Sunday, 12 January 2025

जब प्यार किया तो डरना क्या को क्रांतिकारी गीत बताने वाले माता प्रसाद त्रिपाठी का जाना

दयानंद पांडेय 

मैं तब विद्यार्थी था। कालेज में कविता और कहानी की प्रतियोगिता थी। वार्षिक समारोह में अज्ञेय जी मुख्य अतिथि थे। अज्ञेय जी ने जब लगातार मुझे दो बार प्रथम पुरस्कार दिया तो दूसरा पुरस्कार देते हुए धीरे से कहा कि प्रतीक के लिए भी रचना भेजिए। रचना भेजिए तो समझ में आया , मन में गुदगुदी सी हुई भी पर कहां भेजें , समझ में नहीं आया। मेरे कालेज के प्राचार्य और हमारे हिंदी अध्यापक  भी मंच पर उपस्थित थे। बाद में डरते - डरते उन दोनों से भी पूछा , प्रतीक के बारे में। दोनों ही को नहीं मालूम था। अब रचना भेजें भी तो कहां भेजें। समझ नहीं आ रहा था। एक दिन माता प्रसाद त्रिपाठी से आकाशवाणी में भेंट हुई। वह कोई वार्ता रिकार्ड करवाने आए थे। और मैं कविता पाठ की रिकार्डिंग के लिए गया था। बहुत संकोच से उन से प्रतीक के बारे में पूछा। स्वभाववश हंसते हुए उन्हों ने बताया कि प्रतीक एक साहित्यिक पत्रिका है। अज्ञेय जी संपादक हैं इस के। फिर उन्हों पूछा कि क्या हुआ ? उन्हें पूरी घटना बताई। वह बोले , यह तो बहुत अच्छी बात है। रचना भेजिए। प्रतीक का पता पूछा तो वह बोले , याद नहीं है। कभी घर आइए। पत्रिका है मेरे पास। पता देख लीजिए। मैं ने कहा कि कभी क्यों , आज ही आप के साथ चलता हूं। उन के साथ उन के घर गया। आकाशवाणी कार्यालय से एक किलोमीटर पर ही अलहलादपुर में उन का घर था। किराए का। पत्रिका देखी। 

प्रतीक नहीं , नया प्रतीक थी। ख़ैर पता नोट किया। और दूसरे ही दिन पत्रिका के पते पर एक गीत पोस्ट कर दिया। बात ख़त्म हो गई। कोई पांच - छ महीने बीत गए। कोई जवाब नहीं आया नया प्रतीक से। मुझे लगा कि अब शायद ही नया प्रतीक में गीत छपे। एक दिन शाम को माता प्रसाद त्रिपाठी के घर गया तो वह धधा कर मिले। बहुत ख़ुश थे। गले लगाते हुए बोले , बहुत बधाई ! मैं ने पूछा कि हुआ क्या ? उन्हों ने पूछा , आप को कुछ मालूम ही नहीं ? मैं ने ना में सिर हिलाया। वह उछलते हुए बोले , नया प्रतीक में आप का गीत छप गया है। आप पता ले तो गए थे हम से ! मेरी ख़ुशी का कोई आरपार नहीं था। मैं ने कहा कि पत्रिका कहां मिलेगी ? वह बोले , मेरे पास है। उन्हों ने पत्रिका दिखाई और कहा कि लेकिन दूंगा नहीं। मेरे पास रहेगी। आप चाहिए तो वीनस बुक से ले लीजिए। पैसा न हो तो , पैसा देता हूं। ख़रीद लीजिएगा। लेकिन उस समय पत्रिका खरीदने भर के पैसे मेरे पास थे। मैं चलने लगा तो कहने लगे , मिठाई खा कर जाइए। मिठाई खाई और तुरंत साईकिल उठाई। पहुंचा वीनस बुक स्टोर पर। नया प्रतीक मिल गया था। फिर माता प्रसाद त्रिपाठी पूरे शहर में बताते फिरे नया प्रतीक और मेरे छपे गीत के बारे में। मुझ से ज़्यादा ख़ुशी उन को थी। वह यह भी बताते कि पता मैं ने ही दिया था। अयोध्या के स्वामीनाथ पांडेय के बड़े प्रशंसक थे। जब पूर्वी संदेश का काम देख रहा था तब अपने निबंध के साथ ही स्वामीनाथ पांडेय के निबंध भी छापने के लिए देते थे। एक समय था जब वह मुगलेआज़म फ़िल्म के बड़े प्रशंसक थे। शक़ील बंदायूनी के लिखे गीत जब प्यार किया तो डरना क्या को क्रांतिकारी गीत बताते नहीं थकते। कुछ लोग बड़े सलीक़े से उन से प्रतिवाद करते हुए कहते , क्या गुरुदेव ! लेकिन वह भिड़ जाते। एक से एक तर्क और उस गीत की व्याख्या परोसते हुए। लोग बिदक जाते। कहते कि पढ़ाते प्राचीन इतिहास हैं और गाथा मुग़लिया सल्तनत की गाते हैं। और वह भी इश्कबाज़ी के गाने पर खर्च होते रहते हैं। क्रांतिकारी बता देते हैं। जब कुछ नहीं मिलता तो उन के निजी जीवन में ताक-झांक करने लगते।  

ललित निबंध लिखने वाले गोरखपुर में विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास पढ़ाने वाले माता प्रसाद त्रिपाठी लेकिन ऐसे ही थे। हरदम ख़ुश और मस्त रहने वाले। पुत्रवत था पर मित्रवत मानते और मिलते थे। ऐसे जैसे हमउम्र दोस्त हों। हंसी - मजाक से लबरेज। जवां दिल। किसी की बात का बुरा नहीं मानते थे। टाई बांधे , पान खाते , कूंचते , हंसते - बतियाते और हरदम प्रसन्न रहने वाले अकसर मेरी रचनाओं के छपने की सूचना सब को देते रहते। हर हफ़्ते एक बार उन के घर भेंट ज़रूर होती। कई और सूचनाएं देते रहते। क्या लिख रहे हैं , कहां क्या प्रकाशित हुआ पूछते रहते। प्रोत्साहित करते रहते। उन की मकान मालकिन उर्मिला शुक्ला दरवाज़ा खोलतीं। बड़े भाव से स्वागत करतीं। जब तब गीत सुनातीं। लोक गायिका थीं। आकाशवाणी पर भी जातीं। माता प्रसाद त्रिपाठी उन दिनों सक्रिय बहुत रहते। हर आयोजन में मिलते। उन के घर पर भी आयोजन होते रहते। गोरखपुर में कुछ लोग उन्हें तंज में माता जी कह कर पुकारते। माता जी कह कर ज़िक्र करते। पर वह बुरा नहीं मानते थे। बाद में दिल्ली चला गया। दिल्ली में एक बार विश्वहिंदी सम्मलेन हुआ। सम्मेलन में वह इंद्रप्रस्थ स्टेडियम में अचानक मिले। परेशान थे। हम ने पूछा , क्या हुआ ? वह बोले , बहुत दूर और ग़लत जगह आयोजकों ने ठहरा दिया है। साकेत में डी डी ए के किसी नए बने फ़्लैट में ठहरा दिया है , जिस की खिड़कियों में शीशा भी नहीं है। हवा और मच्छर दोनों ही तबाह किए हुए हैं। हम ने कहा , हमारे घर चले चलिए। विवाह नहीं हुआ था सो अकेले ही रहता था। कोई दिक़्क़त नहीं थी। पता बताने लगा। वह बोले , अकेले नहीं हूं। चार लोग और साथ हैं। मैं ने कहा कि सभी लोग साथ चलिए। वह अचानक ख़ुश हो गए। कहने लगे , जहां ठहरा हूं साथ चलिए। फिर आप के साथ आप के घर चलूंगा। दिल्ली में पता खोजना बहुत कठिन काम है। कार्यक्रम समाप्त होने पर हम उन के ठहरने की जगह पहुंचे। नीचे टेंट वाले रद्दी से गद्दे पर लोग पसरे हुए थे। एक-एक कमरे में चार - चार लोग। बुरी स्थिति थी। अव्यवस्था की चादर चहुं ओर पसरी पड़ी थी। खैर ले आया अपने मानसरोवर पार्क वाले घर। बहुत ख़ुश हो गए। मेरी कालोनी की तुलना इलाहाबाद के किसी मोहल्ले से करने लगे। कहने लगे कि  ऐसे ही खुला - खुला होना चाहिए। दो - तीन दिन रह कर वापस गोरखपुर चले गए। 

गोरखपुर लौट कर उन्हों ने एक बहुत भावुक सी चिट्ठी लिखी। चिट्ठी क्या लगभग निबंधात्मक संस्मरण कहिए। वह चिट्ठी अविस्मरणीय थी। पर दुर्भाग्य कि उसे सहेज कर नहीं रख सका। गोरखपुर जाने पर उन से भेंट होती। बाद में मैं लखनऊ आ गया। माता प्रसाद त्रिपाठी भी अपना घर बना कर अलहलादपुर वाला किराए का घर छोड़ गए। नया घर उन्हें सूट नहीं किया। उन का जवान बेटा नहीं रहा। वह टूट से गए। बाद में अयोध्या के अपने गांव में शिफ्ट हो गए। एक बार लखनऊ आए तो घर आए। बेटे की याद में खो गए। कहने लगे ज्योतिषीय गणना की जानकारी है मुझे। मुझे मालूम था कि उस की आयु ज़्यादा नहीं है। इसी लिए उस की शादी भी जल्दी कर दी। अब बहू है , पोता है तो जीवन है। जब सब रंग : लोक राग पुस्तक उन की छपी तब भी वह लखनऊ मेरे घर आए। किताब देने। वह जब भी कभी लखनऊ आते , पुरानी यादों में खो जाते। कभी खुश , कभी उदास। हां , अयोध्या में अपने गांव आने का न्यौता ज़रूर देते। कहते जब भी बाई रोड गोरखपुर जाइए तब मेरे घर भी आइए। रास्ते में ही है। फ़ोन करते तब भी बुलाते। कहते आइए , दो - चार दिन हमारे साथ भी रह जाइए। थोड़ा मेरा अकेलापन टूटेगा। हर बार जाने की सोच कर भी नहीं जा पाया। अब जब आज उन के जाने की सूचना मिली है तो बहुत अफ़सोस हो रहा है कि क्यों नहीं एक बार चला गया उन के साथ रहने। हमेशा उन से कुछ न कुछ मिलता ही था , जाता नहीं था। 



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