दयानंद पांडेय
दिनमान में भी रघुवीर सहाय का मूल पद सहायक संपादक का ही था। बस नाम भर प्रिंट लाइन पर संपादक के तौर पर छपता था। सहाय जी की मूल नौकरी भी नवभारत टाइम्स की ही थी। अज्ञेय जी जब संपादक हुए दिनमान के तो उन्हें दिनमान में बुला लिया। जाते समय प्रबंधन से कह कर सहाय जी को संपादक बनवा दिया। इतना ही नहीं कन्हैयालाल नंदन के साथ भी यही हुआ कि उन का मूल पद भी धर्मयुग में सहायक संपादक का था पर मुंबई से दिल्ली आ कर पराग के प्रिंट लाइन पर संपादक थे वह। नंदन जी एक समय 10 , दरियागंज के संपादक कहे जाते थे। दिल्ली से प्रकाशित टाइम्स की सारी पत्रिकाओं का कार्यालय 10 दरियागंज ही था। और कि एक समय नंदन जी इन सभी पत्रिकाओं के संपादक। सारिका , दिनमान , पराग , खेल भारती , वामा। इन सभी पत्रिकाओं के संपादक थे नंदन जी। बात - बेबात झाड़े रहो कलट्टरगंज कहने वाले नंदन जी से जब टाइम्स प्रबंधन नाराज हुआ तो उन के मूल पद सहायक संपादक के तौर पर नवभारत टाइम्स में भेज दिया। सारी कलेक्ट्री हवा हो गई। उस समय सुरेंद्र प्रताप सिंह नवभारत टाइम्स में कार्यकारी संपादक थे।
यही सुरेंद्र प्रताप सिंह एक समय मुंबई में धर्मयुग में टाइम्स अप्रैंटिस स्कीम के तहत अप्रैंटिस हुए थे। सुरेंद्र प्रताप सिंह और उदयन शर्मा दोनों ही। एम जे अकबर तब इलस्ट्रेटेड वीकली में खुशवंत सिंह के साथ थे। 35 साल की उम्र में अकबर जब आनंद बाज़ार पत्रिका की अंगरेजी पत्रिका संडे के संपादक हुए तो सब से युवा संपादक कहलाए। बाद में टेलीग्राफ जैसा शानदार अख़बार भी निकाला। एशियन एज भी। आनंद बाज़ार की हिंदी पत्रिका रविवार जब छपी तो एम जे अकबर की देखरेख में। अकबर धर्मयुग से सुरेंद्र प्रताप सिंह और उदयन शर्मा को रविवार ले आए। सुरेंद्र प्रताप सिंह कोलकाता में रविवार के संपादक हुए , उदयन दिल्ली में व्यूरो चीफ। बाद में धर्मयुग से योगेंद्र कुमार लल्ला को भी आनंद बाज़ार की बच्चों की पत्रिका मेला पत्रिका का संपादक बनवाया अकबर ने। रविवार ने हिंदी पत्रकारिता को एक नया तेवर दिया था जिसे बाद में जनसत्ता ने धार दी। बाद में यही सुरेंद्र प्रताप सिंह नवभारत टाइम्स , दिल्ली के फ़रवरी , 1985 में कार्यकारी संपादक हुए। और कि जो सुरेंद्र प्रताप सिंह , बरसों पहले धर्मयुग में सहायक संपादक कन्हैयालाल नंदन के साथ अप्रैंटिश रहे थे , उन्हीं सुरेंद्र प्रताप सिंह के अधीन नंदन जी को कर दिया गया। इतना ही नहीं , 10 दरियागंज के संपादक रहे नंदन जी के पास हर हफ़्ते रविवार को छपने वाले साप्ताहिक परिशिष्ट में क्वार्टर पेज पर छपने वाली पुस्तक समीक्षा का काम दे दिया गया। सहाय जी के पास भी यही काम रहा था नवभारत टाइम्स में। नंदन जी ने जब सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को पराग का संपादक बनवाया तो यही सब देखते हुए सर्वेश्वर जी ने संपादक की जगह प्रिंट लाइन पर संपादन लिखवाया। सर्वेश्वर जी पराग में रहते हुए ही दिवंगत हो गए थे। हार्ट अटैक से।
असल में जब कमलेश्वर सारिका के संपादक थे मुंबई में तब कांग्रेस की वफ़ादारी में जनता पार्टी सरकार से निरंतर पंगा लेते जा रहे थे। पत्रिका कहानी की थी पर सारिका की संपादकीय और अन्य टिप्पणियां राजनीतिक हो गई थीं। बहुत से विवाद हुए। आलमशाह ख़ान की एक कहानी किराए की कोख को ले कर बहुत विवाद हुआ। सुब्रमण्यम स्वामी ने विवाद उठाया कि यह किराए की कोख हिंदू स्त्री की ही क्यों है ? सुब्रमण्यम स्वामी को ले कर और भी विवाद हुआ। जैसे एक विवाद कमलेश्वर के उपन्यास काली आंधी को ले कर भी। सुब्रमण्यम स्वामी ने मुंबई में टाइम्स आफिस की लिफ्ट में कमलेश्वर से कहा कि बहुत अच्छा चित्रण किया है इंदिरा गांधी का। कमलेश्वर ने कहा कि यह चित्रण इंदिरा गांधी का नहीं , विजयाराजे सिंधिया का है। सारिका में इस बाबत विस्तार से लिखा। गो कि वह चरित्र इंदिरा गांधी का ही था। क्यों कि काली आंधी पर गुलज़ार ने आंधी नाम से फ़िल्म बनवाई तो संजय गांधी इतना नाराज हुए कि देश भर के सिनेमाघरों से फ़िल्म उतरवा दिया। प्रिंट जलवा दिया।
एक बार कमलेश्वर ने सारिका में एक संपादकीय में लिखा कि यह देश किसी मोरारजी देसाई , किसी चरण सिंह , किसी जगजीवन राम भर का नहीं है। सारिका का यह अंक तो छप गया इस संपादकीय के साथ। पर टाइम्स प्रबंधन ने बाज़ार में सारिका का यह अंक नहीं आने दिया। कमलेश्वर बतौर संपादक तब इतने ताक़तवर हो गए थे , कांग्रेस लॉबी का इतना समर्थन था कि टाइम्स प्रबंधन कमलेश्वर को हटा नहीं पाया। बल्कि सारिका का दफ़्तर ही मुंबई से हटा कर दिल्ली कर दिया। टाइम्स प्रबंधन को मालूम था कि मुंबई में कमलेश्वर के पास फ़िल्म लिखने का ज़्यादा काम है , वह दिल्ली नहीं जाएंगे। कमलेश्वर गए भी नहीं। नंदन जी संपादक बना दिए गए। कमलेश्वर ने उक्त संपादकीय छापने के लिए कथायात्रा नाम से पत्रिका निकाली। तीन कि चार अंक बाद बंद हो गई। फिर वह गंगा के संपादक हुए। जागरण के , भास्कर के भी। ख़ैर बाद में जब इंदिरा सरकार लौटी तब कमलेश्वर भी दिल्ली लौटे। दूरदर्शन में अतिरिक्त महानिदेशक बन कर। जो उस समय आई ए एस का पद हुआ करता था। कांग्रेस की खासियत थी और कि है कि वह अपने समर्थन में लिखने वाले लेखकों , पत्रकारों को हमेशा उपकृत करती रहती है। सिर पर बिठा कर रखती है। दिनकर हों , बच्चन हों , श्रीकांत वर्मा , खुशवंत सिंह , चंदूलाल चंद्राकर से लगायत राजीव शुक्ल , मृणाल पांडे , आलोक मेहता , आदि - इत्यादि बहुतेरे नाम हैं। एक समय एन डी टी वी से एक ही साल में पांच लोगों को पद्म पुरस्कार मिल गए थे। तो क्या मुफ्त में ? भाजपा वाले इस मामले में अतिशय कृपण हैं। या कहिए कि उन के पास इस का विजन नहीं है। न अवकाश।
लौटते हैं आप के मूल सवाल रघुवीर सहाय पर। कि क्यों नहीं आप के इस बछड़ा उत्साह वाले प्रस्ताव पर विचार किया रघुवीर सहाय ने। क्यों कि आप का प्रस्ताव बहुत बचकाना था। आप आज भी तमाम अनुभव के बावजूद कई बार बचकानी बात करते मिलते हैं। कमलेश्वर आदि का हश्र देख रहे थे रघुवीर सहाय। कि कथायात्रा जैसी समृद्ध पत्रिका कैसे तीन अंक बाद बंद हो गई। तब जब कि कमलेश्वर के पास संसाधन थे। चंदा देने वाले भी बहुत। दूसरे , प्रेस इन्क्लेव वाले फ़्लैट की किश्तें शेष थीं रघुवीर सहाय की तब। बच्चे तब तक व्यवस्थित नहीं हुए थे। पढ़ रहे थे। नवभारत टाइम्स की नौकरी से सहसा इस्तीफ़ा देना मतलब आर्थिक हितों पर चोट थी। सहाय जी फिएट से चलते थे। पर उन दिनों सहाय जी को सिटी बस से चलते देखा। रिटायर होने में कुछ ही समय शेष था। रिटायर होने पर फंड , ग्रेच्युटी आदि पूरी मिल गई। बुढ़ापा आसान हो गया। नंदन जी भी इसी तरह रिटायर हुए फिर फंड , ग्रेच्युटी वगैरह ले कर संडे मेल के प्रधान संपादक बने।
दूसरे , आप दिनमान की कथा शायद नहीं जानते। आप ही क्या बहुत लोग नहीं जानते। वह भी आज जान लीजिए। दिनमान शुरू में टाइम्स आफ इंडिया का प्रकाशन नहीं था। हरिद्वार के श्यामलाल शर्मा अच्छे फ़ोटोग्राफ़र थे। फ़ोटो खींचने के लिए दिल्ली आए। अपनी फ़ोटो छापने के लिए एक पत्रिका की योजना बनाई। तब के दिनों वह चांदनी चौक में रहते थे। पत्रिका निकाली। नाम रखा दिनमान। दिनमान की पूरी परिकल्पना श्यामलाल शर्मा की थी। उन्हों ने दिनमान के कुछ अंक बहुत शानदार निकाले। पर बाद के समय अर्थ की समस्या मुंह बा कर खड़ी हो गई। कब तक घर से या उधार से काम चलाते। मित्रों की सलाह पर वह उन दिनों टाइम्स प्रबंधन का काम देख रही रमा जैन से मिले। दिनमान के सारे अंक ले कर मिले। रमा जैन से कहा कि अर्थ के अभाव में यह पत्रिका चलाना कठिन हो गया है। आप अगर इसे टाइम्स का प्रकाशन बना लें तो अच्छा रहेगा। रमा जैन को दिनमान पत्रिका और उस की अवधारणा अच्छी लगी। श्यामलाल शर्मा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिर श्यामलाल शर्मा से ही पूछा कि इस का संपादक किसे बनाया जाए ? श्यामलाल शर्मा संकोच में पड़ गए। नहीं कह पाए कि संपादक तो मैं हूं ही। बहुत सोच कर अज्ञेय जी का नाम प्रस्तावित कर दिया। यह सोच कर भी कि अज्ञेय जी कहीं ज़्यादा दिन टिकते नहीं। जल्दी ही चले जाएंगे। फिर मैं संपादक बन जाऊंगा। लेकिन संयोग देखिए कि अज्ञेय जी ने रमा जैन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दिनमान के संपादक बन गए। रघुवीर सहाय , श्रीकांत वर्मा , मनोहर श्याम जोशी , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लोग वरिष्ठ पद पर आ गए। और बिचारे श्यामलाल शर्मा उसी दिनमान में संपादक से उप संपादक बन गए । दुर्योग देखिए कि लंबी सेवा के बाद दिनमान से उप संपादक के तौर पर ही रिटायर हो गए। उफ़्फ़ भी नहीं कह पाए। रघुवीर सहाय यह और ऐसे अनेक उदाहरण देख चुके थे। इसी लिए आप का भावनात्मक प्रस्ताव चुपचाप पी गए। पत्रिका या अख़बार निकलना , कोई चैनल चलाना पूंजी का काम है। पूंजीपति का काम है। लेखक या पत्रकार का नहीं। मिशनरी पत्रकारिता जब थी , तब थी। अब इस के बारे में सोचना आत्महत्या करने की सोचना है। हर जगह बछड़ा उत्साह ठीक नहीं होता। आप भाग्यशाली थे कि जवानी में संपादक बन गए। तमाम योग्यतम और श्रेष्ठ लोगों को टाइम्स ग्रुप से उप संपादक पद से ही रिटायर होते देखा है , जहां से रघुवीर सहाय या नंदन जी जैसे क़द्दावर संपादक बतौर सहायक संपादक अपमानित हो - हो कर रिटायर हुए। अंधा युग के रचनाकार और धर्मयुग के लंबे समय तक संपादक रहे , श्रेष्ठ संपादक धर्मवीर भारती की बहुत चलती थी एक समय , पर उन के रहते ही धर्मयुग कैसे बिका और किन - किन कामरेड लेखकों ने उस में दलाली की इस की भी बड़ी दारुण कथा है। फिर कभी।
[ एक मित्र की पोस्ट पर यह मेरा कमेंट ]
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