Tuesday 12 July 2016

दयानंद पांडेय की ग़ज़लों में उपमाएं तो देखते ही बनती हैं

निरुपमा पांडेय
 निरुपमा पांडेय

फेसबुक का बहुत बहुत धन्यवाद कि उसने बहुत कुछ अच्छा पढ़ने को उपलब्ध कराया ।  पाठ्य सामग्री इतनी उपलब्ध है कि अगर ज़रा भी मजा न आए पढ़ने में तो इक क्लिक से पेज पलट लीजिए । दूसरी किताब खोल लीजिए ।  ये नहीं कि पैसा दे कर किताब ख़रीदी है तो पढ़ना ही पड़ेगा । इन सब के बाच में मैं ने दयानंद पांडेय  का पूरा साहित्य पढ़ा है । खोज-खोज कर पढ़ा है । न समझ में आने पर इक जिज्ञासु पाठक की तरह उन से बहस भी की है। और मैं यह कहना चाहूंगी कि जितना वो अपने लेखन में स्पष्ट है उतना ही अपने जीवन और विचारों आदि में भी । उन्हों ने लेखन की हर विधा में अपना कमाल दिखाया है । सब से पहले मैं ने उन के संस्मरण पढ़े । फिर कहानी और उपन्यास और इन सब में उन के मुरीद होते गए ।  फिर उन्हों ने कविताएं लिखनी  शुरू कीं । और ढेर सारी कविताएं लिख दीं । फिर अपनी धारा मोड़ते हुए ग़ज़ल की तरफ मुड़ गए। और अब तक 131 ग़ज़लें लिख डालीं । किसी-किसी दिन तो मैं ने देखा कि इक दिन में तीन-तीन ग़ज़लें लिखी गईं । गज़ब का लेखन है उन का ।

और ग़ज़लें भी उन की मुख्यतः दो तरह की हैं । एक तो बहुत ही रुमानी , नाजुक मिजाज , कल्पना से भरपूर । और एक बिलकुल यथार्थ में खरी खरी बातों से गुंथी हुई ।  जिन को पढ़ कर लगा कि अरे ग़ज़ल में भी ऐसी बात कही जा सकती है ? विश्वास ही नहीं होता उन की फेसबुक की पोस्ट भी ज़्यादातर सच, सटीक, निर्भीक और काटदार होती है उसी तरह से उनकी ग़ज़लें भी हैं । जो आज के दौर के  समाज का असली चेहरा दिखाती हुई लिखी गई हैं । जिस से लगता है कि ये इंसान असल ज़िंदगी में भी  इतना अक्खड़ और तीखा कहने वाला होगा । लेकिन रुमानी ग़ज़लों में तो एक अलग ही दयानंद दीखते हैं । ये ग़ज़लें उन के बहुत ही शांत और रुमानी व्यक्तित्व का परिचय देती हैं , उन की कल्पनाओं  का विस्तार दिखाती हैं । उन की इक ग़ज़ल एक शेर देखिए :

     रुंधति रहती हो हर क्षण मुझे किसी कुम्हार की तरह
     गीली मिट्टी हूं जो चाहे बना लो ये दुनिया तुम्हारी है

 क्या समर्पण भाव है इन पंक्तियों में कि पूरा का पूरा तुम्हारा हूं   , मेरा मुझ में कुछ भी नहीं ।  जो चाहे जैसा चाहे गढ़ लो । इस ग़ज़ल में मुझे इक व्याकुल प्रेमी का भाव भी दीखता है , जो अपनी प्रिया से अनुनय कर रहा है  कि लोगो का डर छोड़ दो :

    लोग देखेंगे क्या कहेंगे तोड़ दो ये सारी  वर्जनाएं
    प्यार की अजान और  नमाज सरे राह पढ़ना चाहता हूं 

दयानंद पांडेय की ग़ज़लों में उपमाएं तो देखते ही बनती हैं :

      पड़ोसन भी डायन और चुड़ैल लगती है
      चांदनी जलाती  है जब तुम नहीं होती हो 

वहीं एक प्रेमी का भय भी दिखता है कि कब तक समझौता  करुं :

     डरता हूं तुम जब जिरह करती हो
      टूट न जाए डोर खौफ बहुत अब है

लेकिन साथ ही यह कह कर वह सारी बात ही ख़त्म कर देते हैं :

 
तुम हो तो लव है लव है तो सब है
प्यार की नाव में नदी बहती अब है

लेकिन इन सब के बीच में भी उन का असली चेहरा कभी कभी सामने आ जाता है जो बहुत देर तक झूठ की दुनिया में नहीं रह सकता :
मैं तुम्हें ख़ुद से ज़्यादा चाहता हूं ऐसा
झूठ बोलना भी अच्छा है पर कभी-कभी 

पर इस के साथ ही जो असली दयानंद है सीधे सच्चे लाग लपेट से दूर उन का वो रुप दूसरी तरह की ग़ज़लों में दिखता है । उस की एक बानगी देखिए :

       उन का सीधा आदेश है दूध को काला बताने का
        पर दूध सफ़ेद होता है इस सच को छुपाऊं कैसे 


आज की दुनिया में बाज़ार पर जो सेठों का कब्ज़ा है उस का इक रुप यह रहा :

       आत्मा जमीर जैसे शब्द सड़ गए  जीने की रोज मांगते हैं भीख
        कमीने सारे  लाल कालीन पर भूख के मारे बच्चे कालीन पर सो रहे हैं 

यह एक शेर आप को आज की दुनिया का नंगा सच दिखने में सक्षम है।  पांडेय जी देश विदेश  का दुःख भी ग़ज़ल के जरिए बता देते हैं :

         धरती आकाश समंदर बटता है उस का पानी भी
          पाकिस्तान का माइंड सेट कोई बदल सकता नहीं 

दयानंद की ग़ज़लों में विविध आयाम हैं । कुछ शेर पढ़ कर आप समझ जाते हैं कि इस का शायर कौन है। शायर का आग्रह उस के शेर में छुपा होता है । दरअसल दयानंद पांडेय की ग़ज़लों का टटकापन ही उन का सिग्नेचर है :

          बड़ी आग थी सरोकार भी थे पर पार्टी में सर्वदा अनफिट रहे
           सिद्दांत बघारते बघारते वह कार्यक्रमों में दरी बिछाते रह गए 

दयानंद ने हर तरह की ग़ज़लें लिखी हैं । अभी तक मां पर ग़ज़ल कहने में  मैं मुन्नवर राना ही को जानती थी लेकिन दयानंद पांडेय ने भी मांपर ग़ज़लें कही हैं और क्या ख़ूब कहीं हैं :

           लोग हैं पैसा है अस्पताल है डॉक्टर है और दवा भी
            बीमारी कैसी भी हो मां की दुआ उसे कमजोर कर देती है

           अब वह सिर्फ़ घर नहीं बच्चे नहीं अपनी अस्मिता भी मांगती है
            पिता जो कभी सोच सकते नहीं थे वह मांग उस ने आगे कर दी है

सिर्फ मां ही नहीं बेटी पर भी उन्हों ने बेबाक लिखा है :

             वो दुनिया जहन्नुम है जिस में बेटी और उस की हंसी नहीं होती
              वह आंगन धन्य होता है अनन्य होता है जहां बेटी हंसा करती है

लेकिन यहां उन से क्षमा मांगते हुए कहना चाहूंगी कि उन्होंने पक्षपात किया है । और बेटों पर कुछ नहीं लिखा। 
इतना सब लिखने के बाद भी मेरी नजर में उनका प्रेमी रूप वाला लेखन ही सब से अलग और बेस्ट लगता है जिस में  उन्हों ने बहुत ही बारीकी से दिल को छू लेने वाली ग़ज़लें लिखी हैं :

              बाज़ार बहुत विकट है संबंधों का हर कहीं
               मंदिर में हाथ जोड़े खड़ा हूं तुम्हे जोहता हूं

सही भी  है  आज की दुनिया में संबंधों को निभाना बहुत ही मुश्किल हो गया है । भगवान भरोसे ही है । उन की सच्चाई के तो हम कायल हो गए इस शेर को पढ़ने के बाद :

                पुरुष प्रेम में सर्वदा कायर होता है मैदान छोड़ जाता है
                 स्त्री ही है जो प्रेम के लिए धरती आकाश सब सहती है

भला कितने पुरुषों में ये हिम्मत है जो सरे आम ये सच्चाई स्वीकार कर सके । 

                धुंध में घिरा ख़ामोश खड़ा हूं खुद से खुद को तौलता हुआ
                 मैं सड़क पर हूं घने कोहरे में खोया खुद को खोजता 

एक ग़ज़ल का यह शेर और कि यह पूरी ग़ज़ल ही मेरे दिल के सब से करीब है । इन पंक्तियों में शायर की आकुलता मैं अपने अंदर महसूस करने लगती हूं। लिखने को तो मैं उन की ग़ज़लों पर पूरी एक किताब लिख सकती हूं लेकिन फ़िलहाल यही अपनी भावनाओं और लेखनी को विश्राम देती हूं।

इस लिंक को भी पढ़ें :

1. अभिधा का कहरः दयानंद पांडेय की ग़ज़लें 

2. ग़ज़ल



2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-07-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2403 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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