हैं। बोल - लिख नहीं सकते सो तकलीफ भी नहीं बता सकते। बिस्तर ख़राब हो - हो जाता है। यह भी नहीं बता पाते। पत्नी ख़ुद को नहीं संभाल पातीं। पति को कैसे संभालें। दिन में नौकर आता है। रात में नहीं रहता। जो कर पाता है , कर देता है। ज़्यादा कहने पर काम छोड़ देने की धमकी देता है। 

एक तहसील में 85 साल की वृद्ध स्त्री अकेले रहती हैं। पति वकील थे। अब नहीं रहे। बेटे बड़े - बड़े पदों पर रहे। न्यायिक अधिकारी और प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं। लेकिन मां को भूल गए। झुक गई कमर लिए यह मां अपना भोजन ख़ुद बनाती है। किसी तरह जीवन चल रहा है। लोग मजाक उड़ाते हैं पर अब उन का दिल पत्थर का हो गया है। किसी की किसी बात का बुरा नहीं मानतीं। मोबाइल पर कभी कोई बात करता था तो कर लेती थीं। अब फ़ोन नहीं आते तो मोबाइल को एक झोले में रख कर झोला , खूंटी पर टांग दिया है। 

छोटे शहर में रहने वाले एक पिता ने लाखों रुपए खर्च कर बेटे का एडमिशन एक बड़े शहर के बड़े इंजीनियरिंग कालेज में करवा दिया। जमा पूंजी लगा दी। हॉस्टल , कालेज फीस सब एक साथ भर दिया। पहला साल बढ़िया रहा। दूसरे साल कालेज से फ़ोन आया कि फीस जमा कर दीजिए नहीं , बेटा इम्तहान नहीं दे सकेगा। पिता भागा - भागा कालेज पहुंचा। पता चला कि बेटे ने कोई फीस जमा ही नहीं किया था। पिता द्वारा भेजे पैसे शराब , अय्यासी और शेयर बाज़ार में झोंक दिया। वापस आ कर पिता ने किसी तरह कर्ज ले कर फीस भर दिया। बेटा इम्तहान में फिर भी फेल हो गया। फिर फीस जमा किया। फिर वही हाल। कालेज ने नाम काट कर घर भेज दिया। पिता परेशान है। पर बेटे पर मस्ती सवार है। 

दिल्ली में एक संपन्न आदमी ने अस्सी साल की उम्र में अपनी अधेड़ नौकरानी से कोर्ट मैरिज कर लिया। यह मालूम होने पर बाहर रह रहे बच्चों ने बारी - बारी पिता से फ़ोन पर ऐतराज जताया कि , ' यह क्या कर दिया ? ' पिता ने कहा , ' तुम लोगों ने कभी ख़बर ली हमारी ? ' इस औरत ने , इस के बच्चों ने हमारी निःस्वार्थ सेवा की और ख़ूब की। हमारा टट्टी , पेशाब किया। अब मैं कब मर जाऊंगा , नहीं जानता। तो मेरे मरने के बाद इस का क्या होगा , यह सोच कर विवाह कर लिया। क़ानूनी दर्जा दे दिया। ताकि मेरे मरने के बाद हमारी पेंशन इसे मिल सके। इस का गुज़ारा चल सके। प्रापर्टी तुम्हीं लोगों की रहेगी। वसीयत कर दिया है। बस इसे पेंशन मिलती रहे , इस लिए शादी की। इस उम्र में अय्यासी करने के लिए शादी नहीं की है। 

एक मित्र हैं। जवानी में जब पैसे आए तो दिल्ली के साऊथ एक्सटेंशन जैसी आलीशान जगह में कोई पचास साल पहले ज़मीन ख़रीद कर बढ़िया घर बनवाया। एक बेटा था , उसे पढ़ाया - लिखाया। पढ़ - लिख कर बेटा अमरीका गया नौकरी करने। वहीं सेटिल्ड हो गया। बड़े ख़ुश हुए बेटे की इस सफलता पर। शुरू में हरदम चिट्ठियां लिखता था। लैंडलाइन पर फोन करता था। रिटायर होने पर पैसे भी भेजता था। बहुत ख्याल रखता था। आता - जाता रहता था। पर बाद के दिनों में तकनीक बदली तो चिट्ठी पोस्ट से नहीं , मेल पर आने लगी। लैंड लाइन पर नहीं , मोबाइल पर फोन आने लगा। धीरे - धीरे मेल आना बंद हुआ। फ़ोन भी। पैसा आना तो पहले ही बंद हो गया था। एक बार मिलने गया था। देखा कि आलीशान घर , भुतहा घर में तब्दील था। पूछा कि , ' क्या हुआ ? ' तो सारा क़िस्सा एक सांस में मित्र बता गए। क़िस्सा बताते रहे , रोते रहे। रोटी दाल का खर्च चलाना कठिन हो गया था। दवा की मुश्किल हो गई थी। क़र्ज़ पर क़र्ज़ चढ़ चुका था। घर भी ऐसा बनाया था कि उस में एक ही परिवार रह सकता था। किराए पर देने की स्थिति नहीं थी। हम ने उन्हें सलाह दी कि , ' दो रास्ते हैं। या तो इस घर को किराए पर उठा कर किसी छोटे घर में किराए पर रहें। या इसी घर को बैंक में गिरवी रख कर हर महीने का अपना खर्च निकालें। सीनियर सिटीजन को ऐसी तकलीफों से उबारने के लिए बैंकों ने यह स्कीम बनाई है। ' वह दोनों ही प्रस्ताव से सहमत नहीं थे। दो डर थे उन के। कि कहीं किराएदार मकान पर कब्ज़ा कर ले और किराया भी न दे तब ? दूसरा डर था कि बैंक का कर्ज़ा फिर कैसे उतरेगा ? ' हम ने उन्हें बताया कि आप लोगों के मरने के बाद बैंक जाने और बेटा जाने। आप को इस से क्या लेना - देना ? ' कुछ दिन बाद उन्हों ने घर बैंक में गिरवी रख कर हर महीना पैसा लेना शुरू कर दिया। ऐसा उन्हों ने फ़ोन कर के बताया। सभी क़र्ज़ निपटा कर अब आराम से रह रहे हैं। बेटे को मेल लिख कर सब कुछ बता दिया। पर बेटे का कोई जवाब फिर भी नहीं आया। 

यह और ऐसे अनेक क़िस्से हैं। कितने सुनाऊं ?

लेकिन क्या कीजिएगा जीवन शैली अब ऐसी ही हो गई है। सोशल मीडिया ने सब को आत्म - मुग्ध कर निरा अकेला कर दिया है। लोग ख़ुशी हो या ग़म सोशल मीडिया पर ही निपटा देते हैं। कहीं आने जाने की ज़रूरत भूल गए हैं। शादी आदि का निमंत्रण भी वाट्सअप पर। गए लिफ़ाफ़ा दिया। खाना खाया। घर वापस। न दूल्हे को देखने की ललक , न दुल्हन को देखने की ख़ुशी। घर के अगल - बगल के लोग भी एक दूसरे को जानने समझने की ज़रूरत नहीं समझते। घर के भीतर भी यही हाल है। वह एक पाकिस्तानी शायर आली का दोहा है : 

तह के नीचे हाल वही जो तह के ऊपर हाल 

मछली बच कर जाए कहां जब जल ही सारा जाल। 

घर में भले सन्नाटा हो पर मॉल और बाज़ार ख़ूब सजे हैं। स्त्रियां भी। स्त्रियों का भी बड़ा बाज़ार सजा हुआ है। ख़ूब भीड़ है। आफ लाइन भी और आन लाइन भी। तो एक जाल बाज़ार का भी है। कोई चाह कर भी बच नहीं सकता। भीड़ मंदिरों , मस्जिदों , गिरिजाघरों में भी है , कथा आदि सुनाने वाले कारोबारियों के यहां भी। ट्रेनों , जहाजों और सड़कों पर भी। रियल स्टेट की मारी धरती पर कहीं जगह नहीं है। सब जगह जाम है। बस मन की धरती ख़ाली है। हां , संबंध में अगर स्वार्थ है , ज़रूरत है तो बड़ी गरमाई है। धरती हरी - भरी है। सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति। तुलसीदास की कही यह बात तो सदियों से तारी है। पर अब इस के निहितार्थ कुछ ज़्यादा ही अश्लील हो गए हैं। बाक़ी लोगों का मन उलझाने के लिए बोल्ड फ़िल्में हैं। ओ टी टी हैं। बिग बॉस , कौन बनेगा करोड़पति है , कपिल शर्मा शो आदि तमाम गोरखधंधे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पाखंड का अंबार है। सेक्यूलरिज्म का विनाशकारी संसार है। गलाकाट दिखावा है। सोरोस और अडानी है। राजनीति का इस पार , उस पार है। जाने क्या - क्या है। 

एक पुरानी कथा है नदी इस पार , नदी उस पार की। कि एक नदी थी , जिस में पानी कम था। सो नाव के बिना भी पार करना आसान था। घुटना भर पानी था सो लोग पैदल ही पार कर लेते थे। संयोग से एक आदमी को उस दिन नदी को तीन - चार बार पार करना पड़ा। और हर बार एक वृद्ध स्त्री उसे यह कहती मिली कि , ' भइया उस पार करवा दो !' वह उसे गोद में उठाता और पार करवा देता। इस पार भी मिलती और उस पार भी। अंतत: आख़िरी बार उस आदमी ने उस वृद्ध स्त्री से पूछ लिया कि , ' आख़िर तुम्हें जाना कहां है ? हर बार मुझे मिल जाती हो , नदी इस पार , उस पार करती रहती हो  ! ' वह स्त्री थोड़ी सकुचाई और बोली , ' जाना तो कहीं नहीं है पर क्या करूँ लाचारी है और बीमारी भी। ' आदमी चकित हुआ और पूछा , ' लाचारी और बीमारी ? ' वृद्ध स्त्री बोली , ' देखो भइया , हम हैं पुरानी रंडी। पुरुषों से छूने , छुलाने की आदत हो गई है। बूढ़ी हो गई हूं पर तलब लगी रहती है। लेकिन कोई छूता नहीं , मिलता नहीं। तो यह तरकीब निकाली। लोग गोद में उठा कर नदी इस पार , नदी उस पार करवा देते हैं। हमारी तलब मिट जाती है। हमारा काम हो जाता है। ' तो हमारी जीवन शैली भी अब नदी इस पार , नदी उस पार की तलब में कुछ भी कर लेने को अभिशप्त हो गई है। नरेश सक्सेना एक कविता में इसी लिए लिखते हैं :

पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती

नदी पार नहीं होती नदी में धंसे बिना

तो जीवन शैली ऐसी ही है जो बिना जीवन में धंसे जीवन नहीं पाती। एक बड़ी टीस बोती चलती है यह जीवन शैली और पिन की तरह, किसी शीशे की किरिच की तरह चुभन टांक देती है। जो मन में निरंतर दरकती और किसी कपड़े की तरह मसकती रहती है। गश्त मारती रहती है यह चुभन। यह टीस। जीवन शैली की टीस। जीवन की मैल पर तेज़ाब की तरह बरसती है यह जीवन शैली। हमारे जीवन में गुथी विलाप की बांसुरी की तरह बजती यह शैली , यह जीवन शैली लेकिन बहुत मोहक और अर्थवान भी तो है। इसी लिए हम जीवित हैं और जवान भी। जैसे बर्फ़ गिरता है पर्वत पर और पुष्प खिलता है पृथ्वी पर। ठीक वैसे ही जैसे कोई स्त्री खिल उठती है किसी पुरुष की बाहों में। जैसे पृथ्वी की सतह पर जल है , ठीक वैसे ही हमारे जीवन में , हमारी जीवन शैली है। किसी हाइवे की तरह मोड़ लेती हुई। औचक सौंदर्य में डूबी हुई। आप इसे प्यार करें या ठुकरा दें , यह आप पर मुन:सर है। पृथ्वी और जीवन शैली चाहे जितना बदलें , सूरज का अपना प्रकाश है। यह जाने वाला नहीं है। इस प्रकाश में नहाते रहिए। जीवन शैली चाहे जैसी हो , इसे प्रणाम कीजिए !

[ दस्तक टाइम्स में प्रकाशित ]














2 comments:

  1. Very realistic

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  2. बहुत अच्छा लिखा है। माहौल बदला है।

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