दयानंद पांडेय
बीते सालों की साहित्य अकादमी की सूची बताती मिलती है कि नरेंद्र मोदी और साहित्य अकादमी को ले कर प्रतिरोध के परखच्चे उड़ गए हैं। बिखर कर मिट्टी में मिल गए हैं। विरोध की सारी नौटंकी स्वाहा हो गई है। एक से एक क्रांतिकारी घुटने टेक कर बैठे दीखते हैं। बड़े - बड़े अकड़ू , उकड़ू दीखते हैं। जिन को साहित्य अकादमी मिलता है और जिन को नहीं मिलता है , लेकिन रेस में रहते हैं , उस की भी सूची अब जारी हो जाती। तो सब का चेहरा सामने आ जाता है। चर्चा रेस में होने , न होने की होने लगती है। स्थिति यह है कि बिना जुगाड़ , बिना तिकड़म के यह सूची बनती नहीं है। कुछ नाम तो लगातार प्रति वर्ष रिपीट होते रहते हैं। जैसे ममता कालिया। बीते साल भी सूची में उन का नाम दिखा , इस साल भी।
ममता कालिया मेरी प्रिय और आदरणीय कथाकार हैं। ममता जी के संस्मरण भी अद्भुत हैं। रवींद्र कालिया की ग़ालिब छुटी शराब मुझे बहुत प्रिय है। रवींद्र कालिया मुझे बहुत प्यार करते थे। लेकिन बीते साल ममता कालिया रह गईं और संजीव बाजी मार ले गए। इस बार गगन गिल के हाथ बाजी रही। गगन गिल ने बहुतों को पछाड़ा है l और तो और कभी अपनी बास रही मृणाल पांडे को भी पछाड़ दिया है l मृणाल पांडे जब वामा की संपादक थीं तब गगन गिल उन के साथ उप संपादक थीं l मृणाल पांडे का नाम भी अब की रेस में था l वही मृणाल पांडे जो कांग्रेस की दलाली करती हुई मोदी सरकार पर अकसर बिलो द बेल्ट बात करते नहीं अघातीं l लगता ही नहीं कि वह शिवानी की बेटी हैं और कि एक प्रतिष्ठित संपादक रही हैं कभी l
संजीव भी बड़े क्रांतिकारी मानते हैं ख़ुद को। एक बार उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में भारत भारती के जुगाड़ में पड़े पर बाजी काशीनाथ सिंह मार ले गए। जिन ब्राह्मणों को सर्वदा गरियाते हैं , उन्हीं की कृपा से बीते साल साहित्य अकादमी पा गए। ज्यूरी में भी सभी ब्राह्मण थे और संयोजक भी ब्राह्मण। पर गरियाने की भी दुकानदारी है उन की। ख़ैर , गगन गिल भी मेरी पसंदीदा लेखिका और कवि हैं। मेरे प्रिय लेखक निर्मल वर्मा की पत्नी हैं। जब वामा में थीं तब ज़रा सा परिचित भी थीं। गगन गिल का गद्य और पद्य दोनों ही मुझे पसंद है। उन को साहित्य अकादमी की बधाई। इस कामना के साथ कि ममता कालिया जी को भी जल्दी साहित्य अकादमी मिले। वह डिजर्व करती हैं। बड़ी कथाकार हैं। संस्मरण भी दिलचस्प हैं उन के।
लेकिन गगन गिल को साहित्य अकादमी मिलना कुछ लोगों को खल गया होगा। जैसे राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी को। एक समय निर्मल वर्मा की किताबें राजकमल ही छापता था। तब शीला संधू राजकमल की स्वामिनी थीं। बाद में अशोक माहेश्वरी ने राजकमल प्रकाशन को ख़रीद लिया। शुरू में तो अशोक माहेश्वरी ने निर्मल वर्मा की रायल्टी में ख़ासा इज़ाफ़ा कर दिया। उन के घर नियमित जाने लगे। हर साल रायल्टी बढ़ा - बढ़ा कर देते रहे। कुछ साल बाद अचानक जाने क्या हुआ कि निर्मल वर्मा की रायल्टी कम होने लगी। और अंतत: बंद हो गई। लैंड लाइन फोन का ज़माना था। निर्मल वर्मा अशोक माहेश्वरी को फोन करते तो अशोक उन से बात नहीं करते थे। निर्मल वर्मा चिट्ठी लिखते रायल्टी के बाबत तो अशोक माहेश्वरी किसी चिट्ठी का जवाब नहीं देते। निर्मल वर्मा बीमार हो गए। अस्पताल में भर्ती हो गए।
निर्मल वर्मा ने अपने निधन के कुछ समय पहले राजकमल प्रकाशन से अपनी रायल्टी का हिसाब मांगा। उन का निधन हो गया पर राजकमल वाले अशोक माहेश्वरी ने उन की रायल्टी का हिसाब तब नहीं दिया। उन के निधन के बाद उन की पत्नी गगन गिल ने हिसाब मांगा। राजकमल के अशोक माहेश्वरी ने देश भर के लेखकों को चिट्ठी लिख कर दुनिया भर की बातें बताईं पर गगन गिल को रायल्टी का हिसाब नहीं दिया। अशोक माहेश्वरी ने अपने पत्र में गगन जी की चरित्र हत्या तक की कोशिश की। और प्रकारांतर से यह जताने की कोशिश की कि गगन गिल निर्मल वर्मा की पत्नी नहीं रखैल हैं। चिट्ठी में कहा कि निर्मल जी की व्याहता पत्नी की एक बेटी भी है। गगन गिल को भी मजबूर हो कर देश भर के लेखकों को चिट्ठी लिख कर अपनी सफाई देनी पड़ी। गगन जी को विवश हो कर लिखना पड़ा कि मैं निर्मल वर्मा की व्याहता पत्नी हूं। और कि निर्मल वर्मा अपनी वसीयत में सब कुछ मुझे सौंप गए हैं। किताबों की कापीराइट भी। और कि पहली पत्नी से उन की बेटी को भी किसी बात पर ऐतराज़ नहीं है। फिर भी राजकमल ने उन्हें रायल्टी नहीं दी।
फिर तो हर पुस्तक मेले में वह निर्मल जी की किताब ले कर राजकमल के खिलाफ़ खड़ी होने लगीं। लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। फिर कहीं राजकमल से निर्मल जी की सारी किताबें उन्हों ने वापस लीं। निर्मल जी की सारी किताबें ज्ञानपीठ को सौंप दीं। निर्मल वर्मा ने अपने निधन के पहले अस्पताल से एक लेख भी लिखा था इस मामले पर। इस लेख में उन्हों ने बताया था कि दिल्ली में हिंदी के कई प्रकाशकों को वह व्यक्तिगत रुप से जानते हैं। जिन के पास हिंदी की किताब छापने और बेचने के अलावा कोई और व्यवसाय नहीं है। और यह प्रकाशक कहते हैं कि किताब बिकती नहीं। फिर भी वह यह व्यवसाय कर रहे हैं। न सिर्फ़ यह व्यवसाय कर रहे हैं बल्कि मैं देख रहा हूं कि उन की कार लंबी होती जा रही है, बंगले बडे़ होते जा रहे हैं, फ़ार्म हाऊसों की संख्या बड़ी होती जा रही है तो भला कैसे? निर्मल जी के इस सवाल का किसी प्रकाशक ने आज तक पलट कर जवाब देने की ज़रुरत नहीं समझी।
दिलचस्प यह कि जिस कविता - संग्रह 'मैं जब तक आई बाहर' पर गगन गिल को साहित्य अकादमी मिला है वह वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है। संयोग देखिए कि वाणी और राजकमल दोनों के प्रकाशक आपस में सगे भाई हैं। और दोनों में गहरे मतभेद हैं। ज्ञानपीठ की सारी किताबें भी अब वाणी प्रकाशन के पास हैं। तो राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी के लिए यह डबल सदमा है। अशोक माहेश्वरी ही नहीं और भी अनेक लोग हैं। किस - किस का नाम लूं ?
ममता कालिया को ले कर भी गगन गिल का गहरा विवाद है। एक समय हिंदी विश्वविद्यालय , वर्धा में विभूति नारायण राय वाइस चांसलर थे। वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय से हिंदी नाम की एक अंग्रेजी पत्रिका भी प्रकाशित होती थी। विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया गहरे दोस्त थे। विभूति नारायण राय अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली हिंदी की संपादक ममता कालिया को बनाना चाहते थे। गगन गिल वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी सदस्य थीं। गगन गिल ने मीटिंग में ममता कालिया के नाम का पुरज़ोर विरोध किया। विभूति एक बार दिल्ली में गगन गिल के घर गए। ममता कालिया के नाम पर मनाने के लिए। गगन गिल नहीं मानीं। विभूति कुछ अपशब्द कहते हुए चले गए। गगन गिल ने जनसत्ता में एक लेख लिख कर सारा मामला दर्ज किया और विभूति नारायण राय पर गंभीर आरोप लगाए। लंपट बताया। ज़बरदस्ती करने की बात लिखी। बहरहाल ममता कालिया फिर भी अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली हिंदी की प्रधान संपादक बनीं। और 2009 से 2013 प्रधान संपादक रहीं।
यह लगभग उन्हीं दिनों की बात है जब ज्ञानोदय में विभूति नारायण राय का छिनार प्रसंग चला था। मैत्रेयी पुष्पा ने भी तब विभूति नारायण राय पर जैसा हमला बोल रखा था। धरना प्रदर्शन किया था। जनसत्ता में लेख लिखा था। अंतत: विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया को लिखित माफ़ी मांग कर बात ख़त्म करनी पड़ी थी। गो कि मेरा तब भी मानना था और अब भी कि विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया को माफ़ी नहीं मांगनी चाहिए थी। इस लिए कि उन की बात तथ्यात्मक रूप से सही थी। कुछ लेखिकाएं तो बाक़ायदा अपने कई -कई निजी प्रसंग लिख कर आन रिकार्ड अपने को छिनार बताने की होड़ में थीं। कि कौन बड़ी छिनार। जिन्हों ने नहीं लिखा है , अपने छिनारपन के क़िस्से उन तमाम अन्य के क़िस्से भी सभी जानते हैं। यह क़िस्से भी एक दो नहीं हैं इन लोगों के पास। कितनी नावों में कितनी बार वाली बात है। अंतहीन सिलसिला है। ख़ैर यह उन स्त्रियों का निजी मामला है। वही लोग जानें।
फ़िलहाल तो साहित्य अकादमी कभी भी किसी को भी मिले , विवाद का बाज़ार उस के स्वागत के लिए सर्वदा खुला रहेगा। जिस को मिल जाए मीठा। जिस को न मिले उस के लिए कड़वा। साहित्य अकादमी ही क्यों अब तक के सभी पुरस्कारों की यही कथा है। यही रहेगी।
बहुत सही मूल्यांकन आप द्वारा हिन्दी साहित्य के प्रकाशकों का। जितना शोषण उनके द्वारा हिन्दी-लेखकों का किया जाता है, उतना शायद किसी भाषा के लेखक का नहीं होता। रॉयल्टी के भुगतान के मामले में कमोबेश सभी नामचीन प्रकाशकों की यही दशा, दिशा और रवैया है। भारत में एक लेखक की दुर्दशा दिहाड़ी मज़दूर से भी गयी गुज़री है। प्रकाशक जब आर्थिक रूप से पतले होते हैं स्थापित लेखकों की खुशामद करते हैं और नये लेखकों का दोहन। जैसे जैसे वे आर्थिक रूप से तरक्की करते जाते हैं, तोतियाचश्म और झाँसेबाज़ होते जाते हैं। यही हकीकत है और यही विडंबना।
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