Friday, 3 January 2025

प्रेम के पान में लिपटी कथा

 दयानंद पांडेय 

अगर लव एट फर्स्ट साइट नहीं है। पहला प्यार नहीं है। टीनएज वाला प्यार नहीं है तो किसी भी प्रेम कहानी में इस तरफ कि उस तरफ का संशय सर्वदा उपस्थित रहता है। बच्चन जी की प्रसिद्ध गीत पंक्ति है : इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा। तो यहां तो उपन्यास का शीर्षक ही है उस पार किनारा है। गो कि नायिका वृंदा को न इस पार कुछ मिलता है , न उस पार। मृगतृष्णा ही है उस के हिस्से में। बाल विवाह की यातना और विफल दांपत्य के बाद वह तलाक़शुदा जीवन जीने का नरक ढोती है। मां बन चुकी है। सिंगल मदर बन कर बेटी को पालने लगती है। मन में पूर्व पति से बदला लेने की उथल - पुथल भी है। माता - पिता के सहयोग से फिर से पढ़ाई शुरु करती है। नौकरी में आ जाती है। वृंदा की ज़िंदगी में आहिस्ता से अभिलाष उपस्थित हो जाता है। विवाह का प्रस्ताव भी रखता है लेकिन वृंदा मना कर देती है। फिर जब वह दुबारा अभिलाष के लिए मन बनाती है तब तक अभिलाष का विवाह हो जाता है। 

अधेड़ हो रही वृंदा की जवान बेटी पढ़ाई के लिए यू एस ए चली जाती है। वृंदा ट्रांसफर हो कर लखनऊ आती है। लखनऊ में आर्थोपेडिक सर्जन जयंत से भेंट होती है। जयंत पेंटिंग का भी शौक़ीन है। जयंत की ज़िंदगी में भी कई ब्लैक शेड्स हैं। निशा जो उस की प्रेमिका है , एक एक्सीडेंट में गुज़र जाती है , उस के विरह में जयंत डिप्रेशन का शिकार हो जाता है। जयंत की शादी चित्रा से हो जाती है। जब कि चित्रा एक शायर साहिल के प्रेम में थी। खैर विवाह के बाद वह जयंत की हो कर रह जाती है। लेकिन वृंदा और जयंत की मुलाक़ात होती है दोनों पहले तो    एक निश्चित दूरी बनाए रखते हैं। वृंदा की बेटी पढ़ाई पूरी कर यू एस ए से लौटती है तो वह भी जयंत में अपना पिता तलाश करती है। जय का बेटा भी वृंदा में मां देखता है। फिर आग और फूस का रिश्ता कब तक खैर मना सकता है। सहसा एक दिन वृंदा और जयंत के बीच की दूरियां  मिट जाती हैं। जयंत को यह ग़लत लगता है। बाद में आ कर वृंदा से माफी मांगता है। जयंत की यह माफी वृंदा को आहत करती है। दोनों के बीच बातचीत बंद हो जाती है। बाद में वृंदा गोमती तट पर जयंत को मिलने के लिए बुलाती है। पहले भी वह यहां मिलते रहे हैं। आपसी अंडरस्टैंडिंग के साथ एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। कि फिर कभी मिलेंगे। वृंदा ट्रांसफर ले कर बेंगलूर चली जाती है। कथा यहां स्थगित हो जाती है। 

पर क्या सचमुच ? 

कथा बताती है कि स्त्री हो या पुरुष , अकेले नहीं रह सकते। बिना प्रेम के नहीं रह सकते। संग - साथ और प्रेम की छांव दोनों ही की ज़रुरत है। भूख और प्यास सब की एक जैसी होती है। नदी जैसे अपना रास्ता बनाती चलती है , प्रेम और उस की भूख भी राह और साथी ढूंढ ही लेते हैं। अनायास। बच्चन जी का ही एक और गीत है : मैं इस लिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो। वृंदा लेकिन बच्चन जी के इस गीत की ज़मीन को तोड़ देती है। किसी पहाड़ी नदी की तरह पूरे वेग से बह निकलती है। खड़ी नहीं रहती कि कोई पुकार ले। किसी नदी की तरह बहती हुई ख़ुद पुकार लेती है। विवाहेतर संबंध पहले के समय में भी थे अब और अधिक स्पष्टता लिए हुए हैं। स्त्री ने अपनी ज़रूरत ख़ातिर संकोच की सिलवटें दुरुस्त कर ली हैं। बने - बनाए सांचे को तोड़ कर चकनाचूर कर दिया है। उस पार किनारा है की वृंदा ऐसी ही चरित्र है। कथा में ज़ुल्फ़ों की तरह पेचोख़म बहुत है। इन ज़ुल्फ़ों के पेचोख़म को सुलझाना ही कथा का अभीष्ट जान पड़ता है। सुरभि सिंह शिक्षिका हैं तो आख़िर में विवाहेतर संबंधों से बचने का उपदेश भी थमा देती हैं। इस उपदेश से बचना चाहिए था। उपन्यास नैतिक शास्त्र की पुस्तक नहीं होता। जीवन नैतिक शास्त्र से सिर्फ़ नहीं चलता। स्त्री - पुरुष मनोविज्ञान और ज़रूरतों से भी चलता है। प्रेम शास्त्र में नैतिक शास्त्र रसाघात करता है।  

फिर भी सुरभि सिंह को उन के इस पहले उपन्यास उस पार किनारा है के लिए अनंत शुभकामना। यह ठीक है कि हमारे समाज में वृंदा जैसे चरित्र को लोग चरित्रहीन मानते हैं तो ज़्यादातर स्त्रियां बचती हैं ऐसे चरित्रों को छूने से। गढ़ने से। इसी लिए कुछ अपवाद छोड़ दें तो हिंदी में स्त्रियां साधारण या आदर्शवादी कथानक ही चुनती हैं लिखने के लिए। विवाहेतर संबंध या अन्य विवादित विषयों से बचती मिलती हैं यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे। रिस्क ज़ोन माना जाता है यह। लेकिन सुरभि सिंह ने इस दुरभि - संधि को भी तोड़ा है उस पार किनारा है उपन्यास में। रिस्क ज़ोन में गई हैं और धंस कर लिखा है। वृंदा जैसी जुझारू स्त्री को गढ़ने और उस की यातना कथा को प्रेम के पान में लपेट कर पेश करने के लिए बहुत साहस की ज़रूरत होती है। सुरभि सिंह ने इस साहस का बड़ी निर्भीकता से चयन किया है। कथा कहने की कला और उस कथा - नदी में पाठक को डुबो देने की क्षमता सभी में नहीं होती। सुरभि सिंह ने यह क्षमता आहिस्ता - आहिस्ता विकसित की है। कथा कहने की ललक और लालसा तो सुरभि सिंह में है ही , आग भी बहुत है। अमूमन स्त्रियां ऐसे कथानक से परहेज़ करती हैं। सुरभि सिंह ने परहेज़ करने के बजाय छलांग लगा दिया है। चरित्रों के चित्र में छिलका - छिलका उतार दिया है। ऐसे जैसे मटर या मूंगफली का छिलका हो।  


[ सुरभि सिंह के उपन्यास उस पर किनारा है की भूमिका ]

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